मीठी नींद – मीठे
सपने
शशि पाधा
नींद तो बेशक मीठी
होती है लेकिन मीठे सपने? आश्चर्यचकित तो नहीं हो रहे आप ? सच कहूँ तो मुझे कई बार
एक सपना आता है जो मेरी जीह्वा पर मिश्री घोल के रख देता है| आँख खुलते ही ऐसा लगता है जैसे कोई मिठाई मुँह में
घुल रही हो | सपनों की कोई आयु नहीं होती| वे देश काल लाँघ कर आपकी आँखों के
बिछौने पर आ कर चुपचाप बैठ जाते हैं और ले जाते हैं आपको एक ऐसे स्थान पर, उन
गलियारों में जहाँ कभी आपने कोई सुखद पल बिताए हों|
कहते हैं सपनों का
आपके अवचेतन मन से सम्बन्ध रहता ही है| वो मन के किसी गिरह में बंधे रहते हैं और
कभी कभी गहरी नींद में उस गिरह से झाँक कर आपके साथ खेलते हैं| भला सपनों की बात
के साथ मैं खेल का क्यों रिश्ता जोड़ रही हूँ ?? इस लिए कि जो मीठा सपना मैं इस
उम्र में भी देखती हूँ वो मुझे मेरे खोए हुए बचपन में ले जाता है, जिस उम्र में
मैं बहुत मीठा खाती थी और बस खेल में ही अपना समय बिताती थी| अब तक तो आपकी जीह्वा
पर भी मिश्री घुलने लगी होगी| तो चलिए, ले जाती हूँ आपको अपने बचपन के उस घर में
जहाँ के सपने देखती हूँ |
जम्मू शहर की
पंजतीर्थी गली में हमारा घर था| यह गली बाज़ार और राज महलों को जोड़ती थी| गली तो
क्या मानो एक भरा-पूरा परिवार ही इसमें रहता था| मुझे बड़ी देर बाद इस बात की समझ
आई थी कि आस- पास रहने वाले सभी को मैं मामा-मामी या मौसा मौसी क्यूँ पुकारती थी|
सुना था कि मेरी ननिहाल का घर भी कभी इसी गली में था| तो रिश्ता तो ननिहाल का ही
जुड़ेगा न? उन दिनों दिन भर तो कई लोग कुछ न कुछ बेचने के लिए आते थे| कभी खिलौने
वाला, कभी गुब्बारे वाला, कभी कचालू वाला और कभी मलाई बर्फ वाला | मज़े की बात यह
थी कि हर एक बेचने वाले का आवाज़ लगाने का अपना अलग ही ढंग होता था| हम बच्चे उनकी
आवाज़ सुन कर ही पहचान जाते थे कि क्या बिकने आया है|
लेकिन एक आवाज़ थी जो
सब से मीठी थी| बिलकुल मिश्री में घुली हुई| यह याद नहीं आ रहा कि मौसम कौन सा
होता था | शायद सर्दियों का मौसम होगा| रात के समय लगभग 8 या 9 बजे हमारे घर से
थोड़ी दूर से एक आवाज़ आती थी जो घंटी की आवाज़ के साथ ही सुनाई पड़ती थी -----
खंड दे खिलौने
घड़ी दे परौने
निक्के निक्के
मिट्ठे
ते किन्ने सौने सौने
----टन-टन – टन –टन ---
( खांड के खिलौने
घड़ी भर के मेहमान
छोटे- छोटे मीठे
कितने मन भाने
टन – टन टन--------)
उन घंटियों की मीठी
आवाज़ सुनते ही मैं अपने पिता की अँगुली
पकड कर बड़े दरवाज़े के पास खड़ी हो जाती थी और बड़ी बेसब्री से उस खिलौने बेचने वाले
की प्रतीक्षा करती थी| धीरे-धीरे और भी बच्चे गली में पहुँच जाते थे|
यह खिलौने बेचने
वाला अन्य खिलौने बेचने वालो से बिलकुल भिन्न था| यह रात को आता था| इसके पास जो
खिलौने होते थे वे खांड और खोये के मिश्रण से बने होते थे| अधिकतर यह बच्चों के
प्रिय खिलौने या पक्षियों की सूरत में बने होते थे| इन पर हल्का रंग भी चढ़ा होता
था | स्वाद ऐसा कि शब्दों में बता पाना अभी तक मेरे लिए कठिन| जैसे कबीर ने कहा है न –‘गूँगे
केरी सरकरा, खाए और मुस्काए’|
उसका खंड के खिलौने
बेचने का ढंग भी सब से भिन्न था| वे अपने काँधे पर एक कांवर रख कर आता था|(
‘कांवर’ यानी बांस
डंडी के दोनों ओर डोरियों से बंधी दो बड़ी-बड़ी
टोकरियाँ) | अगर पाठकों ने श्रवण कुमार की कथा पढ़ी हो तो जैसी कांवर में श्रवण
कुमार ने अपने माता-पिता को बिठा कर तीर्थ कराए थे, बिलकुल वैसी ही थी इसकी भी
कांवर| अब समझ आता है कि वो खंड के खिलौनों को घड़ी भर के परौने (मेहमान) क्यूँ
कहता था| क्यूँकि मुँह में धरते ही वे मिनटों में घुल जाते थे|
हम बच्चे और बड़े सभी
मीठे खिलौने वाले को भैया कह कर पुकारते थे | शायद इस लिए भी कि वो जम्मू से नहीं
थे और डोगरी नहीं बोलते थे| हम सब के साथ वो भोजपुरी में बात करते थे | हमारे लिए
वो यू०पी वाले भैया थे |
उन की कांवर की एक
और विशेषता थी| दोनों टोकरियों में दो छोटी-छोटी लालटेनें रखी होती थीं ताकि बच्चे
अपनी मनपसंद का खिलौना देख सकें| भैया के हाथ में एक घंटी होती थी जिसकी मधुर आवाज़
हमें आकर्षित करती थी|
भैया बोलते भी बहुत
मीठे थे| एक तो उनकी बोली हमारी डोगरी से अलग और फिर वो हम बच्चों को गुड्डी,
मुनिया, रानों, परी आदि प्यारे-प्यारे नामों से पुकारते थे| यह खिलौने पत्ते के
दोने में सजे होते थे| भैया बड़े प्यार से दोना उठा कर बड़े नाज़ुक ढंग से हमारे हाथ
में रख देते थे| उन्हें शायद यह बात पता थी कि इस लेन-देन में मिठाई कहीं नीचे न
गिर जाए| क्यूँकि उन दिनों हमारे हाथ तो उस दोने से भी छोटे होते थे| मुझे याद है
मेरे पिता जी कुछ देर यू0पी वाले भैया से बतियाते थे, हाल-चाल पूछते थे और फिर वो
मीठी हाँक लगाता हुआ अपनी कांवर लेकर अगली गली की ओर बढ़ जाता था| जब तक मैं अपने
कमरे में बैठ के उस मिठाई को चाव से खा रही होती थी तब तक अगली गली से भी घंटियों के
मीठे सुर सुनाई देते रहते थे--- खंड दे खिलौने ---घड़ी दे परौने---टन—टन—टन—टन|
मीठे खिलौने वाले
भैया बोली से तो मीठे थे ही, दिल से और भी मीठे | पता है क्यूँ ? उनकी कांवर की
टोकरी में रंगीन कागज़ में लिपटे खांड के छोटे-छोटे मोर, गुड़िया, तितली, फूल आदी की
शक्ल में बने खिलौने होते थे जो वे हमें अपनी खुशी से बिना माँगे दे देते थे|
हमारी डोगरी भाषा में इस छोटी सी, बिना मोल चुकाए मिली भेंट को *‘चुंगा’ कहा जाता था| यह ‘चुंगा’ हमारी उस दिन की सब से बड़ी उपलब्धि थी|
अब क्या बताऊँ कि उस चुंगे का स्वाद बड़े खिलौने से भी अधिक होता था| हम पहले उसे
खाते थे और फिर बड़े वाले को| मुझे याद आता
है कि हम बच्चे जब भी किसी दुकानदार से टॉफ़ी वगैरह लेने जाते थे तो पैसे देने के
बाद चुपचाप खड़े रहते थे| उदार दुकानदार बच्चों को छोटी सी एक टॉफ़ी या चूर्ण की
गोली बिना मोल के दे देता था| हमारा और दुकानदार के बीच चुंगे का भी एक रिश्ता था
)
एक बात और याद आती
है| कई बार मैं सो जाती थी भैया की प्रतीक्षा करते हुए| लेकिन सुबह उठते ही पिता
सब से पहले वो दोना मुझे थमाते और कहते, “ कहा भी था उस भैया को कि गुड्डी सो गई है, आज नहीं
चाहिए| पर घर के अंदर आ कर दे गया तुम्हारे लिए| पता नहीं कैसा है, आज तो पैसे
लेने से भी इनकार कर दिया| कहता था –गुड्डी तो सो गई तो पैसे किससे लेने|”
अब यह बातें याद
करती हूँ तो मन भर आता है| हम बड़े हो गए| शहर छूट गया, देश छूट गया| अब बाज़ार में
अनगिन प्रकार की मिठाइयाँ मिलती हैं| लेती भी हूँ, खाती भी हूँ और बनाती भी हूँ|
लेकिन इन सब मिठाइयों में न वो रिश्तों की मिठास है, न नेह की घंटियों की टन-टन और
न भैया की वो दुलार| मीठा तो सब जगह मिलता है पर---- वो मीठे वाला मीठा नहीं जो उन
खंड के खिलौनों में था| उनके सपनों से अब भी नींद शहद घुली हो जाती है |
शशि पाधा
*Bonus.
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