बुधवार, 28 सितंबर 2016

तस्वीरें बोलती हैं --3
                                                   जिजीविषा 

अमरीका में पतझड़ द्वारे आन खड़ी  है| यहाँ  पर भारत की तरह छ: ऋतुएँ तो नहीं होती किन्तु गर्मी के बाद पतझड़ आ ही जाती है प्रकृति का नियम है , आएगी ही | पतझड़ का स्वागत यहाँ बहुत जोर शोर से होता है  | जब पत्ते रंग बदलते हैं तो इतने रंगों में रंग  जाते  हैं कि इन्हें नाम देना भी कठिन हो जाता है | खैर, पतझड़ के रंगों पर तो मैं फिर कभी लिखूँगी आज मैं एक नन्हे से फूल की जिजीविषा का कथा सूना रही हूँ |
हमारे घर में तरणताल के आसपास सुर्ख गुलाबों की एक झाड़ी है गर्मियों में इतने गुलाब खिलते हैं  कि पत्ते  भी छिप जाते हैं | फिर धीरे- धीरे मौसम बदलने लगता है और गुलाब कम होने लगते हैं पत्ते पीले पड़ने लगते हैं और झड़ने लगते हैं मैं रोज़ उनके पास जाकर मौन में विदा बोलती हूँ और कहती हूँ,"  अगली बार जल्दी आना दोस्त |"
पता नहीं वो मेरी बात सुन पाते हैं कि नहीं किन्तु मैं ठहरी परदेसिन | मुझे यह गुलाब अपने बचपन के घर की याद दिलाते हैं मुझे उनके साथ अजीब सा  मोह हो जाता है जब वो धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं तो  मैं उदास हो जाती हूँ |
कल जब खिड़की से मैंने उस झाड़ी पर एक इकलौता गुलाब देखा तो मैं उसके पास चली गई| आस-पास के पत्ते कुछ हरे पर अधिकतर पीले थे | सूखी टहनियों पर काँटे अभी तक सही सलामत थे मैंने पास जाकर उस नन्हे फूल को निहारा |
देखा तो एक दो काँटे उसे चुभ रहे थे | उस कोमल फूल की  टहनी को मैंने काँटों से अलग किया | लगा, वो फिर से मुस्करा रहा था| आस पास की सूखी झाड़ और पतझड़ की हवाओं से  निश्चिन्त  वो 'जी 'रहा था --अपने आज को पूरी तरह जी  से रहा था
मैंने झट से उसकी तस्वीर ली | उस  तस्वीर को देख कर मेरेमन में एक  विचार आया | उसे मैंने  एक हाइकु के  रूप में  लिख दिया | जैसे वो कह रहा हो ---

मैं  तो खिलूँगा
अरे ओ पतझड़ 
धत तेरे की

 उसकी इस जिजीविषा के संकल्प को नमन |





शशि पाधा

रविवार, 25 सितंबर 2016

भली थी

इक लड़की
कितनी 
भली थी
नाज़ बिछौने
पली थी
माँ अँगना में खेलती
जूही की
कली थी
पिता हथेली पे रखी  
 गुड़-मिश्री
डली थी
अल्हड़ हिरना झूमती
थोड़ी सी
पगली थी
भावी की गलियों में
स्वप्न संजोए
चली थी
ब्याही तो बेगाने घर
धू-धू कर
जली थी
बस इतना ही सुना कहीं  
चंगी थी
भली थी !!!!! 

शशि पाधा


तस्वीरें बोलती हैं ------- 2
                                     भारत- म्यांमार सीमा क्षेत्र

अस्सी के दशक की बात है, भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में बहुत तनाव की स्थिति थी| मणिपुर–नागालैंड के जंगली प्रदेशों में उग्रवादियों ने आतंक फैला रखा था |   देश में अराजकता और अशांति फैलाने के उद्देश्य से चीन और पाकिस्तान इन्हें प्रशिक्षित भी कर रहे थे और घातक हथियारों से लैस भी | हर दिन सुरक्षा बलों पर घातक प्रहार या किसी को अगुआ करने की घटनाएँ घट रही थी | यह उग्रवादी थे तो इन्हीं प्रदेशों के निवासी लेकिन आतंक फैला कर ये कुछ दिनों के लिए म्यांमार (बर्मा) के बीहड़ जंगलों में छिप जाते थे | वो यह जानते थे कि म्यांमार (बर्मा) दूसरा देश है और भारतीय सेना सीमा का उल्लंघन कर के उनके कैम्पों में जाकर कोई कार्रवाही नहीं कर सकती | नागालैंड –बर्मा के उस सीमा क्षेत्र में उनके कैम्प भी स्थापित थे जिनमें उन्हें लगातार अस्त्र –शस्त्र चलाने का प्रशिक्ष्ण मिलता था |
खैर, एक दिन भारत के सारे समाचार पत्र एक दुखद समाचार की सुर्ख़ियों से भर गए | इन उग्रवादियों ने भारतीय सुरक्षा बलों की गाड़ियों पर घात लगा कर  हमला किया जिस में सेना के 22 सैनिक शहीद हो गए | बस अब और नहीं, वाद-संवाद का समय नहीं - यही सोच कर भारत सरकार ने इनसे निपटने के लिए भारतीय सेना की एक महत्वपूर्ण यूनिट ‘प्रथम पैरा स्पेशल फोर्सेस’ को इनके कैम्प नष्ट करने तथा इन क्षेत्रो में अमन चैन स्थापित करने का निर्देश दिया | मेरे पति उन दिनों इस यूनिट के कमान अधिकारी का पदभार सम्भाले हुए थे | बिना समय गँवाए इस पलटन की एक टुकड़ी को हवाई जहाजों द्वारा मणिपुर –नागालैंड के क्षेत्र में उतार दिया गया |  
जंगलों में छिपे उग्रवादियों को ढूँढना और उनके कैम्प नष्ट करना दुरूह कार्य था | इस इलाके में पहुँचते ही हमारी यूनिट की कमांडो टीम छोटी –छोटी टुकड़ियों में विभाजित कर दी गई थी | किसी टुकड़ी को हैलीकॉप्टर की सहयता से जंगलों में उतारा जाता था और कोई टुकड़ी पैदल चलते हुए छिपे इन उग्रवादियों को नष्ट करने में लगी रहती थी |  ऐसे दुर्गम क्षेत्र में भी हमारे बहादुर कमांडो सैनिक बड़ी मात्रा में उग्रवादियों के अस्त्र-शस्त्र और जान को हानि पहुँचाने में सफल हुए | इस अभियान में सैनिकों को कई बार अपने मुख्य कैम्प से दूर - सुदूर जंगलों में रैन बसेरा करना पड़ता था |
 एक बार भारत और म्यांमार के सीमा क्षेत्र में शत्रु की टोह लेते-लेते रात हो गई और हमारे सैनिकों ने एक पहाड़ी टीले पर अपना विश्राम स्थल बनाने का निश्चय लिया | इस के लिए सैनिकों की इस टुकड़ी ने उस जगह पर मोर्चे  खोदने  आरम्भ किये | ज़मीन खोदते –खोदते उन्हें लगा कि टीले के एक ऊँचे स्थान पर   मिट्टी में कुछ धातु की चीज़ें दबी हुई हैं | सैनिकों की उत्सुकता बढ़ी तो उन्होंने और गहरा खोदना शुरू किया | खुदाई करते करते उन्हें वहाँ दबी दो हैलमेट मिली | कुछ अधिक गहरा खोदने पर जंग लगी दो रायफलें और कुछ अस्थि अवशेष भी मिले | सैनिक अचम्भे में थे कि यह किसके हथियार हैं और किसके अस्थि अवशेष |  सैनिकों ने रेडियो सेट के द्वारा बेस कैम्प में इन दबे हुए हथियारों और अस्थि अवशेषों के मिलने की सूचना दी | चूँकि रात बहुत अंधियारी थी और राइफलों पर इतना जंग लग चुका था कि इनकी पहचान असम्भव थी|
  अगली सुबह इन हथियारों और दोनों हेलमेट को बेस कैम्प तक पहुँच दिया गया |उनकी सफाई के बाद जब उनका जंग हटाया गया तो सेना अधिकारियों ने देखा कि उन पर जापानी भाषा में कुछ लिखा था | बहुत सोच –विचार के बाद ऐसा अनुमान लगाया गया कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय कोई दो जापानी सैनिक इस मोर्चे पर हुई शत्रु की बमबारी में मारे गए होंगे और वर्षों तक इसी में दबे रह गए होंगे| और ये अस्थि अवशेष भी उन्हीं गुमनाम सैनिकों के ही थे |
सैनिक धर्म के अनुसार मृत सैनिक चाहे किसी पक्ष का हो, किसी देश का हो  उसका अंतिम संस्कार पूरी सैनिक रीति के अनुसार किया जाता है | हमारी यूनिट के अधिकारियों ने भी इन अज्ञात जापानी सैनिकों का वहीं पर अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया|  यूनिट के धर्म गुरू की सहायता से उन गुमनाम सैनिकों को वहीं पहाड़ी के टीले पर दफनाया गया जहाँ वर्षों पहले विदेशी धरती पर उन्होंने अंतिम साँसें ली होंगी| उनकी हेलमेट को भी उनके अवशेषों के साथ वहीं पर दबा दिया और उस जगह एक चिन्ह लगाया—‘विश्व युद्ध में शहीद हुए दो गुमनाम जापानी सैनिकों का स्मृति स्थल |’ उनके हथियारों की सफाई के बाद उन्हें यूनिट में स्मृति चिह्न के रूप में रखा गया |
आज कश्मीर में हो रहे आतंकी हमलों की, उरी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के जीवित जलाए जाने की या कश्मीर में सुरक्षा बलों पर वहाँ के निवासियों द्वारा पत्थर फेंकने की तस्वीरें देखती हूँ मन बहुत क्षुब्ध होता है | आज बरबस मुझे लगभग ३३ वर्ष पुरानी यह घटना याद आ रही है जो मेरे पति ने नागालैंड – मणिपुर में किए गए हमारे सैनिकों के इस महत्वपूर्ण अभियान की तस्वीरें दिखाते हुए सुनाई थी |
 इसमें कोई दो राय नहीं कि सैनिक केवल घातक प्रहार करने के लिए ही प्रशिक्षित नहीं होते | निष्काम भाव से राष्ट्र रक्षा के संकल्प साथ-साथ मानव धर्म और मानवता की सेवा का भाव उनके कर्म और आचरण में सदैव विद्यमान रहता है |


शशि पाधा





मंगलवार, 20 सितंबर 2016

आज मन अधीर है

आज मन अधीर है |
काँपती कोमल धरा अब
मन में गहरी पीर है |

दिशा- दिशा में हो रहा
शोर चीत्कार आज
आँख खोलूँ तो वहीं
संहार हाहाकार आज
शान्ति के देवता के
पाँव में जंजीर है |

हरित धरा का ओढ़नी
रक्त रंजित हो गई
उठ रहा धुआं कहीं
माँग सूनी हो गई
 बह रहा हर आँख से
  वेदना का नीर है |

खिन्न विश्वास आज
छलकपट के दाँव से
इंसानियत दब रही
आसुरों के पाँव से
मातृभूमि के ह्रदय
बिंध गया इक तीर है

दिन नहीं रहे कोई
बात या संवाद के
प्रहार ही लक्ष्य और
शस्त्र हर हाथ में
शत्रु नाश जो करे
आज वही वीर है |

आज मन अधीर है !!!!!

शशि पाधा




शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

हिन्दी विश्वजीत हो

छन्द हो , गीत हो,
स्वर हो, संगीत हो
जो रचूँ , जो कहूँ
हिन्दी मन का मीत हो

भावना में तू बहे
कल्पना में तू सजे
मन के  तार तार में
प्राण वीणा सी बजे

जहाँ रहूँ , जहाँ बसूँ
हिन्दी से चिर प्रीत हो  |

स्रोत तू ज्ञान का
आधार उत्थान का
देस - परदेस में
चिह्न तू पहचान का

मन में इक साध यह  
हिन्दी विश्वजीत हो  |

परम्परा की वाहिनी
अविरल  मंदाकिनी
सुनिधि सुसहित्य की
संस्कार की प्रवाहिनी

भविष्य के विधान में
हिन्दी ही  रीत-नीत हो |
नक्षत्रों के पार भी
ध्वज तेरा फहराएँगे
धरा से आसमान तक
ज्योत हम जलाएँगे

हर दिशा, हर छोर में
सूर्य सी  उदीप्त हो |

हिन्दी विश्वजीत जीत हो !!

शशि पाधा 




नवगीत

गर्मी के दिन

कुछ अलसाये
कुछ कुम्हलाये
आम्रगन्ध भीजे, बौराये
काटे ना
कटते ये पल छिन
निठुर बड़े हैं गर्मी के दिन
धूप-छाँव
अँगना में खेलें
कोमल कलियाँ पावक झेलें
उन्नींदी
अँखियां विहगों की
पात-पात में झपकी ले लें
रात बिताई
घड़ियां गिन-गिन
 बीतें ना कुन्दन से ये दिन

मुर्झाया
धरती का आनन
झुलस गये वन उपवन कानन
क्षीण हुई
नदिया की धारा
लहर- लहर
में उठता क्रन्दन
कब लौटेगा बैरी सावन
अगन लगायें गर्मी के दिन।
सुलग- सुलग
अधरों से झरतीं
विरहन के गीतों की कड़ियाँ
तारों से पूछें दो नयना
रूठ गई
क्यों नींद की परियाँ
भरी दोपहरी
सिहरे तन-मन
दहक गए अंगारों से दिन |


शशि पाधा


गुरुवार, 15 सितंबर 2016

तस्वीरें बोलती हैं -----




तस्वीरें बोलती हैं ------                     

वर्ष 1965 में भारत – पाक  युद्ध चल रहा था | मेरे पति उस समय अपनी यूनिट के साथ अमृतसर –लाहौर सीमा पर तैनात थे | 20 दिन के घमासान युद्ध के बाद भारतीय सेना ने पाकिस्तान का बहुत सा क्षेत्र जीत लिया था | इच्छोगिल नहर पर बसा हुआ बरकी गाँव लाहौर से लगभग 13/14 किलोमीटर दूर था और युद्ध के समय भारतीय सेना वहाँ तक पहुँच गई थी | अब यह क्षेत्र और इसके आस पास के क्षेत्र भारतीय सेना के अधीन थे | युद्ध अपने पूरे वेग पर था | इस गाँव के निवासी अपनी सुरक्षा के लिए गाँव छोड़ कर किन्हीं सुरक्षित स्थानों की ओर चले गए थे | किन्तु कुछ बूढ़े और असहाय निवासी अपना गाँव छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे | २३ सितम्बर को युद्ध विराम की घोषणा भी हो गई थी | अब बरकी गाँव के बचे-खुचे निवासी भारतीय सेना के मेहमान थे | भारतीय सैनिक उनकी सेवा करते, दवा दारू देते और हर परिस्थिति में उनकी सहायता कर रहे थे | इस तस्वीर में बंद वृद्ध दम्पति किसी भी हालत में अपना गाँव छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे | वृद्ध पुरुष का नाम था चिरागदीन | उनकी पत्नी काफी अस्वस्थ थीं और  वो कहीं जाने में असमर्थ थीं | उन्हें शायद शान्ति की उम्मीद भी थी |
एक दिन मेरे पति इस दम्पति से बातचीत कर रहे थे कि उस  वृद्ध पुरुष ने इन्हें बताया कि उसका जन्म पंजाब के जालन्धर जिले के किसी गाँव में हुआ था | उसे अपने जन्मस्थान की, अपने बचपन के घर की बहुत याद सताती रहती है | यह बात कहते हुए मेरे पति ने देखा कि उस वृद्ध की ऑंखें अश्रुपूर्ण थी | आते -आते इन्होने जब उससे पूछा कि क्या उन्हें किसी चीज़ की ज़रुरत है तो उसने हाथ जोड़ कर कहा,” साहब , आप मुझे एक बार मेरे गाँव में ले जाइए | मैं मरने से पहले अपना जन्म स्थान देखना  चाहता हूँ |”  उसकी इच्छा पूरी करने में कुछ कठिनाइयाँ तो थी किन्तु मेरे सहृदय पति ने एक दिन उसे  एक फौजी जेकेट पहनाई, गाड़ी में बिठाया और ले गए उसे उसके  गाँव | उस  पाकिस्तानी वृद्ध की खुशियों का विवरण तो मैं शब्दों में  नहीं दे सकती | आप केवल उसे महसूस कर सकते हैं | वापिस आकर जब मेरे पति ने उनसे विदा ली तो उसने  दोनों हाथ आसमान की ओर उठा कर इन्हें दीर्घ आयु का आशीर्वाद दिया |
लगभग छह महीनों के बाद ताशकंद समझौते के बाद भारतीय सेना को यह क्षेत्र पाकिस्तान को वापिस लौटाना था | मेरे पति इस वृद्ध दम्पति से मिलने गए | उन्होंने इन्हें बड़े स्नेह से गले लगाया, तस्वीर लेने को कहा और साथ में भेंट किया एक मिट्टी का कटोरा और कुरान शरीफ की एक प्रति | विदा के समय दोनों की आँखें नम थीं |

अब आप ही बताएँ कि इस युद्ध मे किसकी हार –किसकी जीत  ?????

शशि पाधा 

बुधवार, 14 सितंबर 2016

एक हाइबन -----

-अमूल्य उपहार
शशि पाधा
वो नन्हें-नन्हें पाँव बढ़ाता, धीमे-धीमे चल रहा था । उसके होठों की मुस्कान एवं आँखों की चमक में कुछ रहस्य छिपा था ।अब वो थोड़ा पास आ गया था । मैंने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें,कोमल हाथों में तीन शाखों वाली कुछ लंबी सी दूर्वा (हरी घास) धीमे-धीमे डोल रही थी ।
मैं उसे कुछ दूर से बड़ी उत्सुकता से देख रही थी और सोच रही थी कि वो उस टहनीनुमा घास को लेकर कहाँ जा रहा था । अरे, वो तो मेरी ओर ही आ रहा था । अपने दायें हाथ में घास की उस छोटी -सी दूर्वा को उठाकर वो ऐसे चल रहा था ,मानों सुमेरु पर्वत का भार वहन कर रहा हो ।
मेरे पास आते ही उसकी आँखों की चमक चौगुनी हो गई और मुस्कान उसके कोमल होठों से उसके कानों तक एकरस हो गई । मैं भी चुपचाप उसे देख रही थी कि आखिर वो क्या करने जा रहा है, कहाँ जा रहा है ।
मेरे पास पहुँचते ही उसने मुस्काते हुए दूर्वा को मेरी और बढ़ाया और कहा-“दादी, आपके लिए फूल !”
‘वो’ मेरा पौने तीन वर्ष का पोता ‘शिवी’ है और उस अमोल उपहार को पाकर गद्गद होने वाली उसकी दादी मैं , आपकी दोस्त |
निर्मल मन
अमूल्य उपहार
भीगे नयन ।
इस रचना को आप नीचे दिए गए लिंक पर भी पढ़ सकते हैं | आभार सम्पादक द्वय |
शशि पाधा
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