सुधियों के पन्नों से ---- माश्की
काका
शशि पाधा
शशि पाधा
मन के किसी कोने में
रखी पिटारी में कई छोटी छोटी गुथलियाँ सम्भाल के रखी हैं| हर गुथली में उन दिनों
की मधुर स्मृतियाँ हैं जिन्हें बाँटने में संकोच भी होता है और कोई सुनने वाला भी
नहीं मिलता| किन्तु मैं उन्हें कभी कभार अपने एकांत पलों में खोल लेती हूँ, उनसे बतियाती
हूँ, उनसे खेलती हूँ और फिर बड़ी रीझ से उन्हें फिर से उनकी गुथली में बाँध के रख
देती हूँ| यह मेरे बचपन की धरोहर है जिससे मुझे अपने होने का अहसास हो जाता है|
मैं हूँ –यह मैं जानती हूँ पर जो मैं बचपन में थी मैं उसे भी खोना नहीं चाहती|
इसीलिए वो पिटारी मेरी सब से प्रिय निधि है|
तब मैं छोटी थी
---बहुत ही छोटी| उन दिनों घर गली मोहल्लों में होते थे और हर बड़ी गली किसी बड़ी
सड़क से जुड़ी होती थी| हमारी गली का नाम था –पंजतीर्थी| जम्मू शहर के बिलकुल उत्तर
में ‘तवी’ नदी बहती है और इसी नदी के ऊँचे किनारे पर बनी चौड़ी सड़क के अंदर थी
पंजतीर्थी| महाराजा हरी सिंह का राज महल इस सड़क के एक छोर पर था और दूसरे छोर पर
थी ‘मुबारक मंडी’| इसी मंडी में बड़ी शान से खड़े थे पुराने महल जो इस पीढ़ी के
पुराने राजाओं के वैभव का प्रतीक था| मंडी के बीचोबीच संगमरमर की सीढ़ियों वाला एक
सुन्दर सा बाग़ था| इस बाग़ में कई तरह के फ़व्वारे लगे थे| चारों ओर खुश्बूदार पेड़
भी थे| इन सभी पेड़ों में से मुझे मौलश्री का पेड़ बहुत पसंद था क्यूँकि उसके फूलों की
खुश्बू सब से अलग थी| इसकी खुश्बू के आगे मुझे सारे इत्र फीके लगते हैं|
इस मंडी और राजमहल
को आस- पास थे दो बाज़ार| एक का नाम था धौन्थली और दूसरा था पक्का डंगा| इन दोनों
बाज़ारों की एक विशेषता थी| दोनों पत्थर के बने थे| यानी सड़कें तो तारकोल की
थी किन्तु जम्मू के सारे बाज़ारों में पत्थर लगे हुए थे| गाड़ियाँ तो चलती नहीं थी
इन बाज़ारों में और उन दिनों न तो स्कूटर थे न धुआँ छोड़ने वाले अन्य वाहन| फिर भी
दिन में दो बार इन बाज़ारों के पत्थरों पर पानी का छिड़काव होता था और वो छिड़काव करने
वाले थे हमारे प्यारे ‘माश्की काका’|
उनका नाम क्या था,
मैं नहीं जानती| थोड़े से भारी शरीर वाले माश्की काका अपनी मश्क में पानी भर कर
बाज़ार के बीचोबीच चलते जाते और दोनों और मश्क के मुँह से पानी फेंकते जाते| अमूमन
उस समय हम या तो स्कूल जा रहे होते या आ रहे होते| मुझे याद है काका सब बच्चों के
साथ खिलवाड़ भी करते रहते| इधर-उधर पानी छिड़कते-छिड़कते वो मश्क को इतनी जोर से गोल
गोल घुमाते की बच्चों पर छींटे पड़ते| सारे बच्चे खिलखिला कर हँस देते और उनके पीछे
पीछे चलते हुए यही कहते, “ काका! पानी फेंको न और, अभी मज़ा नहीं आया|”
मुझे याद है कभी-कभी
काका खड़े हो जाते बीच बाज़ार और हम बच्चों से कहते, “ देखो, पानी बहुत मूल्यवान है,
इसे व्यर्थ में नहीं गंवाना चाहिए| नहीं तो बादल, नदिया और समन्दर सब हमसे रूठ
जाएँगे और फिर सूख जाएँगे|”
हमें उनकी बातों की
समझ तो आती नहीं थी| भला बादल या नदिया कैसे सूख सकते हैं? और समन्दर तो हमने देखा
ही नहीं था तो उसके विषय में हम क्या निर्णय ले सकते थे| हाँ, उनकी बातों से एक
बात झलकती थी कि उनको पानी से बहुत लगाव था| शायद वे शहर के उत्तरी किनारे में
बहती ‘तवी’ नदी का पानी अपनी मश्क में भर कर लाते थे| और उस नदी तक पहुँचने के लिए
नीचे ढल कर जाना पड़ता था| या वे हम सब को जल संकट के विषय से अवगत कराना चाहते थे|
जब मैं बहुत छोटी थी
तो मश्क का आकार और मुँह देख कर थोड़ा डर सी जाती थी| एक बार भिश्ती काका से पूछ ही
लिया था मैंने, “ काका आपने किस चीज़ का थैला बनाया है? (मुझे उनकी मश्क थैले जैसी
ही लगती थी)
हँसते हुए काका ने
बताया था कि जब कोई बकरी बूढ़ी होकर मर जाती है तो उसकी खाल से हम यह थैला बना लेते
हैं| फिर इसमें पानी भर कर बाज़ार के पत्थरों पर छिड़काव करते हैं| उन दिनों यह
बातें समझ नहीं आती थी| पर अब लगता है कि पत्थरों पर पड़ी धूल-मिट्टी न उड़े, इसी
लिए छिडकाव होता होगा| राज महल से मंडी तक आने वाली बडी सड़क पर तो दिन में तीन-
चार बार काका इधर से उधर आते-जाते अपनी मश्क से पानी छिड़कते रहते|
काका मुस्लिम थे, यह मेरे पिता ने मुझे बताया
था| बहुत बाद में मुझे पता चला था की उनकी कोई अपनी सन्तान नहीं थी| वो हम सब बच्चों के साथ ही खिलवाड़ करके अपना जी
बहला लेते थे| कभी- कभी वो हम बच्चों में संतरी रंग की गोलियाँ (टॉफियाँ) बाँटते
थे| शायद तब उनकी ईद होती थी| हाँ, एक बात और याद आती है कि बाज़ार के कृतज्ञ
दुकानदार उन्हें कुछ पैसे देते थे जिसे आज के समय में ‘टिप’ कहा जा सकता है|
उनका नाम मुझे याद नहीं| वो मेरा नाम कैसे जानते
थे, मुझे पता नहीं | पर जब भी वो मुझे देखते तो मुस्कुराते हुए कहते, “
गुड्डी! तुसाँ दूर उड्ड जाना, फेर असाँ नेई
मिलना”| ( गुड़िया! तूने बहुत दूर उड़ जाना
और फिर हमने नहीं मिलना) शायद उन्हें पता था की मेरे माता पिता शहर से दूर एक नया
घर बनवा रहे थे और वो हम से बिछुड़ने का दर्द इसी तरह ब्यान करते थे|
हम जम्मू का पुराना
शहर छोड़ कर नई जगह ‘गाँधीनगर’ आकर बस गए| इस बीच वो बाज़ार भी तारकोल के बन गए| अब
सड़कों पर पानी का छिड़काव शायद मयुन्स्पैलिटी की गाड़ियाँ करने लगीं| या इसकी
आवश्यकता ही नहीं होती होगी| समय जो इतना बदल गया था| कुछ चीज़ों का कोई महत्व नहीं
रह गया था|
मेरे बड़े होते-होते
माश्की काका कहाँ खो गए, मुझे पता ही नहीं चला| लेकिन मेरी सुधियों की किसी पिटारी
में वो सदा रहे| कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरा और उनका सम्बन्ध भी रविन्द्र नाथ
टैगोर की कहानी ‘काबुली वाला’ की ‘मिनी’ और ‘काबुली वाला’ की तरह था| वे ठीक ही तो
कहते थे ---गुड्डी तुसाँ उड्ड जाना------
मैं तो हूँ, किन्तु
मेरे माश्की काका समय के पंख लगा कर कहीं उड़ गए| अब कभी कभी नभ में उड़ते बादलों
में उनको देख लेती हूँ | वो वहीं होंगे, अपनी मश्क के साथ, धरती पर जल का छिड़काव
करते हुए-------
·
मैंने
इस रचना में ‘भिश्त’ के स्थान पर ‘मश्क’ शब्द का प्रयोग किया है| जम्मू में हम सब लोक
भाषा में ‘भिश्त’ को ‘मश्क’ ही कहते थे और भिश्ती को कहते थे ‘माश्की’|
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