क्षणिकाएँ
1
चलिए छोड़ देते हैं
उन्हें कुछ कहना
उनसे कही बात
तैरती है हवा में
सुन लेती हैं दिशाएं
बरस जाती है बदली,
और वो बड़ी
मासूमियत से पूछते हैं
तुमने मुझसे कुछ कहा ?
2
आज रात
नींद की क्यारी में
बो दिए कुछ सपने
कल देखेंगे
किस रंग के फूल उगेंगे
या फिर ----
3
हवाओं ने कहा
चलो, मेरे साथ
वहाँ ना कोई
सीमाएँ होंगी
ना दहलीज
ना दीवारें
ना अनुमति
ना अनुमोदन
और ना कोई
अवहेलना
बस, वहीं बस जाना
4
पत्ती से गिरी थी ओस
बहुत नाज़ था उसे
हीरा बनने का
क्षण भंगुरता से
उसकी पहचान जो ना थी |
5
आज पत्ते
कुछ पीले पड़ गए
कल सुर्ख हो जाएंगे
हवा को पसंद नहीं उनका
रंग बदलना
उड़ा ले जाएगी |
6
संदली धूप
चुपचाप
आ बैठी मेरी खिड़की पर
आज नहीं मिल पाऊँगी, सखि
अन्धेरा
अभी भी बैठा है
मन के किसी कोने में
शशि पाधा , 5 नवम्बर २०१५
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आज बातें कम, लिंक्स ज्यादा - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचनाएं। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
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