गुरुवार, 12 नवंबर 2020

 

https://danceglimpses.wordpress.com/2019/01/13/the-light-as-mother-new-perspectives-in-kathak-harpreet-kaur-jass/

सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

 


                                           कोरोना काल और बदलती जीवन शैली

                                                        शशि पाधा

परिवर्तन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है समय समय पर प्रकृति भी अपना रूप बदलती है । इस चराचर जगत में हर प्राणी परिस्थतियों के अनुसार अपने आप को ढाल लेता है मनुष्य में भी परिवर्तन की प्रवृति प्रकृति के अनायास अनुकरण से ही आई है मानव जाति की प्रगति के लिए समयानुसार परिवर्तन एक आवश्यक माप दंड है लेकिन आज मनुष्य की स्थिति का कुछ और ही रूप-रंग है इस वैश्विक महामारी में कोरोना के प्रकोप से बचने के लिये मनुष्य की जीवन शैली में जो परिवर्तन आया है वे परिस्थति वश है ऐसा जैसे कोई अद्भुत, अदृश्य सूत्रधार जीवन के रंगमंच पर छड़ी घुमा कर निर्देश दे रहा हो कि ऐसा ही करो, ऐसे ही जियो यही लाभकारी भी होगा और स्वस्थ जीवन के लिए रामबाण भी

कोरोना काल में जैसे ही लॉकडाउन की स्थति आई, मनुष्य की जीवन शैली में भी बहुत तेजी से बदलाव आ गया उसकी दिनचर्या बिल्कुल बदल गई । इस महामारी से पहले जीवन सुनियोजित,सुनिश्चित तरीके से चल रहा था उसका हर कार्य निश्चित समय पर होता था। परिवारों ने, औद्योगिक कम्पनियों ने, शिक्षा संस्थानों ने, वैज्ञानिकों ने अपने कार्यक्रमों की योजनाएँ निर्धारित कर ली थीं किन्तु लॉकडाउन में पूर्व की सारी व्यवस्थाएं एवं परिस्थितियाँ बदल गई हैं। इस भयंकर महामारी के प्रभाव से लोगों की व्यवहारिक, मानसिक और सामजिक व्यवस्था अछूती नहीं रही है ।

 वायरस के प्रकोप से बचने के लिए प्रत्येक प्राणी को अपना दृष्टिकोण और व्यवहार में बहुत बड़ा परिवर्तन लाना पड़ा है । भारतीय लोग हाथ जोड़ कर नमस्ते के साथ साथ एक दूसरे के गले मिल कर या पैर छू कर अपने करीबी रिश्तेदारों के प्रति अपना आदर और स्नेह प्रकट करते रहे हैं । किन्तु समय की माँग यह करती है कि दो फीट दूर रह कर केवल हाथ जोड़ कर ही अभिवादन कर लिया जाए। भारतीय घरों में प्रवेश करने से पहले जूते आंगन में या मुख्य द्वार के बाहर खोल कर जाने की प्रथा थी । फिर धीरे धीरे यह अनिवार्य नियम लुप्त होता चला गया । अब हर कोई इस व्यवहार में सचेत हो गया है । बाहर की चप्पल-जूते घर के अंदर नहीं आने पर फिर से जोर दिया जा रहा है ।

कोरोना काल में सब से अधिक बदलाव आया है नौकरी पेशा लोगों में । लॉकडाउन के दौरान लाखों-करोड़ों लोग घर से ही काम कर रहे हैं। इस दौरान मीटिंग, प्लानिंग से लेकर अपने सहकर्मियों के साथ बातचीत, चर्चा वगैरह भी वीडियो कॉल के जरिए या अन्य ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के जरिए हो रहा है। तकनीकी कठिनाइयों के कारण कुछ लोगों को काम समाप्त करने में कठिनाई होती होगी लेकिन इस क्षेत्र में भी धीरे धीरे बदलाव आ रहा है । घर से काम करने से लोगों के समय की बचत हो रही है । दफ्तरों के खर्चों में भी कमी हो रही है । सम्भावना यही है कि अब घर में लैप टॉप की सहायता से काम काज करने में काम करने की क्षमता बढ़ जायेगी ।

 लॉकडाउन से पहले लोग पार्क में आराम से बैठ कर सुख दुःख बाँटते थे,, हँसी-ठहाके सुनाए पड़ते थे । अब लोगों का जीवन घर की चारदीवारी तक ही सीमित रह गया है । बच्चों के व्यायाम और खेलकूद पर भी बहुत प्रभाव पड़ा है। अब माँ-बाप को बच्चों के लिए घर के अंदर ही खेलने के तरीकों के विषय में सोचना पड़ता है । बच्चों को बाहर न जाने के लिए समझाना कठिन हो जाता है । बच्चे तो कोमल होते हैं । न जाने उनके कोमल हृदय और मस्तिष्क में हर चीज़ की मनाही का क्या दुष्प्रभाव पड़ता होगा । हमें इस विषय में बहुत सचेत रहने की भी आवश्यकता है ।

दुकानदारी, व्यवसाय एवं उद्द्योग धंधे हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग हैं । उपभोक्ताओं को तो केवल सुविधाओं की कमी का आभास हो रहा होगा लेकिन ज़रा सोचिए जिन परिवारों का जीवन ही इन छोटे-बड़े व्यवसाओं पर ही निर्भर है और जो लोग आर्थिक दृष्टि से केवल दूकान, रेढ़ी या गुमटी के सामान को बेच कर ही अपने परिवार का पेट भरते होंगे, उनके साथ क्या बीत रही होगी । लेकिन इसके साथ ही लोगों का सेवा भाव और उपकारी पक्ष भी सामने आया है । धार्मिक स्थानों पर लंगर लग रहे है, स्वयंसेवी संस्थाएँ अभावग्रस्त लोगों तक राशन पहुँचा रही हैं । यहाँ पर यह भी कहना उचित होगा कि लोगों में भी कम में निर्वाह करने की प्रवृति जाग उठी है । जो है, जितना है, उतने में ही संतुष्टि करनी होगी और यह आदत सुखमय जीवन की द्योतक होगी ।

कोरोना संकट के बाद शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा प्रणाली का स्वरूप भी बदल जाने की संभावना है । शिक्षा के क्षेत्र में ई -लर्निंग का भी ज्यादा इस्तेमाल होने की संभावनायें होंगी। इसके लिए लोगों को अधिकाधिक तकनीकी ट्रेनिंग की आवश्यकता पड़ेगी ।विद्यार्थियों को अधिक से अधिक लैप टॉप की सुविधा दिलवाना, गाँवों-गाँवों में इन्टरनेट के केंद्र खोलना शिक्षा संस्थानों और सरकार के लिए प्राथमिकता का विषय होगा।

इस महामारी के फलस्वरूप शादी-ब्याह और सामूहिक आयोजनों के स्वरूप में बहुत बड़ा बदलाव आने वाला है । इसके संक्रमण से बचने लिए ऐसे पारिवारिक या सामाजिक समारोहों में जाने में भी कुछ नियम और कुछ सीमाएँ निर्धारित की गई हैं । इससे कई लाभ होंगे । खर्चा तो कम होगा साथ में अपव्यय से भी छुटकारा होगा । बहुत से मध्यमवर्गीय परिवार जिन्हें केवल समाज या लोकलाज के कारण लाखों का धन इन आयोजनों में लुटाना पड़ता था, शायद उन्हें कुछ राहत मिले । 

कोरोना काल में और उसके बाद के जीवन में स्वास्थ्य सेवाओं के ढाँचे और कार्यप्रणाली में सकारात्मक बदलाव आने की संभावनाएं बढ़ रही हैं।  सरकारी अस्पतालों की दशा भी तेजी से सुधरेगी । प्राइवेट अस्पतालों व नर्सिग होम की गति मंद होगी। सरकारी अस्पतालों की दयनीय स्थिति के कारण लोग प्राइवेट डॉक्टरों के पास या प्राइवेट अस्पतालों में जाने को विवश हो जाते हैं । हो सकता है इस महामारी के भयावह प्रभाव से इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली में भी कुछ परिवर्तन आए ।

इस कामकाजी जिन्दगी में लोगो ने प्रकृति के सौन्दर्य को पूरी तरह नकार सा दिया था । किन्तु लॉकडाउन के समय में  प्रकृति पूर्ण सौन्दर्य के साथ धरती पर लौट आई है । जिन सुंदर पशु पक्षियों के साथ मानव ने कोई नाता नहीं रखा था, वे पुन: बागों में, गलियों में ,सड़कों पर स्वछन्द विचरण करने लगे हैं । शिवालिक की पहाड़ियों ने मीलों दूर मैदानों में रहने वाले लोगों को दर्शन दिए हैं । नई पीढ़ी ने इतना निर्मल और नीला आकाश शायद पहली बार देखा है । यमुना का जल वर्षों बाद इतना साफ़ दिखाई दे रहा है । अगर बुद्धिमान मानव इन संकेतों से यह सीखे कि प्रकृति भी शायद मानव जाति से वर्षों से रूठी थी । वे भी खुली हवा में जीने का अधिकार मांग रही थी जो मानव ने उससे छीन लिया था ।

वर्षों से रोज़गार के लिए युवा वर्ग गाँवों से शहरों की ओर पलायन कर रहा था । इसका मुख्य कारण यह भी था कि गाँवों में जीवन यापन के साधन सिमटते चले जा रहे थे । अब चूँकि परिस्थिति वश लोग फिर से गाँवों की ओर लौट रहे हैं तो सरकार भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को और मजबूत करने में ठोस कदम उठायेगी । आत्मनिर्भरता के लिए कुटीर उद्योग एवं स्वदेशी उत्पादन में उन्नति के मार्ग खुलेंगे ।जब अच्छा जीवन स्तर अपने घर-गाँव में ही लोगों को उपलब्ध होगा तो कौन अपने खेत या घर को छोड़ कर शहर की ओर पलायन करेगा।

पूरे विश्व को इस महामारी की चपेट में देख कर मानव जाति हताश सी होने लगी थी । क्यूँकि कहीं से भी ऐसा समाचार नहीं आ रहा था कि इस का अंत होने वाला है । ऐसी परिस्थति ने लोगों को अपने भीतर झाँकने का अवसर दिया है । परिवारों में सद्भाव, आपसी मेलजोल बढ़ा है । और आशा की जा रही है कि हर कोई सद्भावना के रास्ते पर चलते रहने के लिए तत्पर है ।

वेदों में लिखा मन्त्र है ---सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्--- हम सब की ईश्वर से यही प्रार्थना है कि प्रभु सम्पूर्ण चराचर जगत को इस भयंकर वैश्विक विपदा से मुक्त कराए ।

शशि पाधा

Email: shashipadha@gmail.com

 

 

रविवार, 23 अगस्त 2020

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

Setu �� सेतु: संस्मरण: दृश्य–संवाद–पात्र

Setu �� सेतु: संस्मरण: दृश्य–संवाद–पात्र: शशि पाधा - शशि पाधा मेरे मध्यवर्गीय माता पिता के घर में प्रत्येक वस्तु अपने स्थान पर करीने से लगी रहती थी। छोटा सा आँगन, गुलाब-गेंदा ...

गुरुवार, 4 जून 2020

बहुत बहुत बधाई सुंदर ग़ज़ल के लिए ।

शशि पाधा

सोमवार, 23 मार्च 2020


अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों----
            शशि पाधा



सैनिक पत्नी होने के नाते मुझे लगभग तीन वर्ष फ़िरोज़पुर छावनी में रहने का अवसर मिला | वहाँ रहते हुए जो अनुभव मेरे मन मस्तिष्क में अमिट चिह्न छोड़ गए हैं उनमें से सब से अनमोल था मेरा बार बार शहीद भगत  सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि पर जाकर पुष्पांजलि अर्पित करना | जो भी मित्र, पारिवारिक सदस्य, वरिष्ठ सैनिक परिवार फ़िरोज़पुर आता, हम उन्हें इस समाधि स्थल पर अवश्य ले जाते| पंजाब राज्य में बहने वाली पांच नदियों में से सतलुज नदी के किनारे बसे हुसैनीवाला गाँव में बनी झील के किनारे समाधि बनी हुई है | इस स्थान से भारत-पाक सीमा एक किलोमीटर दूर भी नहीं है | जो भी लोग हुसैनीवाला सीमा पर भारत-पाक की परेड देखने आते हैं , वे इस महत्वपूर्ण स्माधिस्थल पर अवश्य आकर पुष्प आदि चढ़ाते हैं |
मैं  कई बार शाम को वहाँ जाकर उन्हें मौन श्रद्धांजलि देती थी | लेकिन एक दिन का अनुभव मुझे आज तक कंपा देता है | मेरे वृद्ध माता- पिता कुछ दिनों के लिए मेरे पास फिरोजपुर में रहने के लिए आए थे | उन्हें मैं एक दिन शाम के समय इस समाधिस्थल पर ले गई |जैसा कि हर बार होता था, हमारे घर में रहने वाले सहायक भैया ने हमारी गाड़ी में कुछ पुष्पहार और कुछ पुष्प रख दिए थे | मैं अपने माता पिता को लेकर समाधि स्थल पर पहुँची तो उन दोनों ने वे पुष्पहार तीनों शहीदों की प्रस्तर मूर्तियों पर चढ़ाए और हाथ जोड़ कर नमन की मुद्रा में खड़े रहे | पास ही हमारी सेना की छोटी सी पोस्ट है | उसमें धीमा-धीमा संगीत चल रहा था | गाना था – कर चले हम फिदा जानोतन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो | हम सब की आँखें बंद थी और हम उस अलौकिक पल में पूरी तरह डूबे थे | अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे पिता की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी और वो गीता के किसी मन्त्र का जाप कर रहे थे |  यह मेरे लिए अभूतपूर्व अनुभव था | मैंने अपने धीर, मितभाषी पिता को कभी रोते हुए नहीं देखा था | ऐसा क्या हुआ होगा कि वो इस समाधिस्थल पर खड़े होकर इतने विचलित हो गए |

 जब थोड़े संयत हुए तो स्वयं ही हमसे बोले, “ लगभग मेरी ही उम्र के थे शहीद  भगत सिंह | मुझे एक बार इनसे मिलने का अवसर भी मिला था | वो बहुत ही सौम्य नौजवान था | देश प्रेम की भावना उसके रोम रोम से प्रकट हो रही थी | आज इन वीरों की समाधि देख कर मैं गर्वित भी हो रहा हूँ और ग्लानि भी हो रही है कि हम देशवासी इन्हें बचा नही सके | 23 वर्ष भी उम्र होती है किसी नौजवान के जाने की ? थोड़ी देर बाद फिर हाथ जोड़ कर वे इस त्रिमूर्ति के सामने सिर झुका के खड़े रहे | और जाते समय बोले – कृतज्ञ हूँ, अभिभूत हूँ | उन्होंने वहाँ चढ़ाए फूलों में से दो फूल उठाए और अपने रूमाल में बांध कर रख लिए |

उस शाम मैं अपने माता -पिता के साथ बहुत देर तक हुसैनी वाला झील पर नौका विहार करते रहे | मेरे पिता स्वतन्त्रता संग्राम की बातें सुनाते रहे और मैं धनी होती रही | जब भी 23 मार्च का दिन आता है , मैं शहीद भगत सिंग सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धा सुमन तो अर्पित करती ही हूँ किन्तु पर्वत जैसा हौंसला रखने वाले अपने धीर  पिता के साथ बिताए इन अनमोल पलों को याद करते हुए अंदर तक भीग जाती हूँ |

शशि पाधा

23 March , 2020

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020


मानस मंथन एक मार्मिक अभिव्यक्ति : कपिल अनिरुद्ध
शशि पाधा

पुस्तक : मानस मंथन
लेखिका : शशि पाधा
प्रकाशक : मानवी प्रकाशन, जम्मू
मूल्य : दो सौ रुपए
सम्पर्क : shashipadha@gmail.com

धरती माँ की वन्दना, राष्ट्र प्रेम एवं भारतीयता को ले कर बहुत ही उत्कृष्ट रचनायें की गई हैं परन्तु अपनी धरा से प्रेम करने वाला, राष्ट्र गौरव से ओत-प्रोत व्यक्ति यदि अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि से दूर हो प्रवासी कहलाने को विवश हो जाता है तो उस के भीतर का दर्द, माँ भारती से बिछुड़ने की पीड़ा कैसे अभिव्यक्ति पाती है, बहुत कम देखने को मिला है। श्रीमती शशि पाधा जी की कविता प्रवासीइसी भाव को अभिव्यक्त करती है। वे लिखती हैं

मैं प्रवासी हुई सखि
है देस मेरा अति दूर
यहाँ न मिलती पीपल छैया
न बाबुल की गलियाँ
यहाँ न वो चौपाल चोबारे
न चम्पा न कलियाँ

वैसा ही दर्द उनकी कविता स्मृतियाँएवं माँ का आँगनमें भी दिखाई देता है। फिर संवेदनशील होना ही तो कवि हृदय का पहला लक्षण है। बतौर सुमित्रानन्दन पंत

वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजा होगा गान

१३१ पन्नों के अपने इस काव्य संग्रह को कवयित्री ने भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं हिन्दी भाषा की समृद्धि में संलग्न प्रावासी भारतीयोंको समर्पित किया है। पुस्तक का नाम पुस्तक का नाम मानस मंथन प्रतीकात्मक है । पुराणों के अनुसार जब सागर मंथन हुआ था तो मंद्राचल पर्वत की मथनी तथा शेषनाग की रस्सी द्वारा ही देवताओं एवं दानवों ने सागर को मथा था। एक रचनाकार जब अपनी चेतना की मथनी ले अपने अन्तरमन को जिज्ञासा की रस्सियों द्वारा मथता है तो उसे जिन अमूल्य बिम्बों, प्रतीकों, संकेतों इत्यादि की प्राप्ति होती है उसे वह दूसरों को सौंपता जाता है। स्वयं विष पी दूसरों को अमृतपान करवाने वाला रचनाकार ही तो शिव कहलाता है। मानस मंथन भी कवयित्री शशि पाधा जी के अन्तरमन में हुए मंथन से प्राप्त रचनाओं का अमृतपान हमें करवाता है। कवयित्री स्वयं लिखती है – “जीवन के राग-विराग, हर्ष-शोक एवं मानवीय रिश्तों की उहा-पोह ने सदैव मेरे संवेदनशील हृदय में अनगिन प्रश्नों का जाल बुना है। मेरा जिज्ञासु मन इस चराचर जगत में उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढता रहता है। जीवन मीमाँसा की इस भावना से प्रेरित हो मानस मंथनका बीज अंकुरित हुआ।

मानस मंथन के कैनवास पर रचनाकार ने शब्दों की तूलिका से जीवन के अनेकानेक रंगों को उभारा है। कहीं वह जीवन को पूर्णता से जीने का मूलमंत्र देती नज़र आती है तो कहीं भ्रूण हत्या पर अपना आक्रोश व्यक्त करती है। कहीं वह प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करती है तो किसी अन्य रचना में त्याग एवं बलिदान का रंग बिखेरती दिखाई देती है। इन सभी रंगों में से जो रंग सबसे अधिक उभरा हुआ नज़र आता है वह अपने देश की धरती, देश प्रेम का रंग है।

ललित निबन्ध लोभ और प्रीति में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं

जन्म भूमि का प्रेम, स्वदेश प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त ऒर कुछ नहीं है। इस लोभ के लक्षणों से शून्य देशप्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिये गढ़ा हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से प्रेम होगा तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु-पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा। सबको वह चाह भरी दृष्टि से देखेगा। सबको सुध कर के वह विदेश में आँसू बहायेगा।
आचर्य शुक्ल जी का यह कथन कवयित्री शशि पाधा पर पूरा उतरता है। वह तो अपने वतन की गलियाँ, कलियाँ, मोर, चकोर, गंगा-यमुना, फाल्गुन होली यह सब देखने को तड़प उठती है। और फिर देश प्रेम की यह भाव धारा अश्रुधारा का रूप ले लेती है।
उनकी कविता प्रवासी वेदनातथा कैसे भेजूँ पातीको पढ़ कर महाकवि कालिदास के मेघदूत की याद ताज़ा हो जाती है। जिस में यक्ष बादलों को अपना प्रेम दूत बना अपनी प्रियतमा को संदेशा देने को कहता है। कवयित्री उड़ती आई इक बदली से अपने घर का हाल-चाल पूछती है। इस कविता की यह पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं।

उड़ते-उड़ते क्या तू बदली
गंगा मैय्या से मिल आई
देव नदी का पावन जल क्या
अपने आँचल में भर लाई
मन्दिर की घंटी की गूँजें
कानों में रस भरती होंगी
चरणामृत की पावन बूंदें
तन मन शीतल करती होंगी

किसी भी कवि अथवा कवयित्री की कविताओं को छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद इत्यादि वर्गों में वर्गीकृत करना, उसके साथ अन्याय करना है। वास्तव में जब हम अपना आलोचना धर्म ठीक ढंग से नहीं निभा पाते हैं तो हम मात्र उन्हें विभिन्न वादों-प्रतिवादों में वर्गीकृत कर के ही अपनी विद्धुता का परिचय दे देना चाहते हैं। यह सत्य है कि शशि पाधा जी की कुछ कविताओं को पढ़ बरबस महादेवी वर्मा जी की याद ताज़ा हो जाती है परन्तु कवयित्री की प्रत्येक अनुभूति उसकी निजि है। उसने अपने लिखे प्रत्येक शब्द को स्वयं अनुभूत किया है। मानस मंथन का अक्षर-अक्षर उस ने जिया है। यही उन की सबसे बड़ी विशेषता है।
उन की बहुत सी कवितायें उस अज्ञात प्रेमी के लिये हैं जो कभी कवयित्री के मन-वीणा क तार छेड़ उन्हें चैतन्य कर देता है तो कभी अपने स्नेहिल स्पर्श से उन्हें रोमांचित कर देता है। उन की कवितायें अदृष्य, जिज्ञासा एवं पथिक अपने उसी अज्ञात प्रेमी को समर्पित हैं।

अपने समय के बहुत से रचनाकारों, चिन्तकों एवं सन्त जनों ने प्रेम क्या है हमें बतलाया है। अपनी कविता प्रेममें कवयित्री भी प्रेम को परिभाषित करती हुई कहती है

-नयन में जले दीप सा
अक्षर में पले गीत सा
चातकी की प्रीत सा
श्वास में संगीत सा
सजे जो वही प्रेम है।

ऊपरी तौर पर पढ़ने वाले किसी पाठक को यह भी भ्रम हो सकता है कि शशि जी अपने निजि सुखों एवं दुखों को शब्दबद्ध कर रही हैं। परन्तु ऐसा कहीं नहीं है। वह तो सबके सुख में अपना सुख देखती है। सबक दुख ही उसका दुख है। वह तो वसुन्धरा को रक्तरंजित होते देख अनायास ही कह उठती है

हरित धरा की ओढ़नी
रक्त रंजित मत करो
खेलना है रंग से तो
प्रेम का ही रंग भरो

कवयित्री शशि पाधा मात्र प्रेम निवेदन करती ही नज़र नहीं आती। वह नारी को उसका खोया गौरव दिलाने को भी कटिबद्ध नज़र आती है। उसक लिए नारी अबला न हो कर सबला है, देव पूजित है, वत्सला है, शक्ति रूपा है। दूसरी ओर नारी स्वतन्त्रता के नाम पर मर्यादा भंग करने के विरुद्ध भी उसका स्वर सुनाई देता है। सांकेतिक ढंग से अपनी कवित अग्निरेखामें मर्यादा की रेखा लाँघने वाली नारी से वह पूछती है

किस दृढ़ता से लाँघी तूने।
संस्कारों की अग्नि रेखा।
देहरी पर कुछ ठिठकी होगी।
छूटा क्या, क्या मुड़ के देखा।

अजन्मा शैशवकविता में वह हमारे सामाजिक कलंक भ्रूण हत्याकी ओर हमारा ध्यान खींचती हैं। अजन्मा शिशु ही अपनी हत्या के लिये माँ से प्रश्न कर हमारी चेतना को झंझोड़ता है।

कवयित्री ने छोटे-छोटे बिम्बों, प्रतीकों एवं संकेतों के माध्यम से अपनी बात कही है। कहीं वह बादलों का सांकेतिक प्रयोग करती नज़र आती है तो कहीं अन्य कविता तापमें वह नारी को सुकोमला एवं निर्बला समझने वालों पर सांकेतिक ढंग से प्रहार करती है। जब वह अपने अतीत की स्मृतियों में खोई हुई होती है, जब वह अपने प्रेममय, गौरवमय अतीत को याद करती है तो दुःखों और निराशाओं से ही घिर नहीं जाती, बल्कि उसके भीतर का दार्शनिक उसे अतीत के प्रेम एवं सौहार्द से वर्तमान के क्षणों को प्रेममय एवं आनन्दमय बनाने का संदेश देता है। वह तो अपने अश्रुओं को भी यह कह कर उदात्त बना देती है

नील गगन भी कभी-कभी।
किरणों की लौ खो देता है।
आहत होगा हृदय तभी तो
बरस-बरस यूँ रो लेता है।

मैं भी रो लूँ आज क्योंकि
कुछ तो है अधिकार मुझे।

हमारे प्रदेश के प्रख्यात साहित्यकार एवं चिंतक डॉ. ओ.पी. शर्मा सारथीजी लिखते हैं – “काव्य कला होते हुए प्राण है और प्राण होते हुए कला है। और सबसे बड़ी बात कि जिस समाज में काव्य कला को पूर्ण महत्व दिया जाता है वहाँ पर लय-ताल और संगीत का साम्राज्य रहता है। काय का सारा ढांचा लय-ताल पर आधारित है। यह कभी भी संभव नहीं है और यह संभावना भी नहीं की जा सकती कि व्यक्ति संगीत के तीन गुणों लय-ताल तथा स्वर को समझे बिना काव्यकार हो जाये। यदि उसे काव्यकार होना है तो लयकार और स्वरकार होना ही होगा।
श्रीमती शशि पाधा जी कविताओं में काव्यत्मकता एवं लयात्मकता का उचित तालमेल नज़र आता है। वह तो शब्दलहरियों के साथ स्वरलहरियों को मिलाने की बात करती हुई लिखती हैं

आओ प्यार का साज़ बजा लें।
सात-सुरों की लहरी गूँजे
तार से तार मिला लें।

देश से हज़ारों मील दूर बसने वाली इस कवयित्री के प्रत्येक शब्द में भारत की मिट्टी, संस्कृति एवं संस्कारों की सुगन्ध आती है। हमारे डुग्गर प्रदेश में जन्मी इस कवयित्री की प्रेरणा इन के पति मेजर जनरल केशव पाधा हैं, जो हमारे गौरव हैं। मेरी कामना है कि हम एक सेनानई की प्ररेणाशक्ति से राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा ले यदि माँ भारती की सेवा में जुट जायें तभी इस प्रेममयी कवयित्री की कविताओं को पढ़ने और सराहने का हमारा ध्येय पूर्ण होगा।


बुधवार, 19 फ़रवरी 2020


   
   



सुधियों के पन्नों से   ----  माश्की काका

                      शशि पाधा 

मन के किसी कोने में रखी पिटारी में कई छोटी छोटी गुथलियाँ सम्भाल के रखी हैं| हर गुथली में उन दिनों की मधुर स्मृतियाँ हैं जिन्हें बाँटने में संकोच भी होता है और कोई सुनने वाला भी नहीं मिलता| किन्तु मैं उन्हें कभी कभार अपने एकांत पलों में खोल लेती हूँ, उनसे बतियाती हूँ, उनसे खेलती हूँ और फिर बड़ी रीझ से उन्हें फिर से उनकी गुथली में बाँध के रख देती हूँ| यह मेरे बचपन की धरोहर है जिससे मुझे अपने होने का अहसास हो जाता है| मैं हूँ –यह मैं जानती हूँ पर जो मैं बचपन में थी मैं उसे भी खोना नहीं चाहती| इसीलिए वो पिटारी मेरी सब से प्रिय निधि है|

तब मैं छोटी थी ---बहुत ही छोटी| उन दिनों घर गली मोहल्लों में होते थे और हर बड़ी गली किसी बड़ी सड़क से जुड़ी होती थी| हमारी गली का नाम था –पंजतीर्थी| जम्मू शहर के बिलकुल उत्तर में ‘तवी’ नदी बहती है और इसी नदी के ऊँचे किनारे पर बनी चौड़ी सड़क के अंदर थी पंजतीर्थी| महाराजा हरी सिंह का राज महल इस सड़क के एक छोर पर था और दूसरे छोर पर थी ‘मुबारक मंडी’| इसी मंडी में बड़ी शान से खड़े थे पुराने महल जो इस पीढ़ी के पुराने राजाओं के वैभव का प्रतीक था| मंडी के बीचोबीच संगमरमर की सीढ़ियों वाला एक सुन्दर सा बाग़ था| इस बाग़ में कई तरह के फ़व्वारे लगे थे| चारों ओर खुश्बूदार पेड़ भी थे| इन सभी पेड़ों में से मुझे मौलश्री का पेड़ बहुत पसंद था क्यूँकि उसके फूलों की खुश्बू सब से अलग थी| इसकी खुश्बू के आगे मुझे सारे इत्र फीके लगते हैं|
इस मंडी और राजमहल को आस- पास थे दो बाज़ार| एक का नाम था धौन्थली और दूसरा था पक्का डंगा| इन दोनों बाज़ारों की एक विशेषता थी| दोनों पत्थर के बने थे| यानी सड़कें तो तारकोल की थी किन्तु जम्मू के सारे बाज़ारों में पत्थर लगे हुए थे| गाड़ियाँ तो चलती नहीं थी इन बाज़ारों में और उन दिनों न तो स्कूटर थे न धुआँ छोड़ने वाले अन्य वाहन| फिर भी दिन में दो बार इन बाज़ारों के पत्थरों पर पानी का छिड़काव होता था और वो छिड़काव करने वाले थे हमारे प्यारे ‘माश्की काका’|
उनका नाम क्या था, मैं नहीं जानती| थोड़े से भारी शरीर वाले माश्की काका अपनी मश्क में पानी भर कर बाज़ार के बीचोबीच चलते जाते और दोनों और मश्क के मुँह से पानी फेंकते जाते| अमूमन उस समय हम या तो स्कूल जा रहे होते या आ रहे होते| मुझे याद है काका सब बच्चों के साथ खिलवाड़ भी करते रहते| इधर-उधर पानी छिड़कते-छिड़कते वो मश्क को इतनी जोर से गोल गोल घुमाते की बच्चों पर छींटे पड़ते| सारे बच्चे खिलखिला कर हँस देते और उनके पीछे पीछे चलते हुए यही कहते, “ काका! पानी फेंको न और, अभी मज़ा नहीं आया|”
मुझे याद है कभी-कभी काका खड़े हो जाते बीच बाज़ार और हम बच्चों से कहते, “ देखो, पानी बहुत मूल्यवान है, इसे व्यर्थ में नहीं गंवाना चाहिए| नहीं तो बादल, नदिया और समन्दर सब हमसे रूठ जाएँगे और फिर सूख जाएँगे|”
हमें उनकी बातों की समझ तो आती नहीं थी| भला बादल या नदिया कैसे सूख सकते हैं? और समन्दर तो हमने देखा ही नहीं था तो उसके विषय में हम क्या निर्णय ले सकते थे| हाँ, उनकी बातों से एक बात झलकती थी कि उनको पानी से बहुत लगाव था| शायद वे शहर के उत्तरी किनारे में बहती ‘तवी’ नदी का पानी अपनी मश्क में भर कर लाते थे| और उस नदी तक पहुँचने के लिए नीचे ढल कर जाना पड़ता था| या वे हम सब को जल संकट के विषय से अवगत कराना चाहते थे|
जब मैं बहुत छोटी थी तो मश्क का आकार और मुँह देख कर थोड़ा डर सी जाती थी| एक बार भिश्ती काका से पूछ ही लिया था मैंने, “ काका आपने किस चीज़ का थैला बनाया है? (मुझे उनकी मश्क थैले जैसी ही लगती थी)
हँसते हुए काका ने बताया था कि जब कोई बकरी बूढ़ी होकर मर जाती है तो उसकी खाल से हम यह थैला बना लेते हैं| फिर इसमें पानी भर कर बाज़ार के पत्थरों पर छिड़काव करते हैं| उन दिनों यह बातें समझ नहीं आती थी| पर अब लगता है कि पत्थरों पर पड़ी धूल-मिट्टी न उड़े, इसी लिए छिडकाव होता होगा| राज महल से मंडी तक आने वाली बडी सड़क पर तो दिन में तीन- चार बार काका इधर से उधर आते-जाते अपनी मश्क से पानी छिड़कते रहते|
 काका मुस्लिम थे, यह मेरे पिता ने मुझे बताया था| बहुत बाद में मुझे पता चला था की उनकी कोई अपनी सन्तान नहीं थी| वो  हम सब बच्चों के साथ ही खिलवाड़ करके अपना जी बहला लेते थे| कभी- कभी वो हम बच्चों में संतरी रंग की गोलियाँ (टॉफियाँ) बाँटते थे| शायद तब उनकी ईद होती थी| हाँ, एक बात और याद आती है कि बाज़ार के कृतज्ञ दुकानदार उन्हें कुछ पैसे देते थे जिसे आज के समय में ‘टिप’ कहा जा सकता है|
 उनका नाम मुझे याद नहीं| वो मेरा नाम कैसे जानते थे, मुझे पता नहीं | पर जब भी वो मुझे देखते तो मुस्कुराते हुए कहते, “ गुड्डी!  तुसाँ दूर उड्ड जाना, फेर असाँ नेई मिलना”| ( गुड़िया! तूने बहुत  दूर उड़ जाना और फिर हमने नहीं मिलना) शायद उन्हें पता था की मेरे माता पिता शहर से दूर एक नया घर बनवा रहे थे और वो हम से बिछुड़ने का दर्द इसी तरह ब्यान करते थे|
हम जम्मू का पुराना शहर छोड़ कर नई जगह ‘गाँधीनगर’ आकर बस गए| इस बीच वो बाज़ार भी तारकोल के बन गए| अब सड़कों पर पानी का छिड़काव शायद मयुन्स्पैलिटी की गाड़ियाँ करने लगीं| या इसकी आवश्यकता ही नहीं होती होगी| समय जो इतना बदल गया था| कुछ चीज़ों का कोई महत्व नहीं रह गया था|
मेरे बड़े होते-होते माश्की काका कहाँ खो गए, मुझे पता ही नहीं चला| लेकिन मेरी सुधियों की किसी पिटारी में वो सदा रहे| कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरा और उनका सम्बन्ध भी रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी ‘काबुली वाला’ की ‘मिनी’ और ‘काबुली वाला’ की तरह था| वे ठीक ही तो कहते थे ---गुड्डी तुसाँ उड्ड जाना------
मैं तो हूँ, किन्तु मेरे माश्की काका समय के पंख लगा कर कहीं उड़ गए| अब कभी कभी नभ में उड़ते बादलों में उनको देख लेती हूँ | वो वहीं होंगे, अपनी मश्क के साथ, धरती पर जल का छिड़काव करते हुए-------

·        मैंने इस रचना में ‘भिश्त’ के स्थान पर ‘मश्क’ शब्द का प्रयोग किया है| जम्मू में हम सब लोक भाषा में ‘भिश्त’ को ‘मश्क’ ही कहते थे और भिश्ती को कहते थे ‘माश्की’|