एक अंतहीन
प्रेम कथा
(लांस नायक मोहन गोस्वामी, अशोक चक्र)
“ मेरा हिन्दोस्तानी होना
सिर्फ एक अहसास ही नहीं मेरी पहचान है
और मेरा भारतीय सैनिक
होना सिर्फ एक काम ही नहीं
मेरा धर्म है, मेरा
मान है”
यह उद्गार है, परमवीर योद्धा अमर शहीद लांस नायक मोहन गोस्वामी के |यह भारतीय सेना की महत्वपूर्ण यूनिट ‘9 पैरा स्पेशल
फोर्सेस’ के निर्भीक योद्धा थे | इन्हे 26 जनवरी 2016 के स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर उनकी
वीरता तथा महाबलिदान के लिए राष्ट्र के सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’ से विभूषित
किया था |
अलंकरण समारोह में उद्घोषक लांस नायक मोहन गोस्वामी के अदम्य साहस और शौर्य का वर्णन करते हुए
बोल रहे थे, “ इस शूरवीर सैनिक ने केवल 10 दिनों में 11 आतंकवादियों को मौत के घाट
उतार दिया | 2 और 3 सितंबर 2015 की रात को लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी
जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के हफरूदा जंगल में घात लगाने वाले दस्ते में शामिल
थे। उसी रात चार आतंकवादियों के साथ उनकी भीषण मुठभेड़ हुई। इसमें उनके दो साथी
घालय होकर गिर पड़े। लांस नायक मोहन दो साथियों के साथ अपने सहयोगियों को बचाने के
लिए आगे बढ़े। जबकि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि आगे बढ़ने में उनके जीवन को खतरा
है। लांस नायक मोहन ने पहले एक आतंकवादी को मार गिराने में मदद की । उसके बाद अपने
तीन घायल साथियों की जिंदगी पर आसन्न खतरे को भाँपते हुए, अपनी निजी
सुरक्षा की परवाह न कर के बचे हुए आतंकवादियों पर टूट पड़े| दोनों ओर से
भयंकर फायरिंग हुई | अचानक उनके पेट में एक गोली लगी।
अपने गंभीर घावों के बावज़ूद मोहन नाथ ने बचे हुए अंतिम आतंकवादी को दबोच लिया
और उसे मार गिराया। इस अभियान में लांस नायक मोहन नाथ ने न केवल दो आतंकवादियों को
मार गिराया, बल्कि अन्य दो को निष्क्रिय करने में भी सहायक हुए और अपने तीन घायल
साथियों की जान बचाई। अंत में अपने लक्ष्य की पूर्ति के बाद यह योद्धा सदा के लिए
माँ भारती की गोद में सो गया| लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी ने
व्यक्तिगत रूप से आतंकवादियों को मार गिराने और अपने घायल साथियों का बचाव करने
में सहायता प्रदान करते हुए भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं के अनुरूप अपना
सर्वोच्च बलिदान दे कर विशिष्ट वीरता का प्रदर्शन किया । आज कृतज्ञ राष्ट्र इन्हें
इनकी अप्रतिम वीरता के लिए सर्वोच्च पदक से विभूषित करते हुए गौरवान्वित है|”
उद्घोषक के ओजपूर्ण स्वर में इस शौर्य गाथा को सुनते ही सारा आकाश
करतल ध्वनि से गूँज उठा | इस पदक को उनकी पत्नी भावना गोस्वामी
ने करतल ध्वनि की गूँज के मध्य नतमस्तक होकर ग्रहण किया |
मैं, समारोह का यह
विवरण हज़ारों मील दूर बैठी अमेरिका में अपने टी वी स्क्रीन पर देख रही थी |
भावविह्वल
होकर मैंने कहा था, “ धीरज रखना बहन, मैं शीघ्र ही तुमसे मिलने आऊँगी |”
मेरा ममता से भरा हृदय उस समय उस दुबली-पतली लड़की को गले लगाने के
लिए आतुर था |मुझे इस बात का अहसास था कि भारत के एक पहाड़ी नगर नैनीताल के पास बसे
एक छोटे से गाँव ‘लालकुआँ’ में बैठी भावना मेरे अश्रुपूर्ण शब्द नहीं सुन रही है,
किन्तु
मुझे स्वयं से यह प्रण करके आन्तरिक सांत्वना मिली थी |
कुछ ही महीनों बाद जुलाई में
‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ के ५०वें स्थापना दिवस के उत्सव में आई भावना से मिल कर
खुद से किया यह वायदा पूरा हुआ | उसे गले लगाते
ही मैंने उसके सामने मन में उठते प्रश्नों की गठरी खोल दी थी |
मैंने कहा, “ भावना,
मैं
आपको तब से जानती हूँ जब मैंने टी वी स्क्रीन पर आपको राष्ट्रपति से अशोक चक्र एवं
प्रशस्ति पत्र ग्रहण करते हुए देखा था | तब से मैं यही सोचती हूँ कि इतनी छोटी
आयु, आगे की इतनी लम्बी जीवन डगर, कैसे, और किसके सहारे
-------”
“ मैम, मैं आठ जन्म, आठ युग, आठ लोक, कहीं
पर भी जन्म लूँ , मुझे उनके जैसा और कोई मिल नहीं सकता | मेरे हर एकाकी
पल में वो मेरे साथ हैं | वही मेरा अतीत थे; वही
मेरा वर्तमान हैं, और उनकी मधुर स्मृतियाँ ही मेरा भविष्य हैं| उनके सहारे ही
जी रही हूँ|”
उसका त्वरित उत्तर सुनकर मैंने बड़े प्यार से पूछा, “ भावना,
यह
आठ का आँकड़ा क्यूँ ?”
अब उसके होठों पर हल्की सी मुस्कराहट थी और उसकी बड़ी-बड़ी उदास आँखें
अतीत की खोह में कुछ ढूँढ रही थी|
एक गहन उच्छ्वास लेते हुए वह बोली, “ मैंने मोहना के
साथ आठ वर्ष का सुखद वैवाहिक जीवन बिताया है | |इन आठ वर्षों
में मैंने जो भोगा-पाया, वो सुख मेरे लिए आठ जन्मों की धरोहर है
| वही जन्मों-जन्मों तक मेरा सम्बल है |”
मेरे सामने दुबली-पतली सी लड़की बैठी थी किन्तु उसके स्वर में वही ओज
झलक रहा था जो आज की वीर नारी का सब से दृढ़ रक्षा कवच है | मुझे उसके स्वर
में कहीं कोई कँपकपी, कोई घबराहट नहीं दिखी | मुझे लगा कि यही तो एक मुख्य लक्षण है
जो वीर नारी को एक अलग पहचान देता है |
मैं श्रद्धा से उसे देख रही थी और वह अपने छोटे से वैवाहिक जीवन की
प्रेम भरी गाथा सुना रही थी |
“ मैम, बहुत शरारती थे मोहना | मुझे बिना बताए ही वो छुट्टी आते और घर
के दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे हैरान कर देते थे | आनन–फानन में छत
पर खड़े होकर गाँव वालों को आवाजें लगा कर कहते थे – ‘चाची मैं आ गया, बुआ
शाम का खाना आपके साथ !’ आस-पास के बच्चों के लिए भी उपहार लाते थे | सारे
गाँव का ‘लाडला बेटा’ थे वे | इतनी मौज मस्ती करते थे कि गाँव वाले
स्नेह से इन्हें ‘रौनकी’ नाम से बुलाते थे |”
भावना अपने बीते जीवन की मीठी यादों में खो गई थी और मैं उसके
हाव-भाव, उसके शब्दों की मीठास में डूब रही थी | मोहन ने उसे
किसी शादी में देखा था और उससे शादी का प्रस्ताव कर बैठा था, और
उस दिन भी तारीख़ थी – आठ |
मैंने मोहन और भावना की एक सुंदर सी तस्वीर में भावना के गले में
प्यारा सा मंगल सूत्र देखा था | मैंने पूछ लिया, “ तो
वो मंगल सूत्र भी आठ धागों से पिरोया होगा ?”
हँस कर कहने लगी, “ नहीं मेम साब, वो तो इन्होने
मुझे शादी की दूसरी साल गिरह पर पहनाया था | मैंने बहुत कहा
था कि पहले घर बनवा लेते हैं फिर दूसरे खर्चे | पर कहाँ माने थे
वो | लाकर पहना दिया था |”
आज वो मंगल सूत्र तो नहीं देखा किन्तु उसके स्थान पर पतले से काले
धागे में पिरोई काले मनकों की माला थी | पहाड़ में मैंने बहुत सी लड़कियों को ऐसी
माला पहने देखा है | अच्छा लगा कि उसका गला और कलाई सूनी नहीं थी |
मैंने सुना था कि मोहन अच्छा शायर भी था | उसकी इस खूबसूरत
कला के विषय में मैंने भावना से पूछा, “ बहुत से गीत गाए होंगे उसने तुम्हारे
लिए | गीतों में तुम्हें बहुत कुछ कह जाता होगा| अच्छा तो
तुम्हारी किस चीज़ की वो सबसे अधिक प्रशंसा करता था ?”
पहली बार मुझे आभास हुआ कि वो थोड़ा झिझकी थी | कुछ पल चुप रही
फिर हँस कर बोली, “ मेरी आँखें | कहते थे तेरी आँखों में कोई समन्दर है |
तुम
काजल मत लगाया करो |” मैंने उसकी आँखों में उमड़े पीड़ा के तूफ़ान को देख लिया था | इससे
पहले कि वो किनारे तोड़ जाए मैंने जल्दी से पूछा, “ और तुम्हें ?”
बड़े कोमल भाव से उसने कहा, “ मुझे तो वो पूरे के पूरे ही अच्छे लगते
थे | किस-किस की तारीफ़ करूँ ? वो हैं ही इतने अच्छे ----थे |” ‘ थे’
बोलने में उसने थोड़ा समय लिया था |वो अपने अतीत में खो गई थी और मैं उसे
बाहर नहीं लाना चाहती थी | सुना था मीठी यादें ही दारुण पीड़ा की
औषधि होती हैं | हम दोनों ही कमरे में चुप-चाप बैठे, मौन में उस पीड़ा
की मरहम ढूँढ रहे थे |
अभियान से एक दिन पहले उसने अपनी डायरी में एक छोटी सी कविता लिखी थी
–
“पत्नी के निस्वार्थ प्रेम की खुश्बू को महकता छोड़ के आया हूँ
मैं नन्हीं सी चिड़िया बेटी
को चहकता छोड़ के आया हूँ
मुझे सीने से अपने तू लगा
ले ऐ भारत माँ
मैं अपनी जन्मदायिनी माँ
को तरसता छोड़ के आया हूँ ”
मैंने कई बार इन पँक्तियों को पढ़ा था | इन्हें भीतर तक
महसूस करते हुए मैं यही सोचती थी कि 10 दिन में 11 खूँखार आतंकवादियों को मौत के
घाट उतारने वाले इस शूरवीर योद्धा के हृदय में और कितनी जगह होगी जहाँ शौर्य और
पराक्रम की उद्दात भावना के साथ पति, पिता और सुपुत्र के मनोभावों की अविरल
नदिया बहती रहती हो | मैं सदैव इस बात को मानती हूँ कि सैनिक केवल ‘घातक’ नहीं होता |
वह
पति, पुत्र, मित्र, पिता, शायर, गायक, सेवक और अभिनेता भी होता है |वह ‘अर्जुन’ तब होता है जब उसे धर्म की
रक्षा करनी होती है | वह धर्म चाहे राष्ट्र रक्षा हो, चाहे मानव रक्षा
| उस समय वह रक्षक का चोला पहन कर अपना कर्तव्य निभाने चल पड़ता है |
अब तक भावना थोड़ी सहज हो गई
थी | पास में बैठी थी उसकी छोटी सी बिटिया | मैंने उससे पूछा,
“ बहुत
सुंदर नाम है आपका ‘भूमिका’| किसने नाम रखा था आपका ?”
भूमिका ने बाल सुलभ भोलेपन से कहा, “ मेरे पापा ने |
पर
वो मुझे कभी गुड़िया और कभी चिड़िया ही बुलाते थे |”
हँसते हुए भावना बोली, “ बहुत सोच-विचार के बाद ही यह नाम चुना
था मोहना ने | मेरे नाम का ‘भ’ और अपने नाम का ‘म’ जोड़ कर ही वो अपनी पहली सन्तान
का नाम रखना चाहते थे |”
मैंने भी उत्सुकता वश पूछ लिया, “ और अगर लड़का
होता तो ?”
बिना समय गँवाए उत्तर था , “ भौम या भीम |” अब हम दोनों ही
सहज होकर हँस रहे थे |
स्वयं एक सैनिक पत्नी होने के नाते मैं वियोग की वेदना भोग चुकी थी |
उस
लम्बी और अनिश्चित अवधि में पत्र ही हमारा सहारा होते थे | अपने बीते कल को
याद करते हुए मैंने भावना से पूछा, “ जब से देश की उत्तरी सीमाओं को आतंकवाद
ने घेर रखा है, हमारी पलटन के सैनिक अधिकतर सीमाओं पर ही तैनात रहते हैं | ऐसे
में बहुत कम समय के लिए ही तुम उनके साथ रह पाती होगी | केवल
लम्बे-लम्बे पत्र ही तुम्हारा सम्पर्क सूत्र होंगे ?”
उसने बड़ी हैरानी से मेरी ओर देखा कि मैं कैसा सवाल कर रही हूँ,
और
फिर कहने लगी, “ मैम, पत्र कहाँ, आज कल तो WhatsApp , Messenger पर
ही सारा पत्र व्यवहार होता है | कोई भी दिन खाली नहीं था जब हम स्काईप पर या ‘व्हट्स एप’ पर बात नहीं करते थे |”
मैं भी कितनी नादान थी | इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि मैं
अपनी अगली पीढ़ी से बात कर रही थी | मैंने कुछ झिझकते हुए कहा, ‘ओह
! मैं तो भूल ही गई थी कि अब डाक से पत्र तो कोई भेजता ही नहीं है |”
इससे पहले कि मैं कुछ और पूछती वो बोली, “ उनके फोन की एक
अलग से रिंग टोन मैंने सहेज रखी थी | आधी रात को भी फोन आता तो मैं उठा लेती
थी |”
थोड़ी देर के लिए भावना चुप रही और फिर अपने पर्स से एक मोबाइल निकाला
|मोहना के फोन की रिंग टोन लगाई और बहुत अस्फुट स्वर में बोली,
“ अब
मैं खुद ही फोन करती हूँ और खुद ही सुनती हूँ |”
मैं थोड़ा काँप गई थी | इतनी बहादुर लड़की और भीतर से इतनी
भावुक, इतनी कोमल | कैसे होंगे वो अंतहीन प्रतीक्षा के पल
जब भावना केवल मोहन के फोन की घंटी ही सुनना चाहती होगी और फिर अपने को ही सुना कर
मौन सांत्वना देती होगी !!
भावना ने मुझे यह भी बताया था कि मोहन उसे आगे पढ़ने के लिए बहुत
उत्साहित करते रहते थे | स्वयं उन्होंने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की
थी, लेकिन उन्हें बहुत गर्व था कि भावना ग्रेजुएट थी |
मैं अब तक मोहन और भावना के छोटे से प्यार भरे जीवन के विषय में बहुत
कुछ जान गई थी, किन्तु अनुभव यही कहता था कि कोई तो पल होगा जब भावना को मोहन की
जीवन रक्षा के विषय में डर लगता होगा या आशंका होती होगी | सुदूर पहाड़ों
में रहने वाली लड़की को कितना पता था कि जिस पलटन में मोहन सेवारत था उस पलटन को
सदैव शत्रु के साथ आमने-सामने युद्ध करना पड़ता है | स्पेशल फोर्सेस
में होने के कारण उनका हर अभियान, हर युद्ध ख़तरों से भरा होता है |
मैंने यही प्रश्न उससे पूछा, “ वे कभी आपसे
अपने इस चुनौती पूर्ण व्यवसाय की बात करते थे | कभी बताते थे कि
अभियान पर जाते हुए कितने खतरों का सामना करते हैं ?”
उसने बिना संकोच के कहा, “ वे हमें अपने काम के विषय में जितना
आवश्यक था, उतना ही बताते थे | पता नहीं क्यूँ पर वो मुझे भविष्य के
लिए सदैव तैयार करते रहते थे | अगर
कभी मैं डरती थी तो कहते थे – मैं कमांडो हूँ , पूरे दस को लेकर
जाऊँगा | अब सोचती हूँ कि क्या सभी सैनिक अपने परिवार को यूँ ही सचेत करते
रहते हैं या इन्हें मेरी बहुत चिंता थी | पता नहीं, वही जानें |”
मोहन के सैनिक होने का गर्व जितना मोहन को था उतना ही भावना को भी |
बताने
लगी, “ मोहन कहते थे, बचपन से ही उन्हें कमांडो बनने का शौक
था | उनके पिता भी भूतपूर्व सैनिक थे | इसीलिए सैनिक
धर्म तो उन्हें जन्म घुट्टी में ही पिला दिया गया था | किन्तु कमांडो
ही बनना है, यह जुनून तो विद्यार्थी जीवन में ही उनके मन-मस्तिष्क में छा गया था |
सेना
में भर्ती होने से पहले निर्भीक कमांडो बनने के लिए उन्होंने पूरी तैयारी कर ली थी
|”
अचानक बात करते करते उसने मुझसे पूछा, “ मेम साब जी,
क्या
आप मोहना को जानती थीं , कभी उससे मिली थी ?”
मैंने बड़े स्नेह से उससे कहा, “ कभी नहीं मिली |
पर
एक बात कहूँ, पति के सेवा निवृत होने के बाद भी हमें अपनी पलटन से उतना ही प्यार,
लगाव
रहता है जितना नौकरी के समय था | फिर दूरी कैसी ? इस नाते मैं
मोहन को जानती थी | जिस दिन मोहन ने वीरगति प्राप्त की थी उस दिन मैंने विभिन्न समाचार
पत्रों में उसकी तस्वीर देखी थी | एक तस्वीर में तुम और भूमिका भी उसके
साथ थी | कितने खुश लग रहे थे आप तीनों | उसी दिन मैंने
यह संकल्प लिया था कि तुमसे अवश्य मिलूँगी, कभी |”
अब मैं थोड़ी भावुक थी | मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर
भावना मुझसे बोली, “ आप मेरी से बड़ी हैं | मेरी बेटी को आशीर्वाद दीजिए कि यह
अपने पापा का नाम ऊँचा करे | मैं इसे डॉक्टर बनाना चाहती हूँ,
सेना
में भेजना चाहती हूँ | बस यही मेरा एक मात्र लक्ष्य है |”
मैंने उसके स्वर में जो संकल्प का घोष सुना उससे मुझे लगा कि सीमाओं
पर शत्रु का संहार करने वाले शूरवीर अपनी वीरांगनाओं के इसी धैर्य और आस्था का
संबल पाकर निश्चिन्त हो कर रक्षा कर्म में जुट पाते होंगे |
अपनी बेटी की ओर देखती हुई भावना बोली,” इसके जन्म पर
मुझे परिवार से काफी कुछ सुनना पड़ा था क्योंकि घर के बड़ों को पुत्र की चाह थी |
पर
अब मैं इससे ही अपना वंश चलाऊँगी, इसके नाम के साथ मोहन का नाम सदैव जुड़ा
रहेगा |”
भावना के इस रूप को देख कर मुझे बहुत खुशी हो रही थी | किन्तु
एक प्रश्न जो मेरे मन में अभी तक बैठा था, पर इतनी हंसती खेलती नवयुवती को मैं
फिर से उस दारुण पल की याद नहीं दिलाना चाहती थी, फिर भी पूछ लिया,
“ भावना
आप को सूचना कैसे मिली ?
धरती पर आँखें गड़ाये दूर कहीं कुछ खोजती सी वो बोली, ” मुझे
पता नहीं था कि वो किसी मिशन पर गए हैं | 11 अगस्त को ही तो गुड़िया का जनम दिन
मना कर 15 अगस्त को गए थे | कुछ दिन फोन पर भी बात होती रहती थी |
पिछले
तीन दिनों से नहीं हुई थी | फिर एक दिन इनके दोस्त बार-बार फोन
करके पूछ रहे थे कि भाभी आप कैसी हो ? मुझे नहीं पता था कि वो मुझे किसी अशुभ
सूचना के लिए तैयार कर रहे थे | फिर शाम को ‘एस एम’ साहब का फोन आया था
| कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कह रहे थे | बस सुन्न सी मैं
यही समझ सकी कि ----
अब वो चुप थी | पहली बार मैंने उसके शरीर में कंपन
देखी थी | उसकी बच्ची चुपचाप अपनी माँ का हाथ लेकर उसे सहला रही थी | कितने
असमय ही बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे ! कैसे समझ लेते हैं अपना उत्तरदायित्व
!! मैंने उसके मौन को नहीं तोड़ा | उसकी आर्द्र आँखों की पीड़ा मेरी आँखों
में भी प्रतिबिम्बित हो रही थी |
उसने गले में पतली सी माला पहन रखी थी जो शायद शादी के समय मोहन ने
उसे पहनाई होगी | उसे बड़े प्रेम से छू कर बोली , “ यह है न उनका
मेरे साथ होने का चिह्न | और फिर मैंने उनकी लैप टॉप, वर्दी
, मोटर साइकल, फोन सभी चीजें सम्भाल कर रखी हैं |
मैंने वातावरण को थोड़ा सहज करते हुए पूछा, “ और उनकी शायरी
वाली डायरी ? उसे तो तुम रोज़ पढ़ती होगी ?”
अब वो थोड़ा शर्मा गई थी | भावना ने बताया, “ हाँ
पढ़ती हूँ ; कई बार, बार-बार | और
फिर उनके मित्र भी मुझे उनका लिखा भेजते रहते हैं जो उन्होने पलटन में रहते हुए
किसी नोटबुक में लिख छोड़ा होगा |”
फिर स्वयं ही कहने लगी, “ मैंने उनकी समाधि बनवाई है, घर
के सामने अपनी ज़मीन पर | पहाड़ों में वीरों की समाधि बनवाने का
भी प्रावधान है | वहीं पर एक छोटा सा मंदिर बनेगा | गाँव में उनके
नाम की सड़क है, स्कूल है | स्टेडियम को भी उनका ही नाम दिया गया
है | बहुत से लोग आते रहते हैं उस समाधि पर | कई संस्थाएँ भी
मुझे बुलाती रहती हैं | सब से अधिक मैं जो काम कर रही हूँ वो यह है कि मैंने अन्य वीर
नारियों से सम्पर्क बना लिया है | उनसे बातचीत करती रहती हूँ |
“और पलटन के साथ क्या सम्पर्क सूत्र है ?” मेरे यह पूछने
पर कहने लगी,
“ पलटन ही तो मेरा घर है | फोन भी आते रहते हैं | आप
इतनी दूर से मिलने आई हो, आप भी मेरी अपनी हो | मैं
अकेली कहाँ हूँ ?”
मेरे मन में मोहन के उस महा अभियान के विषय में कई प्रश्न थे |
इसीलिए
हम दोनों फिर मिलने का वादा कर के विदा हुए | उसके जाने के
बाद मैंने एक अजीब सा एकाकीपन महसूस किया | भावना के साथ
मेरा एक अटूट संबंध जो जुड़ गया था |
इस अंतहीन प्रेम कथा की एक और कड़ी थी जिसके कई पन्ने थे और बस उन्ही
पन्नों को खोलने के लिए मैं अगले दिन मोहन के दो मित्रों से मिली जो उसके अंतिम
अभियान में उसके साथ थे |
लांस नायक सुरजीत सिंह और
नायक भरत मोहन गोस्वामी के परम मित्र थे | वे तीनों आरम्भ से ही एक ही टीम में थे,
एक
साथ ट्रेनिंग की थी, मस्ती की थी और सभी अभियानों में भी साथ रहे थे | मैंने
उनसे मिलते ही सब से पहले मोहन के विषय में, उसके अभियानों
के विषय में जानना चाहा |
नायक भरत बहुत गर्व के साथ मोहन के विषय में बताने लगे, “ मेम
साहब, मोहन वर्ष 2002 में 9 पैरा स्पेशल फोर्सेस में वालेंटियर हो कर आए थे
| तब से अब तक यूनिट ने जितने भी मिशन किए हैं लगभग सभी में उन्होंने
भाग लिया था | इस वर्ष भी 15 अगस्त को छुट्टी से आने के बाद सीधे अपनी टीम में आकर
सम्मिलित हो गए थे | 23 अगस्त को उनका पहला अभियान कश्मीर के जंगलों में हंदवारा क्षेत्र
के ख़ुरमुर स्थान पर हुआ था | वहाँ हमारा भीषण मुठभेड़ हुआ और हमारी
टीम ने पाकिस्तान मूल के ‘लश्करे तैएबा’ के तीन कट्टर आतंकवादियों को मौत के घाट
उतारने का कार्य सफलता से संपन्न किया था | 26 -27 अगस्त को
‘रफियावाद’ में चलाए गए दूसरे अभियान में भी हमारी टीम तीन खूँखार आतंकवादियों को
मौत के घाट उतारने में सफल हुई थी | इस अभियान में पाकिस्तान के मुज्जफर गढ़
का रहने वाला आतंकवादी सज्जाद उर्फ़ अबू उबेद उल्लाह जीवित पकड़ा गया था | इस
आतंकवादी के पकड़े जाने से कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तान की
भूमिका को साबित करने में महत्वपूर्ण सुराग मिले थे | 2 सितम्बर की
रात मोहन का चौथा और अंतिम अभियान था |”
यह बताते हुए भरत चुप हो गया था |कुछ देर तक हम
सभी उस पल को जीते रहे | मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,
“ उस
अंतिम अभियान में आप तीनों साथ थे | आपने जो देखा-भोगा, उसे
और कोई नहीं दोहरा सकता |”
महाबलिदान की उस रात का विवरण देते हुए सुरजीत बोले, “ हमारी
टीम को विश्वस्त सूत्रों से सूचना मिली थी कि खूँखार आतंकवादियों का एक गिरोह यहीं
जंगल में आस-पास छिपा है | वे उस रात प्रचुर मात्रा में घातक
हथियार, बीहड़ जंगल का नक्शा और खाने पीने का सामान लेकर वहाँ से गुज़रने वाले
थे ताकि यह सारा विध्वंसकारी सामान आगे बने हुए किसी आतंकवादी शिविर तक पहुँचा
सकें|
मैंने उत्सुकता वश पूछ लिया, “ आपने उन्हें
देखा था, वो कितने लोग थे और आपको इतने अँधेरे में कैसे पता चला कि दो वहीं
ढेर हो गए थे ?”
सुरजीत कहने लगे, “ मैम, हमारी हैलमेट और
हथियार के साथ एक यू ए वी कैमरा लगा होता है | इसकी सहायता से
हम दूर के दृश्य को इस तरह देख सकते हैं जैसे सब कुछ पास ही घट रहा हो |यह
ऐसा यंत्र है जो आकाश से विडिओ रेकोर्डिंग करता है और हमें रात के अँधेरे में
शत्रु की पोजीशन और हरकत के विषय में बताता रहता है |”
अपनी बात को कुछ पलों के लिए रोक कर सुरजीत ने जो बताया उन शब्दों से
मुझे आतंकवादियों के प्रशिक्षण एवं
उद्देश्य के साथ साथ भारतीय सैनिको की ट्रेनिंग के मूलभूत सिद्धांतों के विषय में
जानकारी मिली |
सुरजीत ने कहा, “ मैंम, आतंकवादी के पास
दो ही विकल्प होते हैं – या तो अपनी जान बचाते हुए निकलना या मरना | हमारे
सैनिकों को तो शत्रु को मारना, अपने साथियों को बचाना,
casualty को निकालना, अपनी जान की रक्षा करना- यही सभी
उद्देश्य सामने होते हैं | यही तो हमारी ट्रेंनिंग के समय हमें
बार बार सिखाया और बताया जाता है |”
सुरजीत आगे की घटना के विषय में बता रहे थे, “ लगता था दुश्मन
को उस सारे इलाके का पहले से ही पता था | वो अपने गाइड के साथ इस जंगल के
रास्तों को देख चुका था | हमारे सामने दो मुख्य लक्ष्य थे –
दुश्मन को मारना और घायल साथी कुलदीप को वहाँ से निकालना ताकि वो उनके हाथ न लग
सके |”
थोड़ा सा शब्दों को विश्राम देते हुए सुरजीत ने अपने प्यारे मित्र
मोहन की वीरता और साहस से भरी हुई मूरत को आँखों में भरते हुए कहा, “ मेम
साब जी, दुश्मन को मारने का जोश तो हर एक सैनिक में होता है | लेकिन
मोहन के अंदर देश रक्षा का और हर परिस्थिति में अपने साथियों को बचाने का जो जज़्बा
था उसके उदाहरण कम ही देखने, सुनने को मिलता है |” इसे ही कहते हैं ‘बन्धुत्व’ और इसी
उद्दात भावना के बल पर सैनिक भीषण परिस्थितियों में भी एक-दूसरे की सहायता करते है,
रक्षा
करते हैं |
उस समय सुरजीत के स्वर में मोहन का
जोश भर गया था | वो उसी के शब्द बोल रहा था , “ मैं आगे जाऊँगा
साहब, छोडूँगा नहीं उन पापियों को | और वो दुश्मन पर
फायर करता हुआ आगे बढ़ने लगा |हमने मोहन की ललकार सुनी --- “ छोडूँगा
नहीं इन्हें आज , एक एक को मार कर ही चैन लूँगा |”
उस जंगल में घनघोर अँधेरे और सन्नाटे के सिवाय कुछ नहीं था |धीरे-
धीरे थोड़ी सुबह की रोशनी होने लगी थी | उस भीषण मुठभेड़ की अंतिम कड़ी को शब्द देते हुए
सुरजीत बता रहा था, “
कुलदीप को निकालते हुए और दुश्मन की टोह लेते हुए मोहन को भी शायद गोली लग गई थी |
किन्तु
उसने अपनी जान की कोई परवाह नहीं की |उस आख़िरी बचे दुश्मन को मार गिराना ही
उसका एक मात्र लक्ष्य था और वो अपने घायल साथी कुलदीप को भी सुरक्षित स्थान पर
पहुँचाना चाहता था | मोहन और आतंकवादी अब आमने सामने थे | मोहन शत्रु से
केवल 10-12 मीटर दूर था | वो उसकी ओर फायर करता हुआ आगे बढ़ता गया
और फायर करते हुए उसने अंतिम आतंकवादी को भी मौत के घाट उतार दिया | इस
आमने-सामने की मुठभेड़ में शत्रु ने भी मोहन पर गोली दागी और वो बुरी तरह घायल हो
गया था |
अपने प्रिय मित्र के अंतिम
क्षण तो इन दोनों बहादुर कमांडो जवानों की आँखों में तैर रहे थे | फिर
भी वे उन्हें बताने के लिए शब्द ढूँढ रहे थे |
सुरजीत ने कहा, “ हम जैसे ही थोड़ा आगे बढ़े तो हमें रक्त
के चिह्न दिखाई दिए | हम समझ गए कि मोहन को गोली लग गई है और वो कहीं पास ही है | हमने
उसे आवाज़ लगाई | हमें पास आते
देख कर वो हमसे अस्फुट स्वर में बोला, “ आज सफाया कर दिया है सालों का |
वो
देखो दुश्मन सामने ढेर पड़ा है | उसने अपना हथियार कस कर अपने हाथों में
जकड़ रखा था जैसे ‘काम’ अभी बाकी है |
उसी पल वो भारत माँ का शूरवीर सिपाही शत्रु का पूरा सफाया करने का
अपना संकल्प पूरा कर के चला गया था, बहुत दूर | उन जंगलों में
माँ भारती की गोद में वो निश्चिन्त हो कर सो रहा था | अभियान में जाने
से पहले उसकी सिंह जैसी ललकार सुबह के उस नीले –पीले आकाश में गूँज रही थी |
कितना
जोश होगा उस शूरवीर की वाणी में जब वो लक्ष्य भेदन के अपने संकल्प मन, प्राण
और आँख गड़ा कर शत्रु की टोह लेता, गहन अंधेरों को चीरता आगे बढ़ रहा होगा
!
हम सब काफी देर तक मौन बैठे
उस पल को अपने-अपने तरीके से जी रहे थे |अभी तक सुरजीत चुप बैठा अपने मित्र के
साथ बिताए अपने 13 वर्ष के अमोल, सुखद पलों को शायद याद कर रहा था |
सहसा
कहने लगा, “ अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था | उसकी फोटो उसके
मोबाइल की स्क्रीन पर ही थी | कैम्प में वो मोबाइल और उसका बहुत सा
सामान पड़ा हुआ था | जाने से पहले महेंद्र साहब ने उसे हँसी मजाक में कहा था, “ अपने
पिट्ठू में इतना क्या-क्या भर रखा है ? तू इतना बन्दोबस्त करके, इतना
सामान लेकर क्यों चलता है ?”
मोहन ने बे धड़क होकर जबाब दिया था, “ मेरी गोली
मिलिटेंट का पीछा करती हुई चलती है साब | इस घुप अँधेरे में उनका पीछा करने के
सारे इंस्ट्रूमेंट हैं इस बैक पैक में |”
मोहन के साहस और वीरता की कितनी कहानियाँ होंगी उसके मित्रों के पास |
यह
तो उस शौर्य गाथा की एक महत्वपूर्ण-अंतहीन कड़ी थी | उसकी इस वीरता
के लिए राष्ट्र ने उसे ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया था | उस समय मेरे मन
में एक ही विचार आ रहा था कि अगर अशोक चक्र से ऊपर और कोई भी पदक या सम्मान हो
सकता है तो वो भी इस रण बाँकुरे की वीरता के लिए कम होगा|
9 पैरा स्पेशल फोर्सेस यूनिट एक पहाड़ी
पर स्थित है | वहीं पर एऊँचे टीले पर अमर शहीद मोहना गोस्वामी और तीन अन्य अशोक
चक्र विजाताओं की कांस्य मूर्तियाँ स्थापित है | ये केवल स्मारक नहीं, यह एक ऐसा
स्मृति स्थल है जो युगों-युगों तक आने वाली पीढ़ियों को देश रक्षा के लिए सदा
प्रेरित करता रहेगा | नमन ऐसे निर्भीक योद्धाओं को |
शशि पाधा
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