रविवार, 1 मई 2022
उदंती.com: आलेखः पीछे छूटते मानवीय संवेदना के ऑर्गैनिक मूल्य
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उदंती.com: आलेखः पीछे छूटते मानवीय संवेदना के ऑर्गैनिक मूल्य
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विश्व श्रमिक दिवस पर विशेष
चलो गंवई अपने गाँव
*******
बाँध के अपना डोरा-डण्डा
चलो गंवई अपने गाँव ।
राम राज शहरों में होगा
सोच तुम्हें भी लाई होगी
परजा-राजा परम सुखी सब
तुझको आस बंधाई होगी
भूल भुलैयाँ राह भुलाएँ
थकते-हारे घायल पाँव ।
उलटी पुलटी खाली जेबें
रोटी, कपड़ा, ठौर नहीं
छिनी नौकरी, छिनी दिहाड़ी
ख़त्म कभी न दौड़ कहीं
साँस- आँख में मिट्टी-कंकर
कानों में बस काँव- काँव ।
माल मवेशी मोल दिए जो
बिन तेरे कुछ रोते होंगे
दादी को जो सौंप के आये
मिट्ठू रात न सोते होंगे
बाट जोहती बरगद छाँव ।
चमक दमक तो सोना नाहीं
राम कथा तो बाँची होगी
छले , लुभाये ढोंगी हिरणा
बात यहाँ भी साँची होगी
खालिस सोना गाँव की धरती
काहे भटके ठाँव -ठाँव ।
चलो गंवई अपने गाँव ।
शशि पाधा
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पद्म पुष्प की सुगंध : पद्मश्री पद्मा सचदेव
‘मैं अपनी राह खुद ढूँढ
लूँगी,
राह न
मिली तो बना लूँगी,
मुझे राह
बनानी आती है।’
डोगरी और हिन्दी की प्रसिद्ध कवयित्री पद्मा सचदेव
ने इन शब्दों को केवल कहा ही नहीं बल्कि जिया भी और अपनी
राहें स्वयं निर्मित कर साहित्य के आकाश की ऊंचाइयों को छुआ|
पहाड़ों की हरीतिमा, झरनों-पोखरों की रुनझुन, कश्मीर के
चिनारों के रंगों और जम्मू के मंदिरों की घंटियों के पावन सुर को अपने काव्य
में शब्दों से चित्रित करने वाली पद्मा जी
का जन्म भारत के उत्तर में,
पहाड़ों की गोद में
बसी जम्मू
नगरी के एक
एतिहासिक गाँव ‘पुरमंडल’ में १७ अप्रैल,वर्ष १९४० में हुआ। ‘उत्तरबहनी’ नदी के
शीतल किनारे पर स्थित इस गाँव में
बसे राजपुरोहितों के परिवार में
जन्म लेने
वाली कन्या
पद्मा ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से न केवल अपनी
माँ बोली
डोगरी को समृद्ध किया
अपितु हिन्दी
साहित्य की लगभग हर विधा में
साहित्य रच कर साहित्य के क्षेत्र में अपना
विशिष्ट स्थान
बनाया।
भाषा और संस्कृति के
प्रति प्रेम और समर्पण का भाव इन्हें अपने विद्वान् पिता से बाल्यकाल में ही विरासत
के रूप में मिला था। इनके पिता पंडित देव राज बढ़ू जम्मू कालेज में प्रोफेस्सर के रूप में नियुक्त
थे। वर्ष १९४७ में भारत के विभाजन की त्रासदी ने इस हँसते-खेलते परिवार पर घातक
प्रहार किया। पंडित देवराज जी एक आतंकी हमले में अपनी जान गँवा बैठे। उस समय पद्मा
जी केवल सात वर्ष की थीं। ह्रदय को अन्दर तक भेदने वाली इस त्रासदी की पीड़ा को
जीवन प्रयन्त सहती हुईं पद्मा जी अक्सर कहती थीं, “बटवारे की यह पहली गाज हमारे
घर पर पड़ी। सतरंगी पींगें झूलने वाली सात बरस की अबोध लड़की पल में सत्तर बरस की हो
गई। मेरे जीवन को रोशनी देने वाली मीनार ने कहीं दूर गहरे समंदर की सतह में समाधि
ले ली।” यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इस हादसे के गहरे आघात ने बालिका
पद्मा सचदेव को लेखिका पद्मा सचदेव बनने के लिए दशा और दिशा प्रदान की।
पद्मा पहली संतान
होने के कारण अपने पिता की बहुत लाड़ली थी। उन्हें छह बरस की अल्प आयु में ही
संस्कृत के बहुत से श्लोक कंठस्थ थे। परिवार में धार्मिक वातावरण होने के कारण
डोगरी-हिन्दी के अनेक भजन उन्होंने अपनी माँ से सीख लिए थे। पुरमंडल गाँव में बहती
देवक नदी का स्थानीय नाम था- ‘उत्तरबैनी’, यानी उत्तर की ओर बहने वाली नदी। जिस
प्रकार कई स्थानों पर भूमिगत होकर, पथरीली पहाड़ियों में बहती हुई ‘उत्तरबैनी’’ नदी
ने अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त किया, ठीक उसी प्रकार पद्मा जी ने अद्भुत आत्मबल का
संबल लेकर अपने संघर्ष मय जीवन की कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए साहित्य
जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया।
आइये, इस
डोगरी-हिन्दी की प्रख्यात लेखिका की जीवन यात्रा के पथ पर कुछ पल साथ-साथ चलें
-----
वर्ष १९४७ में देश
का विभाजन, पिता की अकाल मृत्यु और जम्मू नगरी का गौरवशाली राजपाठ सदा के लिए
समाप्त हो जाने जैसी दुखद घटनाओं के कारण भविष्य के सुनहरे सपने देखते हुए यौवन की
देहलीज पर पाँव रखने वाली सुकोमल लड़की के मन में न जाने क्या उथल-पुथल हुई कि उनकी
लेखनी ने अकस्मात केवल १४-१५ वर्ष की आयु में अपनी पहली कविता—‘ए राजे दियाँ
मंडियाँ तुन्दियाँ न’ की रचना कर दी। उनकी
यह कविता सामंती व्यवस्था पर तीखा प्रहार था जिसमें एक औसत गरीब डोगरा महिला की
दुर्दशा को चित्रित किया गया था। जम्मू
नगरी में होने वाली एक भव्य काव्य गोष्ठी में उन्होंने बड़े स्वाभिमान और
आत्मविश्वास के साथ सामाजिक-राजनैतिक परिस्थतियों के प्रति गहन आक्रोश के स्वर के
साथ इस कविता का पाठ किया। कविता डोगरी में थी। प्रस्तुत है उस लम्बी कविता के
हिन्दी में अनुदित कुछ अंश-------
‘मैं घर से बेघर हो चुकी हूँ
मेरी आँखों की ज्योति छिन चुकी है
मेरे बगीचे से जो मेरा पौधा उखाड़ कर ले गये
मेरे पौधे को बौर भी पड़ा नहीं था
जिन्होंने काँपती टहनियाँ काट
लीं
वे हँसुली, वे द्रातियाँ क्या आपकी हैं
ये राजा के महल आपके हैं?”
इस पहली ही कविता से आप महसूस करते हैं कि उनकी संवेदनाओं के केंद्र
में शोषित,वंचित,आम आदमी का दुख-दर्द और पीड़ा थी। इस कविता से पद्मा जी को डोगरी की पहली आधुनिक कवयित्री होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस
गौरव को प्राप्त करने के लिए भी उन्हें कई विपरीत परिस्थितियों के साथ जूझना पड़ा। । उन्होंने अपनी आत्म कथा ‘बूँद बावड़ी’ में लिखा है ----- मुझे
वह वक़्त याद है, जब १९५५ में एक स्थानीय समाचार पत्र में मुझे अपनी कविता अपने भाई के
नाम से छपवानी पड़ी थी। हमारे समाज में तब लड़कियों के लिए खुले तौर पर ऐसे काम
लगभग निषिद्ध ही थे। आज, जब मैं अपने पुराने समय के बारे में सोचती हूँ, लगता है मलंग हुए बग़ैर किसी स्त्री का लेखन चला ही नहीं। चाहे
ब्रज की ‘मीरा’ हो, मराठी की ‘बहनाबाई’ हो, कश्मीरी की ‘ललेश्वरी’ हों, उर्दू की ‘हब्बा ख़ातून’ हों या एक हद तक डोगरी की ‘पद्मा सचदेव’- अलग-अलग समय में रहते हुए भी सबकी संघर्ष भरी कहानियों में कुछ
ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.”
शायद अपने इसी जीवन संघर्ष की अनुभूति को कविता में बुनती हुई
पद्मा जी कहती हैं ----
‘टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझमें
डूब जाता है कभी मुझमें समंदर मेरा’
इनकी कविता में संघर्ष की तपती लू के साथ लोक संस्कृति की
सौंधी खुश्बू से भीगी ठंडी बयार भी समाहित है। जम्मू की संस्कृति में
लोकगीतों का विशेष महत्व है। पद्मा जी इन्ही डोगरी/ पहाड़ी लोकगीतों को अपने लेखन
का प्रेरणा स्रोत मानती थीं। उनके मन में सदैव उन अज्ञात लोकगीतकारों के प्रति सम्मान रहता, जिनके नाम गीतों में नहीं रहते। लोकगीतों
की सादगी और कोमलता के विषय में वह कहती थीं- “कितने महान होंगे वे लोग, जिन्हें अपने लिए नाम की चिंता
नहीं।”
पद्मा
जी न केवल कविता लिखती थीं, अपनी कविता का सस्वर पाठ भी करती थीं। जब वह कविता पाठ करती थीं
तो लगता था जैसे कोई योगी इकतारा बजाकर अपनी धुन में गा रहा हो।
लोकगीतों से प्रभावित होकर लिखे इनके गीत इनके प्रथम काव्य संग्रह 'मेरी कविता मेरे गीत'’ में प्रकाशित हुए। इस काव्य
संग्रह पर इनको १९७१ का 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार मिला। उस समय
वह केवल ३१ वर्ष की थीं और सब से कम आयु में पुरस्कार ग्रहण करने वाली प्रथम महिला
साहित्यकार थीं। हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य लेखक रामधारी सिंह दिनकर जी ने इस
काव्य संग्रह की भूमिका में लिखा था ----
“डोगरी की सहज कवयित्री पद्मा सचदेव की कविता सुन कर मुझे लगा, मैं अपनी
कलम फेंक दूँ, वही अच्छा है। क्योंकि जो बात पद्मा कहती है, वही असली कविता है। हम
में से हर कवि उस कविता से दूर, बहुत दूर हो गया है।”
पद्मा जी ने गद्य साहित्य में भी
भरपूर लिखा लेकिन कविता उनकी प्रिय विधा थी। अपनी रचना प्रक्रिया के विषय में वह कहती
थीं, “मेरे
लिए कविता, किसी व्यक्ति का सत्व
है......कविता मन
से आती है.. उसका आगाज़ सुबह से ही हो जाता है कि वो आयेगी…आने वाली है… और जब आती है तो शरीर एकदम हल्का हो जाता है। चाल
धरती से ऊपर हो जाती है.. चलते-चलते समुद्र लाँघ जाओ..धरा को चूम लो और गगन में पड़े हिंडोले पर
झूलो…क्या अनुभूति है!!”
प्रस्तुत है
पद्मा जी की गगन में पड़े हिंडोले पर झूलने की कोमल अनुभूति की एक झलक ---
दिन निकेलया
जां समाधि जोगिऐ ने खोली ऐ
संझ घिरदी आई जां लंघी, गैई कोई डोली ऐ
कोल कोई कूकी ऐ जांकर व्याणा हस्सेया
बोल्दा लंघी गेया कोई डोगरे दी बोली ऐ’
हिंदी रूपांतर -
‘दिन निकला या समाधि योगी ने खोली है
शाम घिरती आई या कोई डोली गली में से निकली
कोई कोयल कुहकी या कोई बच्चा हँसा
या कोई गली में से डोगरी बोलता हुआ चला गया’
ललाट पर बड़ी सी लाल बिंदी, कानों में डोगरी झुमके और सर
पर पारम्परिक पल्लू रखने वाली पद्मा जी अपनी बेबाक़ हँसी से सब का मन
मोह लेती थीं। वह कभी किसी वाह्य आदर्श में विश्वास नहीं रखती थीं। भाव, अनुभाव, सुख-दुख, आशा निराशा,
प्यार-नफ़रत
सभी को उन्होंने अंतर्भूत किया और फिर अपनी लेखनी के द्वारा अपनी कृतियों में चित्रित
किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में कहीं अन्याय सहती आई भारतीय स्त्री को अपने अस्तित्व
को बनाए रखने के लिए किये गए संघर्ष को गहरे विश्वास और गरिमा के साथ अभिव्यक्त
किया और कहीं कमज़ोर वर्ग के पात्र, जो उनसे जुड़े रहे, उन पर संस्मरणात्मक कथाएँ भी
लिखीं। साहित्य
अकादमी की महत्तर सदस्यता से सम्मानित पद्मश्री पद्मा सचदेव के परिचय में, साहित्य अकादमी ने लिखा -----‘उनका साहित्य भारतीय
नारीत्व के सुख और दुख, मनोदशा और दुर्भाग्य को दर्शाता है। भले ही वह महिलाओं पर हो रहे सामाजिक
अन्याय के प्रति जागरूक हैं, लेकिन उनके नारी चरित्र हर समय अपनी गरिमा
बनाए रखते हैं।’
अपने लेखन के क्षेत्र
में पद्मा जी ने कई प्रयोग किये। अपने काव्य संग्रह ‘‘शब्द मिलावा’ में उन्होंने अपनी हर कविता के साथ एक ‘गद्यांश’ भी दिया है,
जिसमें
उस कविता की रचना प्रक्रिया का संकेत है। इस दिशा में यह काव्य संग्रह अपने में
अनूठा और प्रयोगधर्मी है। इसके अतिरिक्त,
उन्होंने
डोगरी से हिंदी, हिंदी से डोगरी, अंग्रेजी से हिंदी और अंग्रेजी से डोगरी में अनुवाद
कार्य किया है। आपकी कहानियों को टेली-धारावाहिकों तथा लघु फिल्मों में रूपांतरित
किया गया। लेखन के
साथ-साथ पद्मा जी ने कुछ बरस जम्मू रेडियो और फिर दिल्ली में डोगरी समाचार विभाग
में भी काम किया। इसी दौरान उनकी शादी ‘सिंह बंधू’ नाम से प्रचलित सांगीतिक जोड़ी के
गायक ‘सुरिंदर
सिंह’ से हुई।
कविता में अपने भावो-अनुभावों को
शब्दरूप करने वाली पद्मा सचदेव का गद्य लेखन की ओर रुझान मात्र एक संयोग ही था। अपने
बंबई प्रवास में वह धर्मयुग के सम्पादक विशिष्ट साहित्यकार धर्मवीर भारती जी से
अपनी डोगरी माँ बोली के साहित्यिक महत्व के विषय में अपने विचार रखने के लिए गई।
उन दिनों डोगरी भाषा में लिखे साहित्य की देश में अधिक पहचान नहीं थी। जिस बेबाकी और दृढ़ विश्वास से उन्होंने उनके सामने अपनी बात रखी, भारती जी ने
कहा, “यह सब मुझे लिख कर दे दो” पद्मा जी ने कुछ झिझक के साथ यह स्वीकार किया कि
वह गद्य बहुत कम लिखती हैं। एक कुशल पारखी की दृष्टि रखने वाले भारती जी ने उनसे
कहा, “जैसा बोल रही हो, ठीक वैसा ही लिख दो, बस और कुछ नहीं।” उनका वह पहला लेख
धर्मयुग में छपा और तब से गद्य लेखन के क्षेत्र में उनकी लेखनी को नया आकाश मिल
गया। उसके बाद तो उन्होंने काविता के साथ साथ कई कहानियाँ, उपन्यास, साक्षात्कार,
संस्मरण और यात्रा वृतांत लिख कर हिन्दी साहित्य को निरंतर समृद्ध किया।
अपने बंबई प्रवास के समय ही उन्होंने डोगरी/ हिन्दी के लेखक
वेदराही जी की फिल्म ‘प्रेम-पर्वत’ और ‘आंखन देखी’ के लिए गीत-रचना की। पद्मा जी अपने बहुत
से साक्षात्कारों में हँसते हुए यह बताती हैं कि इन बातों का पता जब दिनकर जी को
चला तो उन्होंने बड़े अधिकार-बोध से उन्हें डाँटा, “अच्छी-भली कवयित्री हो। जूता गाँठने का काम क्यों कर रही
हो? तब से वह सिलसिला वहीं
थम गया।”
अपनी मातृभाषा डोगरी
को जन-जन तक पहुँचाने के अभियान में पद्मा जी ने बहुत से द्वार खटखटाए। स्वर
कोकिला लता मंगेशकर जी से इनकी गहरी दोस्ती थी। इनके कहने पर लता जी ने न केवल
डोगरी भाषा सीखी बल्कि डोगरी गीतों को स्वर भी दिया। इन गीतों से लता जी ने अपनी
आवाज का ऐसा जादू बिखेरा कि हर कोई इन गानों का दीवाना बन गया।
अपनी मातृभूमि जम्मू
की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘जम्मू जो कभी शहर था’ बहुत लोकप्रिय हुआ। यह
उपन्यास उन्होंने पहले डोगरी में ‘इक ही सुग्गी’ नाम से लिखा और बाद में हिन्दी
में अनुदित किया। इस उपन्यास की कथा की केंद्र सुग्गी नाईन है जो इस शहर के हर
सुख-दुःख उतार चढ़ाव को जीती और भोगती है। सुग्गी वास्तव में उस समय के जम्मू शहर के
महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। इन शब्दों को लिखते हुए मुझे रोमांच का अनुभव
हो रहा है क्यूँकि जब पद्मा जी यह उपन्यास लिख रही थीं तो मुझसे भी सुग्गी के जीवन
से जुड़ी यादों के विषय में चर्चा हुई थी। मेरा और पद्मा जी का बचपन उसी शहर के,
उसी मोहल्ले में बीता है जहाँ सुग्गी का घर था। हम दोनों ने ही अपने-अपने बचपन की सुधियों
की पोटली में सुग्गी नाइन को ढूँढ लिया था। मेरा सौभाग्य रहा है कि मेरे प्रथम
काव्य संग्रह ‘पहली किरन’ के लोकार्पण समारोह में पधार कर पद्मा जी ने मुझे
आशीर्वाद दिया।
दक्षिण से उत्तर की ओर विपरीत धारा में बहने वाली
नदी “उत्तरबैनी’ में किलोल करने वाली, जीवन संघर्ष की बाधाओं को आत्मबल और साहस से
लाँघने वाली पद्मा जी ने खुद को इन पंक्तियों में कितनी सुन्दरता से पारिभाषित
किया -----
“मैं हूँ
उत्तरवाहिनी, मेरा साथ न कोई
यहाँ पे शह-ही-शह
है साथी, मात नहीं कोई”.
साहित्य के क्षेत्र
में अनगिनत सम्मानों, पुरस्कारों से अलंकृत पद्मा जी को हर जम्मू वासी स्नेह से
’बोबो’ कह कर सम्बोधित करता था। आधुनिक डोगरी कविता की जननी, जम्मू की बेटी पद्मा बोबो को
समस्त जम्मूवासियों और साहित्य प्रेमियों की ओर से शत शत प्रणाम।
·
डोगरी में ‘बड़ी बहन को
‘बोबो’ कहा जाता है।
___________________________________________
Bottom of Form
पद्मा
सचदेव : जीवन परिचय |
|
जन्म |
१७ अप्रैल.१९४०
, पुरमंडल (जम्मू), जम्मू-कश्मीर राज्य |
पुण्य तिथि |
४ अगस्त, १९२१ |
माता -पिता |
पंडित देव राज
बडू, शकुंतला देवी |
पति |
सुरिंदर सिंह,
(सिंह बंधू जोड़ी के प्रसिद्ध गायक) |
कर्मभूमि एवं व्यवसाय |
जम्मू, मुम्बई,
दिल्ली।, जम्मू रडियो और दिल्ली रेडियो में समाचार वाचक |
शिक्षा |
|
प्राथमिक |
पुरमंडल
गाँव, जम्मू |
उच्च शिक्षा |
स्नातक,
प्रिंस ऑफ़ वेल्स कॉलेज, जम्मू |
साहित्यिक रचनाएँ |
|
हिन्दी में प्रकाशित साहित्य |
·
दीवानखाना, १९८४ ·
शब्द मिलावा, १९८७ ·
गोद भरी, १९९० ·
मितवा घर, १९९१ ·
मेरी कविता–मेरे गीत, १९९२ ·
नौशीन, १९९५ ·
मैं कहती हूँ आँखन देखि,(यात्रा
वृतांत) ,१९९५ ·
बूँद बावड़ी,१९९९ ·
भाई को संजय नहीं,१९९९ ·
अमराई, २००० ·
जम्मू जो कभी शहर था(उपन्यास),
२००३ ·
फिर क्या हुआ,
(जन सवेरा और पार्थ सेन गुप्ता के साथ), २००७ ·
तेरी बात सुनाने आई हूँ, २०१० ·
अब न बनेगी देहरी(उपन्यास),
२०१९ |
डोगरी में प्रकाशित साहित्य |
·
मेरी कविता मेरे गीत’, १९६९
·
तवी ते चन्हान,
१९७६ ·
नेहरियाँ गलियाँ,
१९८२ ·
पोटा निम्बल, १९८७ ·
उत्तरबैहनी, १९९२ ·
धैन्थियाँ, १९९९ ·
अक्खर-कुंड,
२००२ ·
इक्क
ही सुग्गी, २००४ ·
चित्त-चेते,
२००७ ·
रत्तियाँ,
२००९ ·
आओ गीत गाचै, २०१४ ·
लालड़ियाँ, |
अनुवाद |
·
Where Has My Gulla
Gone (Anthology).२००९ ·
A Drop in the Ocean: An Autobiography, २०११ |
पुरस्कार व सम्मान |
|
विशेष
पुरस्कार :-- ·
पद्म श्री पुरस्कार
(2001) ·
साहित्य
अकादमी पुरस्कार (1971) ·
कविता
के लिए कबीर सम्मान (2007-08) ·
उत्तर
प्रदेश हिन्दी अकादमी सौहार्द सम्मान ·
साहित्य
अकादमी द्वारा महत्तर सदस्यता सम्मान ·
जम्मू
–कश्मीर कल्चरल अकैडमी – लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान ·
जम्मू-कश्मीर
कल्चरलअकैडमी का ‘रोब ऑफ़ हॉनर’ सम्मान ·
साहित्य
अकादमी अनुवाद पुरस्कार ·
सोवियत
लैंड नेहरु पुरस्कार ·
राजा
राम मोहन राय कला श्री पुरस्कार ·
अन्य
पुरस्कार : जोशुआ पुरस्कार, सरस्वती
सम्मान, महाराजा गुलाब सिंह पुरस्कार, दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार, ·
ऐवान
ग़ालिब पुरस्कार, हिन्दी रत्न एवं डोगरा रत्न पुरस्कार |
संदर्भ: डोगरी संस्था जम्मू, भाषा और संस्कृति अकादमी
जम्मू ,विभिन्न चैनलों द्वारा प्रसारित साक्षात्कार, परिवार और मित्रों के साथ
बातचीत तथा लेखक का निजी अनुभव।
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