मिट्टी का मोह
शशि पाधा
वर्ष 1965 के भारत- पाकिस्तान के घमासान युद्ध के साथ अनेक सामरिक तथ्य और कहानियाँ
जुड़ी हुई हैं| यह वो महत्वपूर्ण युद्ध है जब भारत की शूरवीर सेना ने पाकिस्तान के
बहुत से इलाके जीत कर भारत की विजयभूमि के साथ जोड़ दिए थे| पाठकों के लिए इस युद्ध
के पहले के इतिहास को जानना आवश्यक है|
पाकिस्तान ने
वर्ष 1965 में ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ आरम्भ किया था जो पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर में अशांति फैलाने की रणनीति का
सांकेतिक नाम था (Code word)|. Operation Gibraltar की योजना के अनुसार अगस्त के महीने
में पाकिस्तान ने अपनी नियमित सेना के सैनिकों के साथ लगभग 1500 घुसपैठियों को मिला कर कश्मीर घाटी में प्रवेश किया था| पाकिस्तान को यह भ्रम था कि यह लड़ाई केवल
युद्ध विराम रेखा के अंदर ही रहेगी और भारत कभी भी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा पर
युद्ध नहीं छेड़ेगा| इसके सफल होने पर,
पाकिस्तान को कश्मीर पर नियंत्रण हासिल
करने की उम्मीद थी, लेकिन इस अभियान में उसे बड़ी विफलता का
सामना करना पड़ा| (मैं अपने पाठकों को अवगत करा दूँ कि जम्मू-कश्मीर से सटी
पाकिस्तान के सीमा क्षेत्र को ‘युद्ध विराम रेखा’ के नाम से जाना जाता है और पंजाब
के बाद के सीमा क्षेत्र को ‘अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा’ के नाम से पहचाना जाता है|)
जैसे ही भारत के राजनेताओं को ‘ऑपरेशन
जिब्राल्टर’ का पता चला, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री
ने बिना समय गँवाए अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा पर पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध के
मोर्चे खोल दिए|यह युद्ध 6 सितम्बर से 23 सितम्बर तक चला | इस युद्ध में दोनों
देशों की बहुत हानि हुई, बहुत से वीरों को अपनी जान गँवानी पड़ी और सैंकड़ों घर,
गाँव तबाही की चपेट में आ गए| इस युद्ध का अंत संयुक्त राष्ट्र के द्वारा युध्ह
विराम की घोषणा के बाद ही हुआ|
इस भयानक युद्ध के दो महत्वपूर्ण मोर्चों पर दो नगर बसे हुए थे ----- भारत की
सीमा से सटा अमृतसर, और पाकिस्तान की सीमा से सटा हुआ लाहौर| सामरिक महत्व के इन दोनों
नगरों के बीच बड़ी शान्ति से बहती थी ‘इच्छोगिल नहर’|
इच्छोगिल नहर के उस पार का भू भाग था पाकिस्तान
और इस पार की धरती थी भारत| इसी नहर के किनारे पर बसा हुआ ‘बर्की गाँव’ लाहौर से लगभग
13/14 किलोमीटर दूर था| युद्ध के समय भारतीय सेना वहाँ तक पहुँच गई थी| अब यह
क्षेत्र और इसके आस पास के क्षेत्र भारतीय सेना के अधीन थे| उस समय मेरे पति अपनी
यूनिट के साथ इसी क्षेत्र में तैनात थे| जब युद्ध अपने पूरे वेग पर था तो बर्की गाँव
के निवासी अपनी सुरक्षा के लिए गाँव छोड़ कर किन्हीं सुरक्षित स्थानों की ओर चले गए
थे| किन्तु कुछ बूढ़े, बीमार और असहाय लोग अपना गाँव छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे|
23 सितम्बर को युद्ध विराम की घोषणा भी हो गई थी| अब बरकी गाँव के बचे-खुचे निवासी
भारतीय सेना के मेहमान थे| भारतीय सैनिक उनकी सेवा करते, उन्हें दवा-दारू देते और
हर परिस्थिति में उनकी सहायता करते| रोज़-रोज़ मिलने के कारण भारतीय सैनिकों का पाकिस्तान
के गाँवों में बसे उन लोगों से भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ गया था| आखिर मनुष्य तो मनुष्य
का शत्रु नहीं होता है| युद्ध तो कराते हैं राजनेता जिन्हें अपनी पदवी की स्थिरता
के डाँवाडोल होने का सदैव भय ही रहता है|
इसी
गाँव में रहने वाले एक वृद्ध दम्पति किसी भी हालत में अपना गाँव छोड़ कर नहीं जाना
चाहते थे| वृद्ध पुरुष का नाम था चिरागदीन| उनकी पत्नी काफी अस्वस्थ थीं और वो
कहीं जाने में असमर्थ थीं| उन्हें शायद शान्ति की आशा भी थी| उनकी कमज़ोर और असहाय
परिस्थिति को देख कर हमारे सैनिक नियमित रूप से उनके लिए भोजन ले जाते थे| उनके
साथ समय बिता कर कई पुरानी कहानियों का आदान प्रदान होता था| वे विभाजन से पहले की
बहुत सी यादें हमारे सैनिकों के साथ बाँटते और भावुक हो जाते थे|
एक दिन मेरे पति इस दम्पति से मिलने इनके घर गए तो बातचीत के दौरान चिरागदीन
ने इन्हें बताया कि उसका जन्म पंजाब के जालन्धर जिले के किसी गाँव में हुआ था और
उसे अपने जन्मस्थान की, अपने बचपन के घर की बहुत याद सताती रहती थी| यह बात कहते
हुए मेरे पति ने देखा कि उस वृद्ध की आँखें अश्रुपूर्ण थी| उस दिन की मुलाक़ात के
बाद मेरे पति ने जब चिरागदीन से पूछा कि क्या उन्हें किसी चीज़ की ज़रुरत है तो उसने
हाथ जोड़ कर कहा, “ साहब जी! इस उम्र में अब किसी चीज़ की क्या ज़रुरत है| वैसे भी
आपके सैनिक हमारी हर प्रकार से सहायता कर ही रहे है|”
उनसे विदा लेते हुए मेरे पति को ऐसा आभास हो रहा था कि वे इससे अधिक और भी कुछ
कहना चाहते हैं और कहने में सकुचा रहे हैं| इन्होंने बड़े आदर से चिरागदीन से कहा,
“ बाबा! कुछ है मन में तो बताइए, झिझकिए मत|”
इनके सांत्वना और आत्मीयता से भीगे शब्द सुन कर चिरागदीन की आँखों में एक चमक
सी आ गई| उन्होंने बड़ी आशा के साथ इनसे कहा, “ साहब जी! आप मुझे एक बार मेरे गाँव
में ले जाइए | मैं मरने से पहले अपना जन्म स्थान देखना चाहता हूँ |” और वो बड़ी आस भरी दृष्टि से इनकी
ओर देखता रहा|
उसकी इच्छा पूरी करने में कुछ
कठिनाइयाँ तो थी किन्तु मेरे सहृदय पति ने एक दिन उसे एक फौजी जेकेट पहनाई, गाड़ी
में बिठाया और ले गए उसे उसके गाँव जो पंजाब के जालन्धर नगर के आस-पास कहीं पर था|
अपने गाँव को देख कर चिरागदीन बहुत भावुक हो गया| वो गाड़ी से नीचे उतर कर कितनी
देर तक गाँव की गलियों में घूमता रहा| उस समय उसकी चाल में बच्चों जैसी उत्सुकता
थी| बहुत से पुराने लोगों से वो अपने घर का पता पूछता रहा| उसकी पीढ़ी का शायद कोई
नहीं बचा था उस गाँव में |उसे अपना घर तो नहीं मिला लेकिन घर के आस-पास के पुराने
वृक्षों में वह अपना बचपन ढूँढता रहा|
मेरे पति ने परिहास में उससे कहा, “ बाबा! आराम से खेलिए इन गलियों मे| यहाँ
से कोई आपको बंदी बना के नहीं ले जा सकता| आप ने जितना समय यहाँ बिताना है,
बिताइए|”
वहाँ कितना समय बीता यह तो उस गाँव की गलियाँ और पुराने पेड़ ही बता सकते हैं| इस
भावुक दृश्य के या तो वही गवाह थे और या थे मेरे पति| जैसे ही वापिस आने का समय
हुआ, चिरागदीन ने अपने पैतृक गाँव की मिट्टी अपने दोनों हाथों में भर ली. उस
मिट्टी को आँखों से लगाते हुए चिरागदीन ने भीगे हुए स्वरों में कहा, “ साहब जी!
अगर देश का बंटवारा नहीं होता तो आज मैं इसी धरती पर खड़ा होता और अंत समय पर इसी
मिट्टी में ही समा जाता|”
यह कहते हुए उसने उस मिट्टी को अपनी चादर के कोने में बाँध लिया| उस समय उसकी
मानसिक परिस्थिति को मैं शब्द नहीं दे सकती| आप केवल उसे महसूस कर सकते हैं| वापिसी
के सारे रास्ते पर चिरागदीन अपनी चादर के कोने में स्रुक्षित बंधी मिट्टी को बार
बार छूता रहा| मानो अपने आपको भरोसा दे रहा हो कि उसकी सब से अमूल्य निधि उसके पास
है| वापिस आकर जब मेरे पति ने उससे विदा ली तो उसने दोनों हाथ आसमान की ओर उठा कर
इन्हें दीर्घ आयु का आशीर्वाद दिया और बड़ी आशा से इनसे पूछा, “ साहब जी!, क्या कभी
ऐसा हो सकता है कि दोनों देश फिर से एक हो जाएँ?”
इस प्रश्न का उत्तर मेरे पति के पास भी नहीं था| इन्होने भी बस आकाश की ओर हाथ
उठा कर विश्व शान्ति के लिए प्रार्थना ही की|
लगभग छह महीनों के बाद ताशकंद समझौते
के बाद भारतीय सेना को यह क्षेत्र पाकिस्तान को वापिस लौटाना था| मेरे पति इस वृद्ध
दम्पति से मिलने गए| उन्होंने बड़े स्नेह से इन्हें गले लगाया, तस्वीर लेने को कहा
और साथ में भेंट किया एक मिटटी का कटोरा और कुरान शरीफ की एक प्रति| विदा के समय
दोनों की आँखें नम थीं| बंटवारा फिर से हो रहा था| सीमा रेखाएँ एक बार पुन: नक्शों
पर खींची जा रहीं थी| किन्तु उस समय बर्की के उस छोटे से गाँव में केवल आपसी
स्नेह, सद्भावना और मानवता की शीतल मंद हवा झूम रही थी|
यह दोनों उपहार कितने वर्षों तक हमारे घर सामान के साथ बंधे घूमते रहे| अपने
४० वर्ष के सैनिक जीवन में हमने कितने घर बदले, कितन नगर घूमे, इसकी कोई गिनती
नहीं कर सकती| कुछ चीज़ें कहाँ खो गईं, पता ही नहीं चला| किन्तु कुछ तस्वीरों में
हमारा कल अभी भी सुरक्षित है और उसी पिटारी से आज कुछ तस्वीरें आप के साथ साझा
करते हुए मैं स्वयं भावुक हो रही हूँ|
अब आप ही बताएँ कि
इस युद्ध में किसकी हार हुई और किसकी जीत ?????
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ईमेल: shashipadha@gmail.com
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