‘रूट्ट-राह्ड़े
(जम्मू का पौराणिक सांस्कृतिक त्योहार)
भारत के लोक जीवन में श्रावण मास का विशेष महत्व है |हिन्दू कैलेंडर के अनुसार श्रावण मास वर्ष का पांचवां माह होता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह जुन-जुलाई के बीच आता है। श्रावण और भाद्रपद 'वर्षा ऋतु' के मास हैं। वर्षा नया जीवन लेकर आती है। मोर अपनी नृत्य भंगिमाओं के साथ वनों-उपवनों में वर्षा का स्वागत करते हैं | श्रवण मास का धार्मिक महत्व भी है | इस माह में हरियाली तीज,नाग पंचमी, रक्षा बंधन,कुमाऊँ क्षेत्र में ‘हरेला’ पर्व आदि धार्मिक एवं पौराणिक पर्व मनाये जाते हैं | भारत एक विशाल देश है | इसमें कई धर्म, कई संस्कृतियाँ पलती और फूलती आई हैं |और इन संस्कृतियों को एक लड़ी में पिरोते हैं हमारे त्योहार |
मैं जम्मू की हूँ | मेरी सुधियों की पोटली में बहुत से मेरे बचपन के खेल, लोकगीत और त्योहार हैं | एक त्योहार जिसकी सुधी मुझे हर श्रवण मास में आकर आनन्दित करती है उसका मेरी डोगरी भाषा में नाम है ---‘रूट्ट-राह्ड़े’|इसका शाब्दिक अर्थ तो मुझे पता नहीं लेकिन इसके साथ जुड़ी हर याद को आपके साथ साझा कर रही हूँ |
जम्मू क्षेत्र में यह त्योहार श्रावण मास की संक्रान्ति को मनाया जाता है | डोगरा बालिकाएँ घर- आँगन, या घर के पास किसी खुले -कच्चे स्थान में मिट्टी को हल्का सा खोद कर मिट्टी के फूटे घड़ों के मुख भाग को मिट्टी को हल्का सा खोद कर उसमें हल्का सा दबा देती हैं और उसमें चावल , बाजरा, तिल, उड़द, चारी आदि के बीज बो देती हैं|मुझे याद है मेरे बचपन के घर की छत कच्ची थी | हम सखियाँ वहीं पर राह्ड़े बीजती थीं |बीजने के बाद जो सब से मनोरंजक काम होता था, वह था राह्डों के इर्द-गिर्द सूखे रंगों से चित्र बनाना | यह सूखे रंग भी शायद हमारी बड़ी बूढ़ियाँ चावल पीस कर उसमें कहीं हल्दी , कहीं सूखी पत्तियों का चूरा,, कोयला पीस कर काला, पीले फूल पीस कर पीला आदि कई तरह के रंग हमें बना के दे देती थीं | अब तो शायद बाजारी रंगों का चलन होगा | विदेश में रह कर नहीं जानती |
अब इस त्योहार का कलात्मक कार्य शुरू होता था | लड़कियाँ अपने अपने राह्डों के इर्द-गिर्द कई प्रकार की आकृतियाँ, चित्र सूखे चावल के चूरे से चित्रित करती थीं और फिर उनमें मन-मर्जी के रंग भरती थी |कोई फूलों की कलियाँ,कोई आम , कोई मोर , कोई चिड़िया बनाता था | मुझे याद है कि मैं अधिकतर फूल ही बनाती थी क्यूँकि वह चित्रित करना थोड़ा आसान था | उसके बाद होता था सामूहिक भोज | हम सब लडकियाँ अपने अपने घर से थालियों में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट भोज सजा कर राह्डों के स्थान पर ले जाती थीं | आयु में बड़ी दीदियाँ श्रावण मास से सम्बन्धित मीठे मीठे डोगरी लोक गीत गाती थीं| धीरे-धीरे नवविवाहिता लडकियाँ , महिलाएँ भी उस स्थान पर एकत्रित हो जाती थी और फिर गानों का रंगारंग वातावरण बन जाता था |
एक गीत जिसके कुछ बोल मुझे याद आ रहे हैं ----
“उड्ड मर कुंजड़िये मड़िये, सावन आया ई ओ , आहो
कियाँ उड्डा नीं अड़िये, देस पराया ई ओ आहो “
परदेस में रहती हूँ न इसलिए मुझे बचपन के यह त्योहार बार बार याद आते हैं | मैं हर वर्ष इन दिनों वहीं जम्मू की पंचतीर्थी की गलियों में पहुँच जाती हूँ और मन ही मन इस त्योहार को मना लेती हूँ | आइए आप भी मेरे साथ मनाइए |
शशि पाधा
* इसी श्रृंखला में कुछ दिनों के आपको जम्मू और हिमाचल के एक और लोक पर्व से परिचित कराऊँगी |
* Video courtesy Jammu Diary.
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