सोमवार, 25 अगस्त 2014

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर "अनुभूति" इ पत्रिका में प्रकाशित दोहे -----

       मुरली की तान

बंसी ने जब जान ली, राधा कान्हा प्रीत
सुर दूजा साधे नहीं और न गाए गीत|

ब्रज की भोली गोपियाँ, सुन मुरली की तान
घुँघरू बाँधें पाँव में, अधर धरें मुस्कान

कनक रंग राधा हुई, कारे- कारे श्याम
दोपहरी की धूप संग, खेल रही यूँ शाम |

राधा रानी गूथती वैजन्ती की माल
कान्हा पहने रीझते राधा लाल गुलाल

ऊधो से जा पूछतीं अपने मन की बात
कृष्णा ने परदेस से, भेजी क्या सौगात

यमुना तीरे श्याम ने, खेली लीला रास
लहर-लहर नर्तन हुआ, कण-कण बिखरा हास

गुमसुम राधा घूमती, दिल से है मजबूर
हर पंथी से पूछती, मथुरा कितनी दूर

कोकिल कूजे डार पे, गाये मीठे गीत
ढूँढे सुर में राधिका, बंसी का संगीत

सोचूँ जग में हो कभी, मीरा-राधा मेल
दोनों सखियाँ खेलतीं, प्रीत-रीत का खेल

पल छिन चुभते शूल से, क्षीण हुई हर आस     
कैसे काटे रात दिन, नैनन आस निरास                         

-
शशि पाधा 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

http://trivenni.blogspot.in/2014/08/blog-post.html  -- इस लिंक पर प्रस्तुत हैं मेरे रचे "माहिया "

माहिया ----शशि पाधा 

यह प्यार अनोखा है 
मन जब हीर हुआ 
कब,किसने रोका है|

राँझा क्या गाता है
गीतों के सुर में
मन पीर सुनाता है |

सागर जल खारा है
किरणों से पूछो
उनको तो प्यारा है |

लो बदरा बरस गए
धरती प्यासी थी
चुप आके सरस गए |

यह भाषा कौन पढ़े
नैना कह देते
अधरों पे मौन धरे |

यह चुप ना रहती है
साँसें बोलें ना
धड़कन सब कहती है |

कैसी मनुहार हुई
कल तक रूठे थे
अब मन की हार हुई |

मन पंछी उड़ता है
सपने पंख बने
रोके न रुकता है |

दोनों ने ठानी है
राधा कह दे जो
मीरा ने मानी है |

बिन पूछे जग जाने
प्रेम किया जिसने
वो रब को पहचाने 



  शशि पाधा 

दो रचनाएँ--दो भाव

     मौन का सागर 
   
मौन का सागर अपार
मैं इस पार - तू उस पार।

कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
संवादो की गठरी  बाँधे
  खड़े रहे मंझधार
न इस पार , न उस पार |

मान की डाली झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठायों के गहन भंवर में
छूट गई पतवार
कैसे होगा पार ?

उलझ गई रिश्तों की डोर
ढूँढ़ न पाए बिखरे छोर
टूटा मन का ताना बाना
शब्द गए सब हार
मैं इस पार , तू उस पार |

शशि पाधा 

   

     अनुनय 


कुछ कहो, कुछ तो सुनाओ
    गीत कोई गुनगुनाओ ।

बिन कहे और बिन सुने ही
  रात आधी हो गई
मौन के आकाश में हर-
 आस मेरी खो गई

छेड़ दो न सुर सुरीले
      तार मन के बजाओ |

भोर होने को अभी दो -
 चार पल बाकी पड़े हैं
यह घड़ी संवारने को
 दीप ले जुगनूँ खड़े हैं

रोक लो न यह प्रहर
  चाँद को तुम ही मनाओ 

साधना में लीन सी
मौन ये चारों दिशाएँ
रात की कालिमा में
मौन जलती तारिकायें

थाम लो न हाथ मेरा
      रात को कुछ तो सजाओ ।

गीत कोई गुनगुनाओ !!!

शशि पाधा