इक कहानी –अनकही
मैं नदी
लम्बी डगर
प्यासी बही |
कौन जाने कोई बादल
आज बरसे ,
संग बहे
कौन जाने कोई सागर
मुड़ के पीछे ,बाँह गहे
और लहरें रेत पे,लिख दें
कहानी-- अनकही |
कोई पंछी दूर तक
संग उड़ा
कब कहाँ वो मुड गया
इक किनारा देर तक
संग चला
और पीछे रुक गया
कौन जाने कब किसी को
बात क्या ----चुभती रही |
एक माँझी से मेरी देर से
पहचान थी
बंधनों के टूटने की पीर से
अनजान थी
दूर उस पार वो
गीत इक गाता रहा
आँख नम ---सुनती रही |
न रुकी,न थमी,न कहीं
बदली दिशा
कौन जाने कब मिटे
अनबुझी
ये तृषा
अनंत के छोर तक
आस इक-- पलती रही |
और मैं चलती रही !!!!!
शशि पाधा
Wishing You Many Happy Poetic days ahead !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ये रचनाएँ दूर दूर तक पहुँचें यही मंगलकामना है।
जवाब देंहटाएंशशि जी, आप ने ब्लाग शुरू किया है, शुभकामनाएँ | कविता बेहद सुन्दर है .... बहुत -बहुत बधाई |आप का काव्य लेखन आकाश की बुलंदियाँ छुए , यही कामना हमेशा करती हूँ |
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