शनिवार, 17 अगस्त 2013


जाने कैसा होता होगा

      
जाने कैसा होता होगा

 वीतराग, वैरागी मन !


भोर किरण क्या छू कर उसको

 आस कोई जगाती होगी ?

 बन्द अंखियों की सीपी में क्या   

  याद कोई घुल जाती होगी ?

दूर क्षितिज की देहरी पर कोई

   मूरत उसे बुलाती होगी  ?


   अम्बर के तारों की नगरी

   लगती होगी दूर- निर्जन,

   जाने कैसा होता होगा

   निरपेक्ष, निस्पृह मन !

घने वनों के सघन अँधेरे

उसके मन को भाते होंगे

नभ के गहरे काले बादल

अँखियों में घिर आते होंगे

रूखे - सूखे पत्तों से क्या

फूल सभी ढक जाते होंगे ?


   निष्फल होगा कल्पतरु क्या

   निर्धन होगा जीवन धन ?

   जाने कैसा होता होगा

    निर्मोही, निश्चेष्ट मन !


मौन रहती होंगी आँखें

कोरों में अश्रु का वास

दूर कहीं जा, किसी गुहा में

छूट गया होगा उल्लास  

पीड़ा होगी सखी सहेली

बुझे –बुझे होंगे निश्वास |


   मोह माया के महाजाल से

   टूटे होंगे मानस बंधन

   जाने कैसा होता होगा

   सूना –सूना ,रीता मन !

  जाने कैसा होता होगा !!!!!

शशि पाधा

 (मेरे पिता की मृत्यु के बाद रुग्णावस्था में जी रही मेरी विदुषी माँ की मन:स्थिति का चित्रण | लगता था कि वे वहां होते हुए भी कहीं और हैं )