जाने कैसा होता होगा
जाने कैसा होता होगा
वीतराग, वैरागी मन !
भोर
किरण क्या छू कर उसको
आस कोई जगाती होगी ?
बन्द अंखियों की सीपी में क्या
याद कोई घुल जाती होगी ?
दूर क्षितिज की
देहरी पर कोई
मूरत उसे बुलाती होगी ?
अम्बर के तारों की नगरी
लगती होगी दूर- निर्जन,
जाने
कैसा होता होगा
निरपेक्ष, निस्पृह मन !
घने वनों के सघन
अँधेरे
उसके मन को भाते
होंगे
नभ के गहरे काले
बादल
अँखियों में घिर आते
होंगे
रूखे - सूखे पत्तों
से क्या
फूल सभी ढक जाते
होंगे ?
निष्फल होगा कल्पतरु क्या
निर्धन होगा जीवन धन ?
जाने कैसा होता होगा
निर्मोही, निश्चेष्ट मन !
मौन रहती होंगी
आँखें
कोरों में अश्रु का
वास
दूर
कहीं जा, किसी गुहा में
छूट
गया होगा उल्लास
पीड़ा होगी सखी सहेली
बुझे –बुझे होंगे
निश्वास |
मोह माया के महाजाल से
टूटे
होंगे मानस बंधन
जाने कैसा होता होगा
सूना –सूना ,रीता मन !
जाने कैसा होता होगा !!!!!
शशि पाधा
(मेरे पिता की मृत्यु के बाद रुग्णावस्था में जी
रही मेरी विदुषी माँ की मन:स्थिति का चित्रण | लगता था कि वे वहां होते हुए भी
कहीं और हैं )