शनिवार, 1 दिसंबर 2012

मानस मंथन से -------


अदृश्य


कौन तुम चन्दन से भीगे

सांसों में रम जाते हो?

कौन तुम मन वीणा के

सोये तार बजाते हो ?

कौन तुम ?


धरती जब भी पुलकित होती

तेरे कर ने छुआ होगा,

पुष्प पँखुरी जब भी खुलती

अधर तेरे ने चूमा होगा ।

वायु की मीठी सिहरन में

क्या तुम ही मिलने आते हो ?

कौन तुम ओस कणों में

मोती सा मुस्काते हो ?

कौन तुम ?


मन दर्पण में झाँक के देखूँ

तेरा ही तो रूप सजा है।

नयन ताल में झिलमिल करता

तेरा ही प्रतिबिम्ब जड़ा है।

मेरा यह एकाकी मन

क्या तुम ही आ बहलाते हो?

कौन तुम रातों के प्रहरी

जुगनु सा जल जाते हो

कौन तुम?


रँग तेरे की चुनरी प्रियतम

बारम्बार रंगाई मैंने

पथ मेरा तू भूल न जाये

नयन-ज्योत जलाई मैंने

कभी कभी द्वारे पे आ, क्या

तुम ही लौट के जाते हो?

कौन तुम अवचेतन मन में

स्पन्दन बन कुछ गाते हो?

कौन तुम?


ऎसे तुम को बाँधूं मैं

इस बार जो आयो,लौट न पायो

बंद कर लूं नैंनों के द्वारे

चाह कर भी तुम खोल न पायो

अनजानी सी इक मूरत बन

क्या तुम ही मुझे सताते हो?

कौन तुम पलकों में सिमटे

सपने सा सज जाते हो ?

कौन तुम??


  शशि पाधा
 
अग्नि रेखा
       
कुछ तो कह के जातीं तुम
अनगिन प्रश्न उठे थे मन में
उत्तर रहे अधूरे
मरुथल में पदचिन्हों जैसे
स्वपन हुए पूरे
 
   उलझी जिन रिश्तों की डोरी
    थोड़ा तो सुलझातीं तुम
       कुछ तो कह के जातीं तुम
 
किस  दृढ़ता से लांघ ली तूने
संस्कारों की अग्नि रेखा
देहरी पर कुछ ठिठकीं होंगी
छूटा क्या , क्या मुड़ के देखा ?
       
          खुला झरोखा रखा बरसों
           जाने को जातीं तुम।
                कुछ तो कह के जातीं तुम
 
आकाँक्षायों का पर्वत ऊँचा
चढ़ते चढ़ते सोचा क्या
 जिस आँचल की छाँह पली
उस आँचल का सोचा क्या?
 
 
       ममता की उस गोदी का
        मान तो रख के जातीं तुम
                 कुछ तो कह के जातीं तुम
                  कुछ तो------------
 
 
 
प्रीत तेरी
 
प्रीत तेरी---
   तारों से जड़ी
         यूं सांझ ढली
   बगिया में खिली
         जूही की कली
   उमंग भरी
       यूं हिरणी चली
     मंदिर में कोई
        ज्योत जली
      मोती की लड़ी सी-
           प्रीत तेरी
 
याद तेरी---
    अम्बर में
          यूं मेघ घिरे
    ओस कणों में
       नेह झरे
     भोर किरण
       यूं पांव धरे
         नयनों में
                    मृदु स्वपन पले  
        सावन की झड़ी सी---
               याद तेरी ---------   
 
 
         जोगन
 
मन बनवासी , तन जोगन
अधरों पे नीरव मौन धरे,
जीवन पल यूँ झरते जाते
पतझर में यूँ पात झरे।
 
इच्छायों की गठरी इक दिन
अनचाहे ही बाँधी मैंने ,
अनजानी- अनबूझी सी कोई
साध मन में साधी मैंने
 
       मन बिरवा प्यासा मुरझाया
          किस सावन की आस करे ?
 
मन चाहे इक पंछी बन कर
दूर गगन उड़ जाऊँ मैं,
जगती से सब बंधन तोड़ूँ
लौट कभी आऊँ मैं
 
    मन तो बस पगला बौराया
         मन की पूरी कौन करे ?
 
सुख और दुख की कलियां गूँथी
 
जीवन माल पिरोयी मैंने,
आस निरास के रंग  भिगोये
तन की डार डुबोई मैंने।
 
        विधना नित -नित जाल बिछाये
            मन पंछी सिमटे -सिहरे
 
मन के इस बनवास का जाने
कभी कहीं कोई ठौर तो होगा,
इस जोगन संग अलख जगाये
यहां नहीं, कहीं और तो होगा
 
           नित सपनों में देखूँ सूरत
               आँख खुले तब क्यों बिसरे ?

 
         सृजन
जब रिमझिम हो बरसात
और भीगें डाल और पात
जब तितली रंग ले अंग
और फूल खिलें सतरंग
  
     जब कण -कण महके प्रीत
         तब शब्द रचेंगे गीत
 
 
जब नभ पे हंसता चाँद
और तारे भरते माँग
जब पवन चले पुरवाई
हर दिशा सजे अरूणाई
 
          जब मन छेड़े संगीत
               तब शब्द लिखेंगे गीत
 
जब पँछी करें किलोल
लहरों में उठे हिलोल
जब धरती अम्बर झूमें
और भंवरे कलिका चूमें
 
               जब बन्धन की हो रीत
                   तब शब्द बुनेंगे गीत
 
जब कोकिल मिश्री घोले
पपिहारा पिहु-पिहु बोले
कोई वासंती पाहुन आये
नयनों से नेह बरसाये
 
               जब संग चले मनमीत
                       तब शब्द बनेंगे गीत

                          शशि पाधा
 
  अश्रुमय घन
 
मोती माणक की धरती से
मांगे केवल सुख के कण
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन ?
 
निशि तारों की लड़ियां गिन -गिन
अनगिन रातें बीत गईं,
भोर किरण की आस में मुझ
विरहन की अँखियां भीज गईं।
    कह दो अब कैसे झेलूं
       पर्वत जैसे दूभर क्षण
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन ?
 
स्वपन लोक आलोक खो गया
रात अमां की लौट के आई,
पतवारों सी प्रीत थी तेरी
मझदारों में छोड़  के आई 
    नयनों में प्रतिपल घिरते
       सजल,सघन,अश्रुमय घन 
क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन ?
 
नियति का लेखा मिट पाया
अश्रु-जल निर्झर बरसाया,
निश्वासों के गहन धूम में
अँधियारा पल-पल गहराया
     अन्तर के अधरों पे मेरे
         मौन बैठा प्रहरी बन
 
       क्यों पीड़ा हो गई जीवन धन ?
  
 
शशि  पाधा