शुक्रवार, 31 अगस्त 2012


इक कहानी अनकही

मैं नदी  
लम्बी डगर
 प्यासी बही  |

कौन जाने कोई बादल
आज बरसे ,
 संग बहे
कौन जाने कोई सागर
मुड़ के पीछे ,बाँह गहे

और लहरें रेत पे,लिख दें
 कहानी-- अनकही |

कोई पंछी दूर तक
 संग उड़ा
कब कहाँ वो मुड गया
इक किनारा देर तक
 संग चला  
और पीछे रुक गया
कौन जाने कब किसी को
बात क्या ----चुभती रही |  


एक माँझी से मेरी देर से  
पहचान थी
बंधनों के टूटने की पीर से
अनजान थी
दूर उस पार वो
 गीत इक गाता रहा
आँख नम  ---सुनती रही |





न रुकी,न थमी,न कहीं
बदली दिशा                  
कौन जाने कब मिटे
 अनबुझी  
 ये  तृषा
अनंत के छोर तक 
आस इक-- पलती रही |

और मैं चलती रही !!!!!

शशि पाधा