हवा में तैरते सुर – ---एक संस्मरण
शिवालिक की पर्वतमाला की छोटी छोटी पहाडियों की तलहटी पर बसी है एक सैनिक
छावनी – पठानकोट | पंजाब और
जम्मू –काश्मीर की सीमा में
सेतु के समान यह छोटा सा शहर व्यापारिक गतिविधियों के लिए भी जाना जाता है | इस
शहर के पूर्वोत्तर में चम्बा,धर्मशाला, डलहौजी, जैसे पर्यटन स्थल हैं और पश्चिमी
सीमा पर भारत –पाक
सीमा रेखा | लीजिए मैं शहर का भौगोलिक
वर्णन क्यों करने लगी –शायद
आपको उस शहर से परिचित करवाना चाहती हूँ जहाँ
सारिका और मैं रहते थे | वैसे उसका
नाम क्या था मैं नहीं जानती | मेरा उससे परिचय भी अचानक हुआ था | इस सैनिक छावनी के बीचोबीच हमारा सरकारी बँगला
था –“आशियाना” | शायद किसी शायराना स्वभाव वाले
ब्रिगेडियर साहब ने इसका नामकरण किया हो | अंग्रेजों के समय के बने हुए इस आलीशान
घर में इतने कमरे थे कि गिने भी नहीं जाते थे | किन्तु जो बात इस घर की विशेष थी वो यह कि घर के
आस पास इतनी खाली ज़मीन थी कि एक छोटा –मोटा गाँव बसाया जा सकता था | इस घर को बनाते समय इस बात का
ध्यान रखा गया था कि किसी भी प्राचीन पेड़ को काटा नहीं गया था यानी बरगद, इमली, जामुन, आम, आदि के पुराने पेड़
सुरक्षित रखे गए थे | अत: इस प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर बंगले में प्रवेश करते ही
मैं प्रकृति से आत्मसात हो गई |
वसंत ऋतु अपने पूर्ण यौवन पर थी और बंगले के चारों ओर की बगिया ने भी सतरंगी चुनरी ओढ़ ली थी | एक दिन
प्रात:काल की चाय की ट्रे आते ही हमने अपने शयनकक्ष की खिड़की के बाहर किसी पक्षी
के अत्यंत मधुर सुरों में गाने के स्वर सुने | आसाम की चाय की मीठी चुस्की और
पक्षी की मधुर कूज ने सुबह सवेरे मन इतना प्रसन्न किया कि उस दिन सारी कलियाँ खिली
खिली लगीं, लान की घास में कोई सूखा तिनका नहीं दिखा और सारे पेड़ हवा में झूमते हुए दिखाई दिए | अगले
दिन जैसे ही आँख खुली ( चाय की ट्रे के साथ ) उसी समय पंछी के मीठे मीठे स्वर भी
सुनाई दिए ---कू ऊऊ , कू ऊ ऊ ऊ , कू ऊउऊ | आदत के अनुसार मैंने घड़ी देखी , समय था
५-४५ | यानी मेरे पति की व्यस्त दिनचर्या को ध्यान में रखते हुए इसी समय हमारी चाय
की ट्रे बरामदे में तिपाई पर रखी जाती थी | शायद उस गायक पंछी के उठने का भी यही
समय होता होगा | खैर, दो तीन दिन के बाद एक सुबह चाय के साथ उस पंछी के सुरीले गान ने ऐसा प्रभाव छोड़ा कि मैं भी उसके स्वर के साथ
स्वर मिला कर गाने लगी –कूउऊ,
कूऊऊउउऊ, कूऊऊऊ | मेरी आवाज़ सुनते ही वातावरण में गहरी चुप्पी छा गई | कहीं से कोई
स्वर नहीं आया| जैसे मैंने उसकी स्वर
साधना में विघ्न डाल दिया हो | कुछ क्षणों
के बाद मैंने पुन: उसे पुकारते हुए कहा, “कू, कूऊ ,कूउउऊ” |
थोड़ी देर बाद उसने कू कू किया लेकिन उसके स्वर थोड़े सतर्क थे , हवा में तैर
नहीं रहे थे | अब मैं भी अपनी दिनचर्या में लग गई |
इस के बाद तो प्रतिदिन ५:४५ पर भोर किरण के सुनहरे रंगों को निहारते हुए पंछी की कूजन और
सुगन्धित आसामी चाय की चुस्की हमारा दैनिक नियम बन गया | कई बार मैं और मेरे पति देर तक उसके साथ
स्वरालाप करते और वो भी पूरे उत्साह के साथ हमारे साथ स्वरसाधना करती | इस पूरे खेल में एक अद्भुत बात यह थी कि हमने
आज तक उसे देखा नहीं था | फिर भी हमने उसको प्यारा सा नाम दिया – सारिका | वो शयन कक्ष के पिछवाड़े किसी
ऊँचे पेड़ की ऊँची घनी शाख पर बैठी कूजती थी , शायद सूर्य नमस्कार के मन्त्रों का
उच्चारण करती थी या भोर की किरणों के साथ खेलते हुए कोई गीत गाती थी , मैं नहीं
जानती | मैं तो केवल इतना ही जानती थी कि अब हमारा उससे गूढ़ सम्बन्ध बन गया था |
तो भाई एक दिन हम दोनों सुबह उसके आने के समय से पहले ५:३० मि़नट पर ही दबे पाँव शयन कक्ष के पिछवाड़े
जा कर खड़े हो गए | सोचा जैसे ही सारिका अपनी स्वर साधना शुरू करेगी हम उसे ढूँढ
निकालेंगे | ५:४५ पर जैसे ही उस ऊँचे पेड़
की ऊँची टहनी से उस की कूजन सुनाई पडी हम भी कू-कूऊ-कूऊऊउउऊ करते हुए उस पेड़ के पास पहुँच गए | हमारी पदचाप ने उसे सतर्क किया और वो उस दिन कुछ
नहीं बोली | अगले दिन बड़े संयम के साथ हम उस पेड़ के नीचे उसके आने की प्रतीक्षा
करते रहे और वो आई | जैसे ही उसने कू कू
करना शुरू किया, हमने उसे ढूँढ निकाला | एक
पल के लिए तो हमारी दृष्टि उस पर टिक ही गई और शायद वो भी अब हमारी पदचाप से
अभ्यस्त हो गई थी अत: उस दिन वो उड़ी नहीं
| पत्तों की जाली के बीच हम जो भी देख पाए
उससे यही निर्णय लिया कि न तो वो कोयल जैसी काली थी और न गोरैया जैसी मटमैली | तीन रंगों से रंगे उसके पंख बहुत ही कोमल और सुन्दर
थे और चोंच कुछ पीली सी थी | क्षण भंगुर
की उस भेंट में ही वो हमारी अपनी प्रिय सारिका हो गई | अब तो सारिका के साथ हमारी हर सुबह बहुत आनन्दमय हो
उठती | उसे भी हमारी आदत सी पड़ गई थी | हम
तीनों का स्वरालाप लगभग हर रोज ही चलता था | हम जब भी कुछ दिनों के लिए शहर से
बाहर जाते तो हमारे सहायक भैया हमसे कहते
कि सारिका बहुत देर देर तक हमें पुकारती थी, शायद हमें ढूँढती थी |
सब दिन एक समान नहीं होते , विशेषतया: सैनिकों के जीवन में | उन्हें
तो हर दो वर्ष के बाद अपना घर बाँधना पड़ता है | अत: हमारा भी स्थानान्तरण शिमला हो
गया | ‘आशियाना’ में हमने दो वर्ष बड़े सुख से बिताये थे
| और फिर हर शहर की अपनी एक खुशबू, एक खास रौनक होती है | हमें तो इस शहर में प्यारी सारिका
मिली थी | हमें इस शहर को तथा अपने
मित्रों को छोड़ने का दुःख तो था ही सब से बड़ा दुःख यह था कि हम अपनी प्यारी प्यारी
सारिका को यहाँ छोड़ के जा रहें हैं | अगर बस में होता तो उसे पिंजरे में डाल के
अपने साथ ले जाते और वहाँ किसी पेड़ की डाल पर छोड़ देते| किन्तु सब कुछ तो मन के
अनुसार हो नहीं सकता | मिलन और वियोग तो जीवन का नियम है और हम सब को यह निभाना भी
पड़ता है |
विदा के दिन हम जल्दी ही सुबह उठ कर बड़ी उत्सुकता से उस पेड के नीचे जा कर खड़े हो गए
| हमने कूऊ –कूऊउ
के स्वर में उसे बुलाया, पर वो नहीं आई |
शायद अभी ५:४५ का समय नहीं हुआ था | हम ने फिर से बड़े प्यार से कूउऊ करके उसे गाने का आग्रह किया
| पेड़ पर एक हल्की सी सरसराहट हुई | हम दोनों सांस रोक कर खड़े रहे क्यों कि हम उसे अंतिम बार अवश्य देखना चाहते थे | वो आई , कूजी और हम तीनों कुछ
पल के लिए उसके स्वरों में गाते रहे | हमने भरे कंठ से उससे विदा कहा | हमें लगा कि वो भी शायद
जान गई थी हम सदा के लिए जा रहे हैं | क्योंकि उसके स्वर कुछ क्षीण से थे |
या अपनी मन:स्थिति के अनुसार हमें ऐसा आभास हुआ | गाड़ी में बैठते हुए हमने अपनी प्यारी सारिका के कूजन स्थल को
नमस्कार किया और भारी मन से वो घर छोड़ दिया | शिमला में हमें उसकी बहुत याद आती
रही किन्तु फिर वहाँ की सर्दी और भारी हिमपात ने हमें किसी और दुनिया में पहुंचा
दिया |
अपने सैनिक जीवन में
हमने कई शहर देखे , कई घर बदले किन्तु हम सारिका को भूल नहीं पाए |
अब कभी भी ,किसी भी देश में, हम कभी किसी पंछी की प्यारी सी कुहक
सुनते हैं तो सारिका को याद
करके मुस्कुरा उठते हैं |
शशि पाधा