मानस मंथन : मन के आकाश के विभिन्न रंग -------: तेरे लिए ...
सोमवार, 21 जनवरी 2013
भारतीय सैनिकों के साथ पाक सेना के द्वारा अमानवीय व्यवहार से क्षुब्द्ध हृदय के उद्दगार ----
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बुधवार, 16 जनवरी 2013
मन के आकाश के विभिन्न रंग -------
तेरे लिए
*
कोयल् की कूज
झरणों की गूँज
स्वर्णिम सी भोर
किरणों की डोर
बाँधी है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
छेड़े हैं साज
वीणा के राग
सपनों के मीत
सावन के गीत
गाए हैं मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
*
*
नीलम सी साँझ
चाँदी का चाँद
तारों के दीप
सागर की सीप
जोड़ी है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये।
चाँदी का चाँद
तारों के दीप
सागर की सीप
जोड़ी है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये।
कोयल् की कूज
झरणों की गूँज
स्वर्णिम सी भोर
किरणों की डोर
बाँधी है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
छेड़े हैं साज
वीणा के राग
सपनों के मीत
सावन के गीत
गाए हैं मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
केसर की गंध
क्षितिज के रंग
सावन का मेह
आँचल में नेह
ओढ़ा है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
क्षितिज के रंग
सावन का मेह
आँचल में नेह
ओढ़ा है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
फूलों का हास
वासंती आभास
चातक की प्रीत
समर्पण की रीत
चाही है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
बस तेरे लिये । ।
वासंती आभास
चातक की प्रीत
समर्पण की रीत
चाही है मैंने तेरे लिये
बस तेरे लिये ।
बस तेरे लिये । ।
छोटी सी बात इक
*
चाँद को छूने की
भोली सी चाह इक
ओस बूंद पीने की
भीनी सी साध इक
बादलों में उड़ने की
पगली सी आस इक
कब जगी कब पली
कब कहां मिट गई
अधरों पे आ रूकी
अनकही बात इक।
कब कहूं , न कहूं
शब्द रूप कब करूं
अधखिले फूल को
शाख से तोड़ लूं
मन की तरंग को
बांध कर रोक लूं
रेशमी डोर को
शून्य में छोड़ दूं
सोचते ही कट गई
जिन्दगी की रात इक
ताप
*
मेरी पीड़ा का गहन ताप
तुम पल भर न सह पाओगे,
पलकों का किनारा टूटा तो,
तिनके सा बह जाओगे ।
माना तुम इक पर्वत से
अटल, अडिग अविचल हुए
क्षण भर के मेरे कंपन से
टूट- टूट गिर जाओगे ।
जग अँधियारा हरने का
सूरज सा है मान तुझे,
घनघोर घटा बन जाऊँ तो
पल भर में छिप जाओगे ।
अन्तर मन के सागर में
कैसा इक तूफ़ान छिपा,
अधर सिले खुल जायें तो
निश्वासों में मिट जाओगे ।
मेरी पीड़ा का गहन ताप
तुम पल भर न सह पाओगे,
पलकों का किनारा टूटा तो,
तिनके सा बह जाओगे ।
माना तुम इक पर्वत से
अटल, अडिग अविचल हुए
क्षण भर के मेरे कंपन से
टूट- टूट गिर जाओगे ।
जग अँधियारा हरने का
सूरज सा है मान तुझे,
घनघोर घटा बन जाऊँ तो
पल भर में छिप जाओगे ।
अन्तर मन के सागर में
कैसा इक तूफ़ान छिपा,
अधर सिले खुल जायें तो
निश्वासों में मिट जाओगे ।
फिर क्यों मन एकाकी आज
चहुँ ओर प्रकृति का आह्लाद
फिर क्यों मन एकाकी आज ?
प्राची का अरुणिम विहान
नव किसलय का हरित वितान
रुनझुन-रुनझुन वायु के स्वर
नीड़-नीड़ में मुखरित गान
लहर-लहर बिम्बित उन्माद
फिर क्यों मन एकाकी आज ?
बदली की रिमझिम फुहार
कोयल गाए मेघ मल्हार
तितली का सतरंगी आँचल
भंवरों की मीठी मनुहार
झरनों का कल-कल निनाद
फिर क्यों मन एकाकी आज?
अंजलि में भर लूं अनुराग
त्यागूं मन की पीर- विराग
किरणों की लड़ियों की माला
पहनूं , गाऊँ जीवन-राग
छिपा कहीं वेदन-अवसाद
फिर भी मन एकाकी आज ।
शशि पाधा
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