बुधवार, 18 नवंबर 2015

बस यूँ ही -----

क्षणिकाएँ 
    1
टूट गया बाँध
सब्र का
बह गया पानी
पर कोई नहीं डूबा
ना रोने वाला
ना रुलाने वाला
और, ज़िन्दगी
यूँ ही चलती रही
किनारों पर |
  2
री पतझड़ !
थोड़ा रुक कर आना
अभी, और पहननी हैं चूड़ियाँ
डालियों ने पत्तों की
अभी , थके मांदे राही ने
ओढ़नी है छाँव
अभी, धूप ने खेलनी है
आँख मिचौली
अभी पल रहे हैं बच्चे
घोंसलों में
अभी मत आना
सुन रही हो ना ?

  3

शांत है
अभी,हवा भी
पत्तों ने भी
अभी, रंग नहीं बदला
काँपी नहीं हैं डालियाँ
अभी
फिर क्यों है
मन में
पतझड़ी आभास |

  शशि पाधा


गुरुवार, 5 नवंबर 2015

बस यूँ ही



  
  क्षणिकाएँ


1
चलिए छोड़ देते हैं
उन्हें कुछ कहना
उनसे कही बात
तैरती है हवा में
 सुन लेती हैं दिशाएं
 बरस जाती है बदली,
और वो बड़ी
मासूमियत से पूछते हैं
तुमने मुझसे कुछ कहा  ?
 
    2

आज रात
नींद की क्यारी में
बो दिए कुछ सपने
कल देखेंगे
किस रंग के फूल उगेंगे
या फिर ----

 3

हवाओं ने कहा
चलो, मेरे साथ
वहाँ ना कोई
सीमाएँ होंगी
ना दहलीज
ना  दीवारें
ना अनुमति
ना अनुमोदन
और ना कोई
अवहेलना
बस, वहीं बस जाना

   4

पत्ती से गिरी थी ओस
बहुत नाज़ था उसे
हीरा बनने का
क्षण भंगुरता से
उसकी पहचान जो ना थी |
   5

आज पत्ते
कुछ पीले पड़ गए
कल सुर्ख हो जाएंगे
हवा को पसंद नहीं उनका
रंग बदलना
उड़ा ले जाएगी |

  6

संदली धूप
चुपचाप
आ बैठी मेरी खिड़की पर
आज नहीं मिल पाऊँगी, सखि
अन्धेरा
अभी भी बैठा है
मन के किसी कोने में



  शशि पाधा , 5 नवम्बर २०१५