सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कंगन --- एक संस्मरण
                                         शशि पाधा


यह अनुभव केवल मेरा नहीं हो सकता | जानती हूँ विश्व की अधिकतर माताएं यही करतीं जो उस दिन मेरी माँ ने मेरे लिए किया | तभी तो कहा भी हैं न “ ईश्वर स्वयं पृथिवी पर नहीं आ सकता , इसीलिए उसने माँ बनाई “ या ऐसा ही किन्हीं अन्य शब्दों में |
मेरे विवाह की तिथि बस जल्दी में तय हो गई थी | होने वाले दामाद फौज में थे, भारत –चीन की सीमायों पर भारत माँ की रक्षा हेतु तैनात थे | बस थोड़ी सी छुट्टी मिली और विवाह तय हो गया | और तो कोई विशेष चिंता नहीं थी क्योंकि समाज में बदलाव लाने की भावना रखने वाले दामाद जी ने साफ शब्दों में कह दिया था “ लडकी केवल अपनी किताबें और अपनी सितार ले कर ही आयेगी |  आप लोग कृपया और कुछ साथ भेजने की सोचें भी न |” यह बात सुखद भी थी और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक भी थी | अत: मेरे माता पिता को दहेज़ की अनगिनित वस्तुएं जुटाने की कोई चिंता नहीं थी |
अब बात पहुँची मुझे देने वाले स्वर्ण आभूषणों तक | हर माँ बाप बच्ची के जन्म लेते ही उसके दहेज़ के विषय में तो अवश्य सोचते होंगे |  मुझे यह अहसास नहीं है क्योंकि मुझे प्रभु ने बेटी की माँ होने का सौभाग्य ही नहीं दिया | मेरे मध्यमवर्गीय माता –पिता ने भी अपने बैंक में कुछ धनराशि तो जमा की होगी | किन्तु यहाँ तक मुझे याद है मुझे हर प्रकार की शिक्षा देने में वे सदा उत्साहित रहे | चाहे वाद- विवाद प्रतियोगिता के लिए मुझे बनारस , चंडीगढ़, देहली जाना हो या सितार वादन प्रतियोगिता के लिए किसी अन्य राज्य में | दोनों शिक्षक थे अत: उनका यही उद्देश्य रहा कि हम बच्चों की प्रतिभा का चहुंमुखी विकास हो |  इन बातों के लिए कभी भी धन का संकोच नहीं हुआ हमारे घर में |
खैर अब तो बात शादी की थी , कोई छोटे-मोटे खर्चे की तो नहीं थी | मेरे माता पिता मुझे आभूषण पसंद करवाने के लिए जम्मू की एक प्रसिद्द दूकान पर ले गये | मैं अपने पाठकों को यह अवश्य बता दूँ कि आकार की दृष्टि से यह दुकान केवल ५ गज चौड़ी और 8 गज लम्बी होगी | पर इनकी विशेषता यह थी कि उस समय के राज घराने के आभूषण इसी दुकान से बनते थे और सुना है कि राजघराने की लडकियां जब अपने ससुराल नेपाल या उदयपुर से आतीं थी तो जेवर केवल इन्हीं से गढ़वातीं थी | यानी पूरे शहर में यह बात मानी हुई थी कि ज़ेवर बनें तो “ हीरू की दूकान से ही बनें |” लोग ज़ेबर देख कर ही पहचान जाते थे कि यह उसी दूकान के हैं |
मेरे माता पिता तो राज घराने के नहीं थे पर बेटी को तो वो उतना ही प्यार करते थे न | अत: मेरे आभूषण भी “ हीरू “ की दूकान से ही बनने तय हुए | अब हीरू जी जिन्हें हम आदर से मामा जी पुकारते थे ( हमारे यहाँ  अपने से बड़े लोगों को किसी न किसी रिश्ते से ही पुकारा जाता था )  एक से एक बढ़कर सुन्दर जड़ाऊ सेट दिखाने शुरू किये | मैं तो बस उनकी चकाचौंध ही देखती रही और कुछ निर्णय नहीं ले पाई | किन्तु एक सेट था जो बार – बार मुझे आकर्षित कर रहा था | मैं उन दिनों बहुत शर्मीली थी , यह बात हीरू मामा जी जान गये थे | उन्होंने बस शीशा सामने रख दिया और मेरे पिता को बातचीत में लगाए रखा | यह शायद उन्होंने मेरी झिझक को देखते हुए किया होगा | इसी तरह एक सेट का तो निर्णय हो गया किन्तु उन दिनों शायद दो तीन से कम नहीं दिए जाते थे |
 माँ ने कहा, “यह जो बेटी को बहुत पसंद है इसका क्या मूल्य है ?” हीरू मामा ने कहा ,” बिटिया को पसंद है तो आप ले जाइए , पैसे का हिसाब बाद में हो जाएगा |”
पिता जी को शायद और भी बहुत काम थे | उन्होंने कहा ,” आप दोनों सेट की कीमत बता दीजिये ताकि हम पैसे देकर ही जाएँ “|
अब हीरू मामा ने सोने का भाव , सेट में जेड नगीनों का भाव जोड़ –जाड के एक छोटी सी पर्ची पर दोनों सेटों की कीमत लिख दी “| मेरी नज़र पड़ी तो मैं घबरा गई | मैंने धीरे से माँ  से कहा,” मुझे इतना भी पसंद नहीं है | और फिर मैं तो अभी पढ़ रही हूँ | मैंने कौन से गहने ही पहनने हैं | एक ही ठीक है |”
मेरे धीर पिता ने भी कीमत देखी और सोच में पड़ गये | क्योंकि उन्हें शायद कितने काम अभी निपटाने थे |
धीमी सी आवाज़ में वो बोले ,” वाह! सेट तो बहुत सुन्दर है किन्तु मूल्य कुछ ज़्यादा है | अच्छा आप इसे रख दीजिये . थोड़ा सोच कर इसके बारे में निर्णय लेंगे | अभी अप केवल सब्जों वाला एक ही सेट दीजिये |  ऐसा कह कर मेरे पिता ने अपनी छतरी उठाई और दूकान की  सीढियाँ उतरने लगे | हीरू मामा जी ने एक सेट डिब्बे में बंद कर दिया और हमें दे दिया | मैं भी अपने पिता के साथ ही दरवाज़े की ओर जाने लगी | तभी मैंने देखा कि मेरी माँ पीछे मुडीं | उन्होंने अपने हाथ का सोने का कंगन खोल कर काउंटर पर रखा और बड़े संयत स्वर में कहा ,”
“भ्राजी, इसे रख लीजिये और बिटिया के दोनों सेट बाँध दीजिये | बाकी का हिसाब – किताब शादी के बाद कर लेंगे |”
उन्होंने कब सेट उठाये, वो कब दूकान से उतरीं , मुझे अभी तक कुछ याद नहीं आता | क्योंकि उस समय तो मैं अपने पिता के साथ दुकान से उतर चुकी थी | किन्तु अब याद करती हूँ तो सोचती हूँ कि मेरी माँ अध्यापिका थीं, मेरी शादी के बाद भी जब तक वो स्कूल जाती रहीं, एक हाथ में घड़ी और एक हाथ में एक कंगन ही पहनती रहीं | उनका दूसरा कंगन एक विशेष रूप में मेरे पास जो है और फिर वो मेरी पोती के पास होगा और फिर ------

शशि पाधा १८ सितम्बर २०१३  


अमेरिका की वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुधा ओम ढींगरा द्वार लिखा आलेख जो "वर्तमान साहित्य में प्रकाशित हुआ है | इसमें अमेरिका में रहने वाले कवियों की रचनात्मकता पर उनके विचार -------

अमेरिका की कविता: काव्य रसों का कोलॉज
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अमेरिका की कविता: काव्य रसों का कोलॉज
सुधा ओम ढींगरा


अमेरिका की धरती, हिन्दी और साहित्य के लिए अब बंजर नहीं रही है। हिन्दी के कई साधकों ने अपनी कलम का हल बनाकर इसकी धरती गोड़ी है, सपनों के बीज डाले हैं और ममता की बेलें बोई हैं। कविताओं, कहानियों और उपन्यासों की अच्छी ख़ासी फसल तैयार की है। भिन्न-भिन्न कविताओं के फूल रोज़ खिलते हैं। हिन्दी साहित्य में इनकी खुशबू ज़ोर -शोर से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है।

जीवन की व्यस्तता में भी अपनी कल्पनाशक्ति की तीव्रता के साथ भावनाओं से जुड़े रहना भी अपने आप में एक कला है। परिवेश के बदलाव के साथ-साथ भीतर का बदलाव और समाज को बदलने के संघर्ष से जूझ रही हैं यहाँ की अधिकतर कविताएँ।


आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है। सृष्टि के पदार्थ या व्यापार-विशेष को कविता इस तरह व्यक्त करती है मानो वे पदार्थ या व्यापार-विशेष नेत्रों के सामने नाचने लगते हैं। वे मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं। उनकी उत्तमता या अनुत्तमता का विवेचन करने में बुद्धि से काम लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। कविता की प्रेरणा से मनोवेगों के प्रवाह ज़ोर से बहने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने का एक उत्तम साधन है। यदि क्रोध, करूणा, दया, प्रेम आदि मनोभाव मनुष्य के अन्तःकरण से निकल जाएँ तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। कविता हमारे मनोभावों को उच्छवासित करके हमारे जीवन में एक नया जीव डाल देती है। हम सृष्टि के सौन्दर्य को देखकर मोहित होने लगते हैं। कोई अनुचित या निष्ठुर काम हमें असह्य होने लगता है। हमें जान पड़ता है कि हमारा जीवन कई गुना अधिक होकर समस्त संसार में व्याप्त हो गया है।


यहाँ के कवियों ने भी बस अपनी संवेदनाओं को, भावनाओं को विश्व में व्याप्त किया है।


कवयित्री रेखा मैत्र के दस कविता संग्रह, पलों की परछाइयाँ, मन की गली, उस पार, रिश्तों की पगडंडियाँ, मुट्ठी भर धूप, बेशर्म के फूल, ढाई आखर, मोहब्बत के सिक्के, बेनाम रिश्ते और यादों का इन्द्रधनुष हैं । इनकी कविताओं का मूल स्वर कहीं अद्वैतवाद का दर्शन समेटे है, कहीं रिश्तों की पड़ताल करता प्रतीत होता है, कहीं विदेश की बड़ी -बड़ी अट्टालिकाओं से भरमाया लगता है और कहीं कविता अंतरद्वंद्व से गुज़रने का भाव भर है और तब अपने आपको पहचान पाना भी दुश्वार हो जाता है। आज के समय में अपने अस्तित्व की खोज ही अपने आप में एक अनूठा संघर्ष है। पिचकारी कविता के अंतर्गत पिचकारी का प्रयोग दिल को चीर जाता है तुम्हारी ढेरों पिचकारियाँ / अब भी वैसी ही पड़ी है / मैं उनसे तुम्हारी / भोजन नली में / तरल भोजन दिया करती/ और तुम कहा करते/ कि इसे सँभालकर रखना/ होली पर इनसे रंग खेलेंगे ! रेखा मैत्र कल्पना की दुनिया से यथार्थ के कठोर धरातल पर ले आती हैंकहती हैं- ''जब आस -पास का परिवेश मुझे हिला जाता है तो हरसिंगार सी झरती हैं कविताएँ। वेदना, खुशी, प्रवास सब मेरी कविता में घुल मिल जाते हैं। रेखा मैत्र के बिम्ब इनकी अभिव्यक्ति की शक्ति है।



कहानीकार, उपन्यासकार और कवयित्री सुदर्शन प्रियदर्शिनी के चार काव्य संग्रह हैं- शिखंडी युग, बराह, यह युग रावण है, मुझे बुद्ध नहीं बनना। सुदर्शन जी की कविताओं के प्रतीक इनकी पहचान हैं। आलोचक डॉ. कमल किशोर गोयनका इनकी कविताओं के स्वर का यूँ वर्णन करते हैं-''कवयित्री अपनी काव्य सृष्टि में हिन्दू मिथक पात्रों का प्रयोग करती है और कविताओं को अर्थवान बनाती है। यह एक प्रवासी मन का सांस्कृतिक बोध है; जो कई कविताओं में दिखाई देता है।'' सुदर्शन प्रियदर्शिनी अपने काव्य लेखन के बारे में कहती हैं-''कमोवेश हर जीवन में विसंगतियाँ अपना डेरा डालती हैं। कोई हरता है और कोई उन्हें जीवन की चुनौतियाँ मान कर डटा रहता है। मैंने चुनौतियों के समक्ष घुटने न टेक कर उन्हें स्वीकारा है और जूझने की कोशिश की है। टूट-फूट बहुत होती है-अपनी भी और आत्मा की भी-फिर भी मुँह नहीं मोड़ा है। ऐसे में मेरी कविता हाथ-पकड़ कर, उन घावों को सहला देती है। कहीं ममता जैसा साया बन कर बचा लेती हैं तो कहीं मित्र बन कर कन्धा देतीं हैं। कविता उन तूफ़ानों से बचाती है जो ऊपर से नहीं अंदर से गुज़रते हैं।'' इनकी कविताएँ पाठकों को संवेगों के उच्छवास में जकड़ लेती हैं। कुंती द्वार पर आई / दस्तक भिजवाई / कोई आवाज़ नहीं आई / सूरज बेगाना हो गया…. रोज़ सिसकती है कुंती/ रोज़ मंदोदरी का क्रंदन/ नया कुछ भी नहीं/ बस सीता का फिर हरण हो गया। सुदर्शन जी के प्रतीक बाँध लेते हैं।



कहानीकार, कवयित्री अनिल प्रभा कुमार का कविता संग्रह तो हाल ही में आया है-उजाले की कसम। अनिल जी की कविताएँ दिल को छूती हैं तथा साथ ही क्रांति का बिगुल बजाती भी महसूस होती हैं। अजित कुमार लिखते है -''उस कारण को टोहने-टटोलने के क्रम में नारी-जीवन की ऐसी अनेक मार्मिक छवियों से मैं परिचित हुआ, जिनकी मात्र किताबी जानकारी ही अब तक हो सकी थी। यह कि शैशव से लेकर वार्धक्य तक फ़ेयर सेक्सको रिझाने-लुभाने,दबने-सहमने शंकित-पीड़ित रहने के लंबे सिलसिलों से गुज़रने काअनफ़ेयर दबावझेलना पड़ता है, और अपनी स्वाभाविक ममता-कोमलता  बचाये रखने की जद्दोजेहद उसे टूट-टूट कर भी अपने आप को जोड़े रखने के कितने सबक सिखाती हैयह समूची कहानी कविताओं में सीधे-सरल-सच्चे ढंग से पिरो दी गई है।'' अनिल प्रभा कुमार की भाषा सरल ज़रूर है पर विसंगतियों और विद्रूपताओं पर कटाक्ष करती, स्त्री विमर्श के तीखे तेवर समेटे हैं। इनकी कहनियों से अधिक कविताएँ स्त्री की पक्षधर हैं। माँओं, गान्धारियों, नारियो/ खोल दो / आँखों पर बँधी इस पट्टी को। झुलसा दो/ उन घिनौने हाथों को/ जो बढ़ रहे हैं / नोचने तुम्हारे अंश को।


कहानीकार, कवयित्री, पत्रकार, सुधा ओम ढींगरा के धूप से रूठी चाँदनी, तलाश पहचान की, सफ़र यादों का, तीन काव्य संग्रह हैं। डॉ.आज़म लिखते हैं-''इनकी कविताओं में शब्दों के जब झरने बहते हैं, तो छंद मुक्त कविता में भी एक संगीत और लय का आभास  होने लगता है। रोज़ाना के हँसने-हँसाने वाली रोने -रूलाने वाली स्थितियों को जहाँ शब्दों का पहनावा दिया गया है, वहीं ठोस फ़िलासफ़ी पर आधारित रचनाएँ भी हैंजिनको कई बार पढ़ने को जी चाहता है । लेखनी में इतनी सादगी है कि हम इसके जादू के प्रभाव में आ जाते  हैं। विदेशों में रहने  वालों का सृजन महज शुगल है, महज शौक है, जिस में साहित्य नदारद रहता है, इस तरह के पूर्वाग्रहों के जालों को दिमाग़ से साफ करने की क्षमता है सुधा जी की रचनात्मकता में।'' डॉ. आज़म समग्र काव्य पर लिखते हुए कहते हैं-''सुधा ओम ढींगरा की कविताओं में विविधता है, रोचकता है, जीवन के हर शेड मौजूद  हैं। जमाने का हर बेढंगापन निहित है । पुरुषों का दंभ उजागर है, महिला का साहस दृष्टिगोचर है। दुनिया भर में घटित होने वाली मार्मिक घटनाओं पर भी पैनी नज़र रखी हुई है, कई कविताएँ दूसरे देशों में  घटित घटनाओं से उद्वेलित होकर लिखी हैं । जैसे ईराक युद्ध में नौजवानों के शहीद होने पर लिखी कविता हो  या पकिस्तान की बहुचर्चित मुख्तारन माई को समर्पित कविता, इस सत्य को उजागर करता है कि सहित्यकार वही है जो वैश्विक हालात पर न सिर्फ दृष्टि रखे, बल्कि उद्वेलित होने पर कविता के माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सके । इस तरह सुधा ओम ढींगरा स्त्री विमर्श के साथ एक ग्लोबल अपील रखने वाली कवयित्री हैं।''

कविता जिनकी साँसें हैं और काव्य की हर विधा में लिखने वाली अनिता कपूर के बिखरे मोती, कादम्बरी, अछूते स्वर, ओस में भीगते सपने एवं साँसों के हस्ताक्षर, काव्य-संग्रह हैं और दर्पण के सवाल, हाइकु-संग्रह है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमाँशु' लिखते हैं-''अनिता कपूर जी की कविताएँ मुक्त छंद में होते हुए भी अपनी त्वरा और गहन संवेदना के कारण सबसे अलग नज़र आती हैं। इनकी कविताओं में प्यार और समर्पण केवल भावावेश के क्षण बनने से इंकार करते हैं, सच्ची आत्मीयता की तलाश जारी है, लेकिन केवल अपनी शर्तों पर।'' सहजता और सरलता लिए छोटी-छोटी कविताएँ हृदय में रमती जाती हैं। अनूठे बिम्बों ने कविताओं को एक अलग अस्तित्व, पहचान और स्वरूप दिया है। हम ओढ़नी के फटे हुए / टुकड़ों की तरह मिले, कोख के बही खातों में एक आग सी लग जाती है , चाँदनी के घुंघरु बाँधे/ इठलाती रक्क्सा सी हवाएँ आदि। जग का दर्द और कवयित्री की पीड़ा आत्मसात होकर कसक, तड़प, अनुनय, विनय, प्यार में बदल गए जो कविताओं में बिखरा पड़ा है। किसी भी रस की अभिव्यक्ति में नारी के आत्मसम्मान और स्वाभिमान का साथ नहीं छूटा। बिम्बों का तीखापन कवयित्री के कटु अनुभवों की छवि देता महसूस होता है।

Wordsworth defined poetry as "the spontaneous overflow of powerful feelings." वर्ड्सवर्थ की ये पंक्तियाँ आशु कवि व गीतकार राकेश खंडेलवाल पर सटीक बैठती हैं। अंतर्जाल पर उन्हें गीतों का राजा कहा जाता है और वैराग से अनुराग तक, अमावस का चाँद, अँधेरी रात का सूरज, कविता संग्रह हैं तथा धूप गंध चांदनी, सम्मिलित कविता संग्रह है। छंद जिनकी कलम पर चुपके से आ बैठते हैं और सहजता से कागज़ों पर उतरते जाते हैं । ईकविता समूह की त्रिमूर्ति में से एक हैं आप। कवि-सम्मेलनों में गीतों के बादशाह कहलाए जाने वाले कवि राकेश खंडेलवाल जी कहते हैं-''भाव और विचार अपने लिये शब्द और रास्ता स्वयं ही तलाश लेते हैं, परन्तु मेरे सामने प्रारंभ से ही यही समस्या रही कि भाव जब भी मन में उठते हैं वह स्वत: एक लय में बँधे हुए उठते हैं । कब किस धुन में वे स्वयं ढल जाते हैं इस पर मेरा अपना नियंत्रण नहीं।'' राकेश जी की उपमाओं का अंदाज़ निराला है।


छोटी-छोटी कविताएँ, नज़्में लिखने वाले अनूप भार्गव, ईकविता समूह के संचालक हैं और लिखते हैं- ''न तो साहित्य का बड़ा ज्ञाता हूँ/ न ही कविता की /भाषा को जानता हूँ/ लेकिन फ़िर भी मैं कवि हूँ/ क्योंकि ज़िन्दगी के चन्द/ भोगे हुए तथ्यों/ और सुखद अनुभूतियों को/ बिना तोड़े मरोड़े/ ज्यों की त्यों/ कह देना भर जानता हूँ।'' यथार्थ और सत्य को बुनती, घड़ती इनकी कविताएँ सामाजिक परिवर्तन की बात भी कहती हैं और दर्शन से भीगे शब्द हृदय को छूते, बुद्धि को झकझोरते हैं। कवि सम्मेलनों में कविता कहने के निराले अंदाज़ के कारण ख़ासे प्रसिद्ध हैं और चेतना जगाती कविताओं के अंदाज़ भी निराले हैं।


प्रतिभा सक्सेना का उत्तर कथा- खंड काव्य है। लोक रंग के गीतों, काँवरिया, नचारियाँ के लिए प्रतिभा जी बहुत प्रसिद्ध हैं। आदिकालीन कवि विद्यापति के बाद हिन्दी साहित्य में नचारियाँ नहीं दिखाई देतीं है और आपने इस तरफ़ पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। इनकी कविताओं की परिष्कृत भाषा है, जो आज के युग में कम ही कविताओं में देखने को मिलती है। कविताओं में हर रस का स्वर और स्वाद मिलता है और छायावादी युग का आनन्द भी। नचारियाँ का उदहारण देखें-वाह, वासुदेव, सब लै के जो भाजि गये,/ कहाँ तुम्हे खोजि के वसूल करि पायेंगे! /एक तो उइसेई हमार नाहीं कुच्छौ बस, /तुम्हरी सुनै तो बिल्कुलै ही लुट जायेंगे!


छायावादी युग में ही ले जाती हैं शशि पाधा की कविताएँ। पहली किरण, मानस मंथन, अनंत की ओर तीन कविता संग्रह हैं कवयित्री शशि जी के और कविता, गीत, नवगीत, दोहा, हाइकु यानी काव्य की हर विधा में आप लिखती हैं। महादेवी की परछाईं लगती हैं आप की कविताएँ। शशि जी कहती हैं-''मेरी रचनाओं का मूल स्वर है "प्रेम"। यह प्रेम चाहे माँ का अपनी संतान के प्रति हो, पति- पत्नी का हो, बच्चों का माता-पिता के प्रति हो या मित्रों का परस्पर स्नेह हो। मैं प्रेम को केवल दैहिक, लौकिक प्रेम नहीं मानती बल्कि हर रिश्ते में, हर परिस्थिति में प्रकृति के लघुतम कण में भी  जो लगाव / जुड़ाव होता है मैं उस प्रेम की बात कर रही हूँ। मुझे प्रकृति के प्रत्येक क्रिया कलाप में प्रेम की झलक दिखाई देती है। ना जाने कितने रूपों में प्रकृति हमें प्रेम के सुन्दर, सात्विक और कल्याणकारी रूप से परिचित कराती है। प्रेम मेरे जीवन दर्शन का बीज मंत्र है।'' शशि पाधा की कविताएँ प्रेम के कई सोपान पार कर गूढ़ रहस्य खोलती जाती हैं।


शकुंतला बहादुर की सशक्त भाषा और प्रगाढ़ शब्दों से कविता कहती हैं। प्रहेलिकाएँ बहुत सुंदर लिखतीं हैं। उपमाओं के साथ इनका नॉसटेल्जिया भी एक कहानी कहता है। हर रंग में अपनी बात कहतीं हैं। कई कविताओं में रहस्यवाद की झलक भी मिलती है। एक प्रहेलिका का आनन्द लें- नर-नारी के योग से, सदा जन्म पाती / पैदा होते ही तो मैं, संगीत सुनाती / पल भर का जीवन मेरा/ मैं तुरत लुप्त हो जाती / जब जब मुझे बुलाए कोई/ मैं फिर फिर आ जाती। (चुटकी-अँगूठा और उँगली का योग)

Emily Dickinson said, "If I read a book and it makes my body so cold no fire ever can warm me, I know that is poetry.'' युवा कवयित्री रचना श्रीवास्तव की कविताएँ ऐसा ही आभास देती हैं, क्षणिकाएँ, हाइकु, नवगीत, सेदोका, तांका, चोका सीधी सरल भाषा में पाठकों के मन को झकझोर जाते हैं। बिम्ब, उपमाएँ और अनूठे प्रतीक प्रयोग करके अपनी बात कहती हैं। मन के द्वार हज़ार, अवधी में हाइकु संग्रह है रचना का। क्षणिका के झलक देखें - बच्ची के मुट्ठी में / माँ का आँचल देख / अपनी हथेली सदैव / ख़ाली लगी।

प्रेम पर लिखने वाली उभर रही युवा कवयित्री शैफाली गुप्ता कहीं महाभारत के अभिमन्यु के साथ तुलना कर विरह की आग में जलते हुए भी अपने प्रेमरूपी चक्रव्यूह में जकड़ी जाती है और कहीं आस्तित्व की तलाश में न जाने जीवन के कितने बहतरीन पल खो देती है। शैफाली गुप्ता ना केवल हिन्दी कविताओं में दक्ष है, अंग्रेज़ी कविताएँ लिखने में भी अभिरुचि रखती हैं।


सशक्त युवा हस्ताक्षर अभिनव शुक्ल, जिनकी कविताएँ मंच, ऑनलाइन और पुस्तकों में धूम मचाती हैं, विशेषतः वे कविताएँ जो प्रवासी स्वर लिए हैं। 'पारले जी' और 'लौट जाएँगे' कविताएँ पाठकों को रुला देती हैं। अभिनव लिखते हैं -अलार्म बज बज कर / सुबह को बुलाने का प्रयत्न कर रहा है / बाहर बर्फ बरस रही है / दो मार्ग हैं / या तो मुँह ढक कर सो जाएँ / या फिर उठें / गूँजें और 'निनाद' हो जाएँ। अमेरिका की पतझड़ पर लिखते हैं -लाल, हरे, पीले, नारंगी, भूरे, काले हैं / पत्र वृक्ष से अब अनुमतियाँ लेने वाले हैं / मधुर सुवासित पवन का झोंका मस्त मलंगा है/ पतझड़ का मौसम भी कितना रंग बिरंगा है। अभिनव अनुभूतियाँ और पत्नी चालीसा आपकी पुस्तकें हैं और हास्य दर्शन-1 एवं 2 आपकी काव्य सीडी हैं।


युवा कवि अमरेन्द्र कुमार कहानीकार, व्यंग्यकार और ग़ज़लकार भी हैं। 'अनुगूँज' कविता संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आपकी कविताएँ दिमाग़ पर ज़ोर डालती हैं और सोचने पर मजबूर करती हैं। प्रकृति के चित्रण की खूबसूरती देखें-रात ने लगाई / एक बड़ी सी  बिंदी / चन्द्रमा की ओर जूडे को सजा लिया / अनगिनत तारों से। जाने से पहले / उसने दिन के माथे पर / सूरज का टीका लगा दिया। यथार्थ से लिपटी एक कविता देखें -छोटे से छोटे / अथवा बड़े से बड़े / पुरस्कारों को देने / के साथ जो वक्तव्य / जारी किया जाता है / उसे सुन-पढ़कर / कई बार लगता है / कि वह सफाई है / अथवा आत्म-ग्लानि / या फिर /एक प्रकार का अपराधबोध।


अमेरिका का बरगद का वृक्ष वेद प्रकाश 'वटुक की, बंधन अपने देश पराया, क़ैदी भाई बंदी देश, आपातशतक, नीलकंठ बन न सका, एक बूँद और, कल्पना के पंख पा कर, लौटना घर के बनवास में, रात का अकेला सफ़र, नए अभिलेख का सूरज, बाँहों में लिपटी दूरियाँ, सहस्त्र बाहू अनुगूंज के अतिरिक्त 23 काव्यसंग्रह और काव्यधारा 133 खंड ( 40 हज़ार कविताएँ ) हैं। आपकी कलम ने विश्व भर में अन्याय और युद्धों के विरुद्ध शब्द उड़ेले हैं।'वटुक' जी ने १९७१ से पूर्व अमेरिका में हो रही असमानता तथा वियतनाम युद्ध के विरोध में किये जा रहे संघर्ष के पक्ष में अपनी व्यथा व्यक्त की है । मानवीय अधिकारों को समर्पित कविताएँ लिखी हैं । भारत के १८ महीने के आपातकाल में अधिनायकवाद के विरोध में अनेक कविताओं का सृजन किया । हिन्दी साहित्यकारों के प्रख्यात शोधार्थी श्री कमल किशोर गोयनका जी के अनुसार प्रवासी भारतीयों में वटुक जी अकेले ही ऐसे हिन्दी कवि हैं, जिन्होंने आपातकाल के विरोध में हज़ारों कविताएँ लिखीं । स्वर्गीय कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' ने इनके 'आपातशतक' की प्रशंसा करते समय लिखा था:"काव्य का ऐसा समापन तो गुरुदेव भी नहीं कर सकते थे।''


अमेरिका की काव्य बगिया का पीपल का पेड़ गुलाब खंडेलवाल के, सौ गुलाब खिले, देश विराना है, पँखुरियाँ गुलाब की के अतिरिक्त पचास से ऊपर काव्यग्रंथ हैं। आपने गीत, दोहा, सॉनेट, रुबाई, ग़ज़ल, नई शैली की कविता और मुक्तक, काव्यनाटक, प्रबंधकाव्य, महाकाव्य, मसनवी आदि के सफल प्रयोग किए हैं; जो पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी द्वारा संपादित गुलाब-ग्रंथावली के पहले, दूसरे, तीसरे, और चौथे खंड में संकलित हैं तथा जिनका परिवर्धित संस्करण आचार्य विश्वनाथ सिंह के द्वारा संपादित होकर वृहत्तर रूप में पुनः प्रकाशित हुआ है।

इनके अतिरिक्त ग़ज़ल विधा में अंनत कौर, धनंजय कुमार, ललित आहलूवालिया, कुसुम सिन्हा, देवी नागरानी ने धड़ल्ले से ग़ज़ल प्रेमियों को अपनी ग़ज़लें सुनाई हैं। इससे पहले कि अमेरिका हड्डियों में बसे अंजना संधीर भारत लौट गईं। सुषम बेदी, गुलशन मधुर, अर्चना पंडा, डॉ. कमलेश कपूर, कल्पना सिंह चिटनिस, किरण सिन्हा, बीना टोढी, मधु महेश्वरी, रजनी भार्गव, राधा गुप्ता, रानी सरिता मेहता, रेणू 'राजवंशी' गुप्ता, लावण्या शाह, विशाखा ठाकर 'अपराजिता', कुसुम टन्डन, इला प्रसाद, नरेन्द्र टन्डन, घनश्याम गुप्ता, हरि बाबू बिंदल और राम बाबू गौतम आदि कई कवि- कवयित्रियाँ हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं।


शशि पाधा