गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020


                 यादों की धरोहर - मुग्गनी
                                 शशि पाधा

सिरहाने रक्खी रहती है यादों की गठरी | जब मन लौटता है वहाँ, जहाँ इसे बाँधना शुरू किया था तो खोल लेती हूँ कभी-कभी | बहुत सी चीज़ें हैं इसमें -- सफ़ेद लट्ठे से बनी बड़ी-बड़ी काली आँखों वाली गुड़िया, कुछ लाल पीले रिब्बन, लाल वर्क वाली छोटी सी कश्मीरी कांगड़ी, हरिद्वार–इलाहावाद से लाए हुए लकड़ी के रंगबिरंगे गीटे, मोतियों की बालियाँ,प्यारी सहेली का दिया मेरा नाम कढ़ा –रुमाल | देखिए न ! हूँ न मैं कितनी धनी, यादों की धनी |
उसी गठरी से झाँक रही है मेरी छोटी सी मुग्गनी | आप इसे गुल्लक भी कह सकते हैं या गोलक भी | लेकिन मैं तो इसे मुग्गनी ही कहूँगी क्यूँकि मेरी इससे पहचान इसी नाम से हुई थी |
उन दिनों त्योहारों पर बच्चों को पैसे मिलते थे | मुझे जो याद है आपको डोगरी भाषा में उन पैसों के नाम बताती हूँ | पैसा, आन्ना, दोआन्नी, चौआन्नी, अठन्नी और रुपया | पैसा ताम्बे का होता था और दो तरह का था | एक तो पूरा गोल और दूसरा मोरी वाला | (डोगरी में मोरी यानी सुराख) यानी अगर आप पैसे को बीच में गोल सुराख़ कर दें तो वो मोरी वाला पैसा बन जाता था | राज़ की बात बताऊँ ? इन पैसों की बहुत बरकत थी | एक आन्ने से पूरे के पूरे गोल-गोल, नर्म-नर्म बुड्डी के बाल मिल जाते थे | अब आप पूछेंगे की बुड्डी के बाल क्या होते हैं | चीनी के तारों को गोल-गोल घुमा कर एक बड़ी सी नर्म गेंद का आकार दे दिया जाता था उसे बुड्डी के बाल कहते थे |  आज के जमाने में बच्चे जिसे कॉटन कैंडी कहते हैं न, वहीईई---|
इससे पहले कि मेरी उम्र के सभी लोगों के मुँह में पानी आ जाए, मैं आपसे अपनी मुग्गनी की पहचान करा देती हूँ |  दिवाली पर हम बच्चों को उपहार मिलते थे | मेरे स्नेही मामा ने मुझे मिट्टी की एक मुग्गनी दी और कहा, “ गुड्डी! अब अपने सारे पैसे इसमें जमा करना |” यानी पैसे जोड़ने और बचाने की पहली सीख शायद पाँच –छह साल की आयु में ही मिल गई थी |
मेरी मुग्गनी मिट्टी की थी और एक सुराही की शक्ल की थी | उसके सिर के बीचो-बीच एक पतला सा सुराख था जिसमें हम पैसे डाल सकते थे |चाक पर मिट्टी के घड़े आदि गढ़ने वाले कुम्हार ही इसे बड़ी सोच से बनाते थे क्यूँकि इसमें पैसे डाल तो सकते थे, निकाल नहीं सकते थे |



मुग्गनी मिलने पर मैं इतनी खुश थी कि सोते जागते बड़ी ही सावधानी से इसे किसी सुरक्षित जगह पर ही रखती थी | शुरू-शरू में तो बड़े चाव से सबने आन्ना-दुआन्नी दी और मैंने उन पैसों को मुग्गनी की भेंट चढ़ा दिया | कभी उसे छनका के देखती तो पैसों की खनक सुन कर तन मन नाचने लगता | कभी दादी माँ जिसे मैं प्यार से ‘बेबे’ कह के पुकारती थी, अपनी ओढ़नी की गिरह में बंधे पैसे गिन रही होतीं तो मैं बड़प्पन से भीगे शब्दों में कहती, “ दादी! कम तो नहीं हैं आपके पास पैसे ? चाहिए तो मैं दे दूँ ?
बेबे बड़े प्यार से गले लगाती और कहती, “ तू भागों वाली है गुड्डी | प्रभु करे तेरी मुग्गनी हमेशा भरी रहे |”  नही जानती थी तब कि ‘भाग’ क्या होता है| लेकिन यह जानती हूँ कि उनके आशीषों के कारण कभी कोई कमी नहीं हुई |
अब एक समस्या खड़ी हो गई | त्योहारों का सिलसिला ख़त्म हो गया और मुग्गनी तो आधी खाली ही रही| बहुत देर प्रतीक्षा की कि कहीं से पैसे मिलें लेकिन कुछ ख़ास मौका हो तो मिलें न | अभी तक मैं ख़ास मौके की प्रतीक्षा कर ही रही थी कि जलंधर से छोटे मामा मिलने के लिए आ गए | मामा हमारे लिए बहुत से उपहार लाए | हम सब उनके आने पर बहुत खुश थे | पता नहीं मेरे भोले से मन में क्या विचार आया कि मैं झट से अपनी मुग्गनी  लेकर मामा जी के पास गई और कहा, “यह देखिए मेरी नई मुग्गनी | इसमें मैं पैसे डालती हूँ |”
मामा ने बिना देर किए अपनी जेब से सारी रेजगारी निकाली और एक-एक कर के मेरी मुग्गनी के पतले से होठों में पैसे डालने शुरू किए | जब पैसा अंदर डल जाता तो मैं ताली बजा कर नाचती और जब मुँह में फंस जाता तो उत्सुकता से मामा की उँगलियों की ओर देखती रहती | मेरे जलंधर वाले मामा बहुत धनी नहीं थे, लेकिन उनका मन राजाओं सा था |
उस दिन मेरी मुग्गनी भी आधी से ज़्यादा भर गई | अब मेरे नन्हें-नन्हें पाँव धरती पर पड़ नहीं रहे थे, उड़ रहे थे |
अब तो यह खेल कई बार खेला| उधमपुर से मौसा जी आए या बड़ी ब्याही बोबो ससुराल से आई | मैं अपनी मुग्गनी उनके पास ज़रुर ले जाती | कभी माँगा तो नहीं कुछ लेकिन, शायद उन दिनों बच्चों को पैसे देना हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण भाग था | याद है जब भी कोई सम्बन्धी घर में कुछ दिनों के लिए रह कर जाता तो विदा के समय बच्चों के हाथ में कुछ न अवश्य थमाता | उन दिनों बहुत से उपहार लाने या देने का रिवाज़ नहीं था | प्लास्टिक तो था नहीं | खिलौने या तो मिट्टी के या बाद में पोर्सलीन के बनते थे | मेरे पास तो केवल सौंधी सी खुश्बू वाली मिट्टी की मुग्गनी ही थी|
दिवाली पर हमारे यहाँ एक प्रथा थी | लक्ष्मी पूजा के बाद पूजा का दीपक हम अपने पिता के सामने रखते थे | पूजा के बाद पिता आशीर्वाद में एक रुपया या दो रूपये का नोट हमें देते थे | फिर उस नोट को मुग्गनी में डालने की जद्दोजेहद शुरू हो जाती थी | मुग्गनी का मुँह छोटा, पतला और नोट को उसमें डालने के लिए दो-तीन तहों में मोड़ा जाता और फिर बड़ी सावधानी से उसे मुग्गनी के सुपुर्द कर दिया जाता | नोट कागज़ी होता था, उसकी ख़नक तो थी नहीं | इसलिए उसे पाकर कोई ज़्यादा खुशी नहीं होती थी |
एक दिन की बात बताऊँ | हमारे घर में आँवले और गाजर का मुरब्बा बनता था | इस मुरब्बे को बड़े-बड़े मर्तबानों में भर कर अलमारी में रख दिया जाता था | इसे हम जूठा हाथ न लगा दें, हमें मुरब्बे को स्वयं मर्तबान से निकाल कर खाने की अनुमति नहीं थी | बेबे दे या माँ दे | उसी अलमारी में मेरी मुग्गनी भी पड़ी रहती थी | उन दिनों न तो बच्चों का अलग कमरा होता था न अलमारी | बस एक स्टोर की अलमारी में सभी अच्छी-अच्छी चीज़ें रखी रहती थीं | मेरे लिए तो मेरी भरी-भरी मुग्गनी सब से कीमती चीज़ थी |मुरब्बे के मर्तबानों के पीछे मैंने उसे सहेज कर रख दिया था | एक दिन कुछ पैसे डालने के लिए मुग्गनी उतारने लगी तो मुरब्बों पर नजर पड़ी| मन ललचा गया | स्टूल पर चढ़ कर मर्तबान का ढक्कन खोला और गाजर हाथ में लेकर वहीं स्टूल पर बैठे-बैठे खा गई | जिह्वा और मन तृप्त हुआ और बड़े चाव से मर्तबान के पीछे पड़ी मुग्गनी उतारने लगी | पता नहीं स्टूल हिल गया या चाशनी से सना मेरा हाथ मुग्गनी से चिपक गया, मैं मुग्गनी समेत स्टूल से गिर गई | अपने आस-पास देखा तो टूटी मुग्गनी के मिट्टी के टुकड़ों के साथ अनगिनत आन्ने , दुआन्नियाँ , चवन्नियां बिखरी पडी थीं | कहीं-कहीं से कोई नोट भी झाँक रहा था |
मैं बहुत डर गई थी और सुबकने लगी थी | पता नहीं  गिरने से चोट का दर्द था या मुग्गनी के टूटने का | पर मैं बहुत रोई थी | बेबे ने बड़े प्यार से सारे पैसे इकट्ठे किए, रुमाल में बाँधे और कहा, “ देख , मिट्टी की चीज़ है, टूट गई | चीज़ें टूटने पर रोते नहीं |”
चीज़ें टूटने पर रोते नहीं ??? यह बात तो मुझे बहुत सालों के बाद समझ आई | उस दिन तो मैं अपनी सब से प्रिय धरोहर के टूटने से खुद भी टूट गई थी |
बहुत दिनों के बाद मुझसे पिता ने पूछा, “ गुड्डी! तुझे नई मुग्गनी ला दें ? अब तो बाज़ार में प्लास्टिक की मुग्गनी भी आ गई है | अब नहीं टूटेगी |
“न! नहीं चाहिए थी मुझे नई प्लास्टिक की मुग्गनी | “ मेरा संक्षिप्त सा उत्तर था |
या तो मैं अपनी प्यारी मुग्गनी को भूली नहीं थी या------ मैं बड़ी हो रही थी |

शशि पाधा




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