बुधवार, 19 फ़रवरी 2020


   
   



सुधियों के पन्नों से   ----  माश्की काका

                      शशि पाधा 

मन के किसी कोने में रखी पिटारी में कई छोटी छोटी गुथलियाँ सम्भाल के रखी हैं| हर गुथली में उन दिनों की मधुर स्मृतियाँ हैं जिन्हें बाँटने में संकोच भी होता है और कोई सुनने वाला भी नहीं मिलता| किन्तु मैं उन्हें कभी कभार अपने एकांत पलों में खोल लेती हूँ, उनसे बतियाती हूँ, उनसे खेलती हूँ और फिर बड़ी रीझ से उन्हें फिर से उनकी गुथली में बाँध के रख देती हूँ| यह मेरे बचपन की धरोहर है जिससे मुझे अपने होने का अहसास हो जाता है| मैं हूँ –यह मैं जानती हूँ पर जो मैं बचपन में थी मैं उसे भी खोना नहीं चाहती| इसीलिए वो पिटारी मेरी सब से प्रिय निधि है|

तब मैं छोटी थी ---बहुत ही छोटी| उन दिनों घर गली मोहल्लों में होते थे और हर बड़ी गली किसी बड़ी सड़क से जुड़ी होती थी| हमारी गली का नाम था –पंजतीर्थी| जम्मू शहर के बिलकुल उत्तर में ‘तवी’ नदी बहती है और इसी नदी के ऊँचे किनारे पर बनी चौड़ी सड़क के अंदर थी पंजतीर्थी| महाराजा हरी सिंह का राज महल इस सड़क के एक छोर पर था और दूसरे छोर पर थी ‘मुबारक मंडी’| इसी मंडी में बड़ी शान से खड़े थे पुराने महल जो इस पीढ़ी के पुराने राजाओं के वैभव का प्रतीक था| मंडी के बीचोबीच संगमरमर की सीढ़ियों वाला एक सुन्दर सा बाग़ था| इस बाग़ में कई तरह के फ़व्वारे लगे थे| चारों ओर खुश्बूदार पेड़ भी थे| इन सभी पेड़ों में से मुझे मौलश्री का पेड़ बहुत पसंद था क्यूँकि उसके फूलों की खुश्बू सब से अलग थी| इसकी खुश्बू के आगे मुझे सारे इत्र फीके लगते हैं|
इस मंडी और राजमहल को आस- पास थे दो बाज़ार| एक का नाम था धौन्थली और दूसरा था पक्का डंगा| इन दोनों बाज़ारों की एक विशेषता थी| दोनों पत्थर के बने थे| यानी सड़कें तो तारकोल की थी किन्तु जम्मू के सारे बाज़ारों में पत्थर लगे हुए थे| गाड़ियाँ तो चलती नहीं थी इन बाज़ारों में और उन दिनों न तो स्कूटर थे न धुआँ छोड़ने वाले अन्य वाहन| फिर भी दिन में दो बार इन बाज़ारों के पत्थरों पर पानी का छिड़काव होता था और वो छिड़काव करने वाले थे हमारे प्यारे ‘माश्की काका’|
उनका नाम क्या था, मैं नहीं जानती| थोड़े से भारी शरीर वाले माश्की काका अपनी मश्क में पानी भर कर बाज़ार के बीचोबीच चलते जाते और दोनों और मश्क के मुँह से पानी फेंकते जाते| अमूमन उस समय हम या तो स्कूल जा रहे होते या आ रहे होते| मुझे याद है काका सब बच्चों के साथ खिलवाड़ भी करते रहते| इधर-उधर पानी छिड़कते-छिड़कते वो मश्क को इतनी जोर से गोल गोल घुमाते की बच्चों पर छींटे पड़ते| सारे बच्चे खिलखिला कर हँस देते और उनके पीछे पीछे चलते हुए यही कहते, “ काका! पानी फेंको न और, अभी मज़ा नहीं आया|”
मुझे याद है कभी-कभी काका खड़े हो जाते बीच बाज़ार और हम बच्चों से कहते, “ देखो, पानी बहुत मूल्यवान है, इसे व्यर्थ में नहीं गंवाना चाहिए| नहीं तो बादल, नदिया और समन्दर सब हमसे रूठ जाएँगे और फिर सूख जाएँगे|”
हमें उनकी बातों की समझ तो आती नहीं थी| भला बादल या नदिया कैसे सूख सकते हैं? और समन्दर तो हमने देखा ही नहीं था तो उसके विषय में हम क्या निर्णय ले सकते थे| हाँ, उनकी बातों से एक बात झलकती थी कि उनको पानी से बहुत लगाव था| शायद वे शहर के उत्तरी किनारे में बहती ‘तवी’ नदी का पानी अपनी मश्क में भर कर लाते थे| और उस नदी तक पहुँचने के लिए नीचे ढल कर जाना पड़ता था| या वे हम सब को जल संकट के विषय से अवगत कराना चाहते थे|
जब मैं बहुत छोटी थी तो मश्क का आकार और मुँह देख कर थोड़ा डर सी जाती थी| एक बार भिश्ती काका से पूछ ही लिया था मैंने, “ काका आपने किस चीज़ का थैला बनाया है? (मुझे उनकी मश्क थैले जैसी ही लगती थी)
हँसते हुए काका ने बताया था कि जब कोई बकरी बूढ़ी होकर मर जाती है तो उसकी खाल से हम यह थैला बना लेते हैं| फिर इसमें पानी भर कर बाज़ार के पत्थरों पर छिड़काव करते हैं| उन दिनों यह बातें समझ नहीं आती थी| पर अब लगता है कि पत्थरों पर पड़ी धूल-मिट्टी न उड़े, इसी लिए छिडकाव होता होगा| राज महल से मंडी तक आने वाली बडी सड़क पर तो दिन में तीन- चार बार काका इधर से उधर आते-जाते अपनी मश्क से पानी छिड़कते रहते|
 काका मुस्लिम थे, यह मेरे पिता ने मुझे बताया था| बहुत बाद में मुझे पता चला था की उनकी कोई अपनी सन्तान नहीं थी| वो  हम सब बच्चों के साथ ही खिलवाड़ करके अपना जी बहला लेते थे| कभी- कभी वो हम बच्चों में संतरी रंग की गोलियाँ (टॉफियाँ) बाँटते थे| शायद तब उनकी ईद होती थी| हाँ, एक बात और याद आती है कि बाज़ार के कृतज्ञ दुकानदार उन्हें कुछ पैसे देते थे जिसे आज के समय में ‘टिप’ कहा जा सकता है|
 उनका नाम मुझे याद नहीं| वो मेरा नाम कैसे जानते थे, मुझे पता नहीं | पर जब भी वो मुझे देखते तो मुस्कुराते हुए कहते, “ गुड्डी!  तुसाँ दूर उड्ड जाना, फेर असाँ नेई मिलना”| ( गुड़िया! तूने बहुत  दूर उड़ जाना और फिर हमने नहीं मिलना) शायद उन्हें पता था की मेरे माता पिता शहर से दूर एक नया घर बनवा रहे थे और वो हम से बिछुड़ने का दर्द इसी तरह ब्यान करते थे|
हम जम्मू का पुराना शहर छोड़ कर नई जगह ‘गाँधीनगर’ आकर बस गए| इस बीच वो बाज़ार भी तारकोल के बन गए| अब सड़कों पर पानी का छिड़काव शायद मयुन्स्पैलिटी की गाड़ियाँ करने लगीं| या इसकी आवश्यकता ही नहीं होती होगी| समय जो इतना बदल गया था| कुछ चीज़ों का कोई महत्व नहीं रह गया था|
मेरे बड़े होते-होते माश्की काका कहाँ खो गए, मुझे पता ही नहीं चला| लेकिन मेरी सुधियों की किसी पिटारी में वो सदा रहे| कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरा और उनका सम्बन्ध भी रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी ‘काबुली वाला’ की ‘मिनी’ और ‘काबुली वाला’ की तरह था| वे ठीक ही तो कहते थे ---गुड्डी तुसाँ उड्ड जाना------
मैं तो हूँ, किन्तु मेरे माश्की काका समय के पंख लगा कर कहीं उड़ गए| अब कभी कभी नभ में उड़ते बादलों में उनको देख लेती हूँ | वो वहीं होंगे, अपनी मश्क के साथ, धरती पर जल का छिड़काव करते हुए-------

·        मैंने इस रचना में ‘भिश्त’ के स्थान पर ‘मश्क’ शब्द का प्रयोग किया है| जम्मू में हम सब लोक भाषा में ‘भिश्त’ को ‘मश्क’ ही कहते थे और भिश्ती को कहते थे ‘माश्की’|








 


शनिवार, 15 फ़रवरी 2020



" दस्तक टाइम्स ' की सम्पादक सुमन सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार |



शशि पाधा जी के लिए लेखन भावों-अनुभावों से जूझना है। आप मूलत: कवयित्री हैं। हालाँकि गद्य-पद्य दोनों में ही समभाव सृजनरत हैं लेकिन कविता मन-प्राण में समाई रहती है। आप की रचनाओं का मूल स्वर प्रेम, सम्वेदना और देशप्रेम का है। मूलत: जम्मू की निवासी शशि जी की अब तक तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके हिन्दी काव्य संग्रह अनन्त की ओरको हिन्दीतर भाषी पुरस्कार मिल चुका है। अपने परिवार के साथ लम्बे समय से अमेरिका में रहते हुए भी आप हिन्दी भाषा व साहित्य से अगाध नेह रखती हैं। शशि जी नार्थ केरोलाईना विश्वविद्यालय में हिन्दी अध्यापन भी कर चुकी हैं। इस आत्मीय बातचीत में उनके व्यक्तित्व-कृतित्व के कई पहलू उजागर हुए हैं। विश्वास है कि दस्तक की साहित्य-संपादक सुमन सिंहके साथ शशि पाधा जी की यह बातचीत उनके सुधी पाठकों और भविष्य के शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

शशि जी, आपका बचपन पहाड़ों की गोद में बीता, प्रकृति अनन्य सहचरी रही आपकी कविताओं में वह नैसर्गिक सौन्दर्य और साहचर्य दिखता है आपकी स्मृतियों में बाल्यावस्था के वे दिन किस रूप में और कितने सुरक्षित हैं?



मेरा जन्म पर्वतों की गोद में बसे मन्दिरों के शहर जम्मू में हुआ था इस नगर के उत्तर में माँ वैष्णो देवी की पहाड़ी है। इस पहाड़ी के दर्शन हम प्रतिदिन सुबह उठते ही करते थे। जम्मू से कुछ ही मील दूर आरम्भ हो जाता है पहाड़ियों का नैसर्गिक सौन्दर्य हमारा ग्रीष्मकालीन अवकाश भी इन्ही पहाड़ियों में बसे किसी गाँव में बीतता था, जहाँ धुन्ध आकर हमें छिपा लेती थी, शीतल झरने गुनगुनाते थे और चीड़-देवदार के वृक्ष हमारे सहचर हो जाते थे। यही देखा और यही मन में बस गया। शायद वहीं से काव्य का बीज मन में अंकुरित हो गया। माता-पिता दोनों ही शिक्षक थे तथा साहित्य एवं संगीत में विशेष रुचि रखते थे। घर में सुबह संस्कृत के पावन श्लोक तथा शाम को आरती वन्दन के मधुर स्वर गूंजते थे। मुझे याद है, नगर में कभी भी कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होता तो हम सपरिवार उसे देखने जाते थे। पिता और माता आल इण्डिया रेडियो’, जम्मू के कई कार्यक्रमों में अपने विचार देते थे और भाई जम्मू रेडियो के सुप्रसिद्ध गायक थे। अत: मैं भी इस जम्मू रेडियो से बचपन से ही जुड़ गई। घर में भी हर महीने संगीत सभा अथवा काव्य संध्या का आयोजन होता था और हम हर आयु में उसमें भाग लेते थे। यह सब अब विशेष लगता है क्योंकि जीवन इतना तेजी से भाग रहा है। उन दिनों तो यही हमारी दिनचर्या थी। पुस्तकें, पत्रिकाएँ आसानी से उपलब्ध थीं तो पढ़ने का शौक भी बचपन से ही हो गया। स्कूल में भी हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया और कई पुरस्कार भी पाए। अब आँखें बंद करके जब भी अपने अतीत में लौटती हूँ तो लगता है कितने सुखद दिन थे वो!

आपने लिखना कब शुरू किया?

शायद बचपन से ही। त्योहारों में खेल-खेल में गाने बनाकर सखियों संग कार्यक्रम प्रस्तुत करना मुझे अभी तक याद है। लेकिन पहली रचना एक कविता थी जो आठवीं कक्षा में रची थी, बस कच्ची-पक्की, फिर कॉलेज में पढ़ते हुए रेडियो के कार्यक्रम के लिए कहानियाँ भी लिखीं। वहीं से सिलसिला शुरू हुआ। सैनिक जीवन में कार्यक्रमों के लिए हास्य एकांकी या कव्वाली लिख दी। यह सब शौक तो थे लेकिन गम्भीर लेखन बहुत बाद में ही हुआ, यानी उम्र के चौथे दशक तक आते-आते।

आपकी पहली प्रकाशित रचना कौन सी थी, जिसने निरन्तर सृजन को प्रेरित किया?

पहली प्रकाशित रचना तो कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में लिखी एक कहानी थी, लेकिन सृजन को गति देने वाली पहली रचना मुझे कभी नहीं भूल सकती। कारगिल युद्ध अपने पूरे संहारिक रूप में ताण्डव कर रहा था। मन बहुत क्षुब्ध भी रहता था और सैनिकों के शौर्य और बलिदान को देखकर गर्व भी होता था। उन्हीं दिनों एक रचना लिखी थी जो एक प्रसिद्ध दैनिक समाचार पत्र पंजाब केसरीके मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। शीर्षक था हम लौटें कल या न लौटें। इस रचना पर बहुत से पत्र मिले, प्रतिक्रियाएँ आईं तो बस लेखनी तीव्र गति से दौड़ने लगी। तब से जो चली, अभी तक यात्रा चल रही है।

अमेरिका में जाने का संयोग कैसे बना?

सुमन जी, अमेरिका जाना और जाकर बसना मेरे लिए बहुत कष्टदायी निर्णय था। सैनिक पत्नी होने के नाते वैसे भी यायावरी जीवन ही व्यतीत किया। पति के सेवानिवृत होने पर सोचा था एक स्थान पर रहकर लेखन पर अधिक ध्यान दूँगी। किन्तु दोनों बेटे अमेरिका में पढ़ाई करके वहीं बस गए थे। परिवार के साथ रहने का मोह हमें यहाँ खींच लाया। शुरू में तो बहुत कठिन लगा, वैसे ही जैसे एक पेड़ को समूल उखाड़कर दूसरी जगह रोपने जैसा। अब अच्छा लगता है परिवार भी है और स्नेही मित्र भी। हाँ, देश की याद तो बहुत ही आती है।

प्रवासवास ने आपके रचनात्मक मन को कितना प्रेरित-प्रभावित किया?



आरम्भ के दिनों में तो बहुत कठिनाइयाँ आईं। मैं लिखना चाहती थी, खूब पढ़ना भी चाहती थी किन्तु कहीं कोई हिन्दी की पत्रिका, पुस्तक नहीं मिलती थी। तब बहुत सी ऐसी रचनाएँ लिखी जिनमें देश से, घर से दूर रहने की पीड़ा ही शब्दबद्ध हुई। कुछ भी अपने जैसा नहीं लगता था, न प्रकृति, न लोग और न ही दृश्य इसीलिए मन भावुक अधिक रहता था। फिर उसी वातावरण में सौन्दर्य को ढूँढने का, नये रिश्ते बनाने का प्रयत्न किया। इसी तरह लेखन को विस्तार मिला, नई सोच भी मिली। मैं वर्ष 2002 में यहाँ आई थी। कुछ हिन्दी की पुस्तकें अपने साथ लाई थी। बार-बार उन्हें ही पढ़ती थी फिर धीरे-धीरे अन्तर्जाल पर आने वाली पत्रिकाओं से परिचय हुआ। सबसे पहले मुझे किसी मित्र ने अंतर्जाल पर हिन्दी में प्रकाशित होने वाली पहली पत्रिका अभिव्यक्ति -अनुभूतिका लिंक भेजा। मेरे लिए तो जैसे कुबेर का ख़जाना मिल गया। सच कहूँ तो देश से मीलों दूर अपने कम्प्यूटर पर हिन्दी की इतनी अच्छी पत्रिका को पढ़ पाना मेरे लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसी बात थी। साथ ही उन दिनों मैं नॉर्थ कैरोलिनाराज्य के डरहम नगर में रह रही थी। वहाँ पर हिन्दी विकास मण्डल’, ‘अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी समितिआदि संस्थाएँ हिन्दी के विकास-प्रचार में बहुत सक्रिय थीं। यूँ समझिए कि मुझे मित्र भी मिले और मंच भी मिला। यह संयोग ही था कि मेरा यहाँ बसे बहुत से लेखकों से मिलना-जुलना हुआ। यहाँ पर मासिक काव्य गोष्ठियाँ भी होती थीं, भारत से आए वरिष्ठ कवियों के लिए कवि सम्मेलनों का आयोजन भी होता था। इन सब गतिविधियों से मुझे प्रेरणा भी मिली और लेखन को गति भी। अमेरिका में हर राज्य में हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए कई सम्मेलन-कार्यक्रम होते रहते हैं। मैं भी इन में भाग लेने का प्रयत्न करती हूँ। जब वातावरण मिला तो स्वाभाविक है कि लेखन भी प्रभावित-विस्तृत हुआ।

आपने भारत में हिन्दी-संस्कृत और फिर अमेरिका में चैपल हिल विश्वविद्यालय, नार्थ केरिलाइनामें हिन्दी भाषा का अध्यापन कार्य किया, इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण अनुभव साझा करना चाहेंगी?

सुमन जी, दोनों अनुभव बहुत ही भिन्न थे। भारत में मैंने जम्मू के महिला कॉलेज में सबसे पहले हिन्दी और संस्कृत भाषा के अध्यापन का कार्य किया था। वहाँ पर अध्यापक के पास नियत पाठ्यक्रम होता है, पुस्तकें होती हैं, लाइब्रेरी होती है। सबसे बड़ी बात यह होती है कि विद्यार्थी को भाषा तो आती है, उन्हें केवल साहित्य की विभिन्न विधाओं से परिचित कराना होता है। अमेरिका में तो क्लास में 50 प्रतिशत विद्यार्थी हिन्दी भाषा के विषय में कुछ नहीं जानते। उन्हें वर्णमाला की सहायता से अक्षर ज्ञान कराना होता है। चित्रों की सहायता से वाक्य विन्यास सिखाना पड़ता है। यहाँ किसी भी विश्वविद्यालय में कोई निर्धारित कोर्स नहीं होता। आपको अपने अनुभव से, विभिन्न प्रशिक्षण सामग्री के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराना होता है। केवल भाषा ही नहीं साथ-साथ भारतीय संस्कृति से भी परिचित कराना होता है, तभी तो विद्यार्थी भाषा से जुड़ेंगे, उसे अपनाएंगे। मुझे भारत में पढ़ाने और यहाँ पर पढ़ाने की टेक्निक में धरती आसमान का अन्तर लगा। एक चुनौती थी, जिसे निभाने में मैं जुट गई और बहुत ही आनन्द की अनुभूति हुई। वास्तव में हिन्दी है ही वैज्ञानिक भाषा। जो लिखा, वही पढ़ा-बोलो तो इस प्रकार भाषा का ज्ञान कराने में कोई कठिनाई नहीं हुई। मेरी कक्षा में विभिन्न देशों के विद्यार्थी थे। कई भारतीय मूल के थे, जिनके घर में हिन्दी बोली जाती थी, लेकिन वे पढ़-लिख नहीं सकते थे इसीलिए यहाँ पढ़ने आते थे। कुछ अमेरिकी, जापानी, और ब्रितानी विद्यार्थी भी थे जो भारत की संस्कृति से प्रभावित थे या भारत जाकर कोई व्यवसाय करना चाहते थे। वे बहुत ही मनोयोग से, मेहनत से सीखते थे और परीक्षा में अंक भी बहुत अच्छे लेते थे। इस प्रकार विभिन्न संस्कृतियों से आए विद्यार्थियों को पढ़ाने में बहुत आनन्द आता था। कुछ पारिवारिक कारणों से मुझे यह काम छोड़ना पड़ा नहीं तो मेरे लिए ये स्वर्णिम दिन थे।

सैनिकों के शौर्य और बलिदान से सम्बन्धित आपकी कई रचनाएँ पढ़ने को मिलीं, इन रचनाओं को लिखने के मूल कारण क्या थे?

सुमन जी, मैंने अपने जीवन का अधिकांश भाग सैनिकों के साथ ही बिताया है। विवाह के बाद मैंने वही दुनिया देखी। सैनिक परिवारों का जीवन कुछ अलग-थलग होता है। मैंने उन्हें हर रूप, हर किरदार में देखा है। शौर्य, देश भक्ति, कर्तव्य परायणता, सद्भाव, मानव सेवा, यह सभी गुण उनमें सदैव विद्यमान रहते हैं। वो बागबानी भी उतनी ही तन्मयता से करते हैं जितनी लग्न से सीमा रक्षा। कोई सैनिक केवल घातक नहीं होता। राष्ट्र रक्षा उसका धर्म और कर्म होता है और इसके लिए वो शत्रु का संहार करता है। मैंने अपने सैनिक जीवन काल में युद्ध पर जाते हुए योद्धाओं को विदा किया है। शहीदों के परिवारों को सम्भाला भी है और आशंकाओं से जूझती हुई सैनिक पत्नियों के मन में उत्साह और भरोसा भरने का प्रयत्न भी किया है। रचनात्मकता तो स्वभाव में थी ही। जब ऐसी परिस्थितियाँ आईं तो कविता का रुख भी उस ओर ही मुड़ गया। कारगिल युद्ध में और उसके बाद कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों में मैंने बहुत से अपनों को खोया है। मैं उनके शौर्य और पराक्रम से अभिभूत भी हुई हूँ और उन्हें खोने के दु:ख से दुखी भी। मैंने यह भी देखा कि सैनिक तो एक बार युद्धक्षेत्र में वीरगति प्राप्त कर अमर हो जाता है किन्तु उसके परिवार के लिए जीवन युद्ध वहीं से आरम्भ होता है। कई प्रशासनिक सहायताओं के होते हुए भी परिवार का जीवन बदल जाता है। बस यही सोचकर मैंने अपनी लेखनी के द्वारा आम जनता तक सैनिकों की शौर्य गाथाओं के साथ-साथ उनके परिवारों के जीवन के विषय में भी आलेख- संस्मरण लिखने आरम्भ किए। इन्हें पुस्तक बद्ध रूप में प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया। इस संग्रह का नाम है शौर्य गाथाएँ। इच्छा यही है कि आज की युवा पीढ़ी इन वीरों की पराक्रम गाथाओं को पढ़ें और उनसे प्रेरणा पाएँ।

आपकी रचनाओं में प्रेम की सुकोमल अभिव्यक्ति प्रधान है, इसका कोई विशेष कारण?

प्रेम में मेरी गहरी आस्था है। मुझे प्रकृति के क्रियाकलापों में, सूर्य के उदय-अस्त के सुनहरे दृश्य में, साँझ की ढलती चाँदी घुली आभा में, पुष्प के खिलने में, पवन का पत्तियों को छूने में, हर माँ की आँख में, धूप-छाँव की आँख-मिचौली में, प्रेम तत्व ही प्रधान दिखाई देता है। जब साहित्य पढ़ना-समझना आरम्भ किया सूर, मीरा, कबीर, जायसी की रचनाओं में प्रेम तत्व को पाकर अभिभूत हो गईे क्योंकि मैं स्वभाव से भावुक हूँ, अत: इसी प्रेम रस की स्याही में डूबी मेरी लेखनी से काव्य प्रस्फुटित हुआ। फिर सैनिक जीवन में भी संयोग और वियोग के बहुत से अवसर आए। इस प्रकार आरम्भ में जो भी लिखा, प्रेम ही लिखा। जीवन के इस मोड़ पर अब दृष्टी प्रेम से परे अन्य क्षेत्रों पर भी टिकती है। अब तो कविताओं में अन्य विषय भी समाहित हो गए हैं। किन्तु जब भी लिखने बैठती हूँ कविता का पहला अक्षर प्रेम ही लिखा जाता है। मेरी एक रचना भी है – ‘‘मानस के कागज पर प्रीतम दो अक्षर का गीत लिखा। पहला अक्षर नाम तुम्हारा, दूजा तेरी प्रीत लिखा।’’

आपकी रचनाओं में जो छायावादी सौन्दर्य परिलक्षित होता है, वह किस कारण से है? क्या तत्कालीन छायावादी कवियों की रचनाओं का असर उन पर है?

जब बचपन से हिन्दी की रचनाएँ पढ़नी आरम्भ कीं तो महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पन्त, मैथिली शरण गुप्त, रामधारी दिनकर को पढ़ा। उससे पहले स्कूल की पढ़ाई में भी मुझे कबीर की रचनाएँ बहुत अधिक प्रभावित करतीं थी। कबीर के दोहे तो हमारे घर में हर परिस्थिति में एक दीपक के समान मार्गदर्शन करते थे। मुझे याद है कि मैंने जय शंकर प्रसाद की कामायनीको जितनी बार पढ़ा, हर बार उसमें कुछ नया ही ढूँढती रही। महादेवी जी के काव्य संग्रह पढ़कर मन अलौकिक संसार में विचरण करने लग जाता था। मैं उनकी पीड़ा के कारण को समझने का प्रयास करती थी और जो नहीं समझती थी वो अपनी विदूषी माँ से पूछती थी। शायद यही कारण है कि मेरी रचनाओं में छायावाद का प्रभाव आया। मुझे तो स्वयं इस बात का कभी भी पता नहीं चला। मेरे पहले काव्य संग्रह पहली किरणके प्रकाशित होने के बाद पाठकों/समीक्षकों ने मुझे इस बात से परिचित कराया। हाँ, प्रकृति मेरी सहचरी है और वही मेरी लेखनी की नोंक पर बैठी मुझसे लिखवाती है। छायावाद और प्रकृति का विशेष सम्बन्ध है। अत: हो सकता है प्राकृतिक सौंदर्य को देखते-देखते मैं छायावाद की ओर मुड़ गई, किन्तु यह आनायास हुआ। मुझे स्वयं भी इसकी पदचाप सुनाई नहीं दी। सुमनजी, आप जब यह कहती हैं या कोई और पाठक मित्र यह कहता है कि मेरी रचनाओं में महादेवी जी की परछाईं है तो मुझे खुशी और हैरानी दोनों ही होती है। महादेवी जी की कालजयी लेखनी अगर मेरी प्रेरणा का स्रोत है तो यह मेरे लिए गर्व की बात है। हाँ, मैं नतमस्तक होकर यह अवश्य कहना चाहूँगी कि वो सागर हैं तो मैं एक बूँद ही हो सकती हूँ।

आप कविता के साथ ही साथ गीत, नवगीत, दोहा हाइकु भी लिखती हैं, इस लेखन वैविध्य को इतनी कुशलता से कैसे निभा लेती हैं?

सुमन जी, रचनात्मकता तो एक काल्पनिक स्पन्दन है, उद्वेग है जिसे शब्दों में बाँध लिया जाता है। मैं आरम्भ में तो केवल गीत ही लिखती थी किन्तु धीरे-धीरे काव्य की अन्य विधाओं से परिचय हुआ तो इन्हें लिखने में आनन्द आने लगा। दोहे लिखने में मात्राओं का जो अनुशासन होता है वो मुझे चुनौती देता है। इसी प्रकार मैं माहियाभी लिखती हूँ जो एक बहुत ही मधुर छन्दबद्ध रचना होती है। हाइकू लिखना भी कला ही है जिसे अभ्यास से परिष्कृत किया जा सकता है। नवगीत तो गीत ही है। केवल उसके कथ्य में आँचलिकता, लोकतत्व रहता हैे यह सब विधाएँ तो धीरे-धीरे लेखन में आई। इसके साथ ही मैं संस्मरण और आलेख भी लिखती हूँ। क्षणिकाएँ और लघुकथाएँ भी कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। यह सोचकर नहीं लिखती हूँ कि आज क्या लिखना है। मेरी कल्पना को उस समय जो भाता है उस विधा में लिख लेती हूँ। हाँ, एक बात अवश्य कहना चाहूँगी, बहुत सी रचनाएँ तो अन्य लेखकों की रचनाएँ पढ़कर, उनसे प्रेरित होकर लिखी हैं। नहीं तो कभी नहीं सोचा था कि गद्य में भी लिखूँगी। किन्तु अब लिखती हूँ तो अच्छा लगता है।

आपकी लेखन के अतिरिक्त अन्य रुचियाँ?

पढ़ना और खूब पढ़ना। कुछ भी मिले, उसे पढ़ना। हाँ, सार्थक होना चाहिए। संगीत सुनना भी बहुत पसन्द है।

समकालीन लेखकों में से किससे प्रेरित प्रभावित हैं?

जब बड़ी हो रही थी तो शिवानीकी रचनाओं से बहुत प्रभावित थी। उनके स्त्री पात्रों के चरित्र विश्लेषण ने मुग्ध कर दिया था। अब आप कहें कि कोई एक नाम लूँ तो निर्णय नहीं ले पाऊँगी। अंतर्जाल पर ही कितना साहित्य उपलब्ध है। बहुत लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। जो अच्छा लगे पढ़ती हूँ और प्रेरित भी होती हूँ। कोई विशेष नाम नहीं ले सकती क्यूँकि विदेश में रहने से पुस्तकें तो कम ही उपलब्ध हैं।

इन दिनों क्या व्यस्तता है?

सुमन आप तो जानती हैं, भारतीय सेना जम्मू-कश्मीर में किस प्रकार आतंकवाद से जूझ रही है। प्रतिदिन हम कितने वीरों को खो रहे हैं, कितने परिवार अनाथ हो रहे हैं। कुछ दिनों के लिए तो जनता उन्हें याद करती है लेकिन उसके बाद उनके परिवार अकेले पड़ जाते हैं अपने युद्ध से जूझने के लिए। मैं प्रयत्न कर रही हूँ कि उन रणबांकुरों की वीर गाथाओं के साथ-साथ उनके परिवार को भी सामने लाऊँ, उनसे मिलूँ, उनके बच्चों के भविष्य के विषय में जानूँ और अन्य लोगों तक उनकी जीवन गाथा पहुँचाऊँ । इसी प्रकार, परिवारों से मिलकर, फोन पर बात करके उनके विषय में लिखूँ। बस यह एक जीवन ध्येय बना लिया है। वैसे तो हम सब विश्व शान्ति की ही कामना करते हैं किन्तु जो हो रहा है उसे तो हम नजरअंदाज़ नहीं कर सकते। बाकी लेखन तो एक अनवरत यात्रा है, कई पड़ाव आएँगे देखिए, भविष्य की गठरी में मेरे लिए क्या-क्या है?

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020


                 यादों की धरोहर - मुग्गनी
                                 शशि पाधा

सिरहाने रक्खी रहती है यादों की गठरी | जब मन लौटता है वहाँ, जहाँ इसे बाँधना शुरू किया था तो खोल लेती हूँ कभी-कभी | बहुत सी चीज़ें हैं इसमें -- सफ़ेद लट्ठे से बनी बड़ी-बड़ी काली आँखों वाली गुड़िया, कुछ लाल पीले रिब्बन, लाल वर्क वाली छोटी सी कश्मीरी कांगड़ी, हरिद्वार–इलाहावाद से लाए हुए लकड़ी के रंगबिरंगे गीटे, मोतियों की बालियाँ,प्यारी सहेली का दिया मेरा नाम कढ़ा –रुमाल | देखिए न ! हूँ न मैं कितनी धनी, यादों की धनी |
उसी गठरी से झाँक रही है मेरी छोटी सी मुग्गनी | आप इसे गुल्लक भी कह सकते हैं या गोलक भी | लेकिन मैं तो इसे मुग्गनी ही कहूँगी क्यूँकि मेरी इससे पहचान इसी नाम से हुई थी |
उन दिनों त्योहारों पर बच्चों को पैसे मिलते थे | मुझे जो याद है आपको डोगरी भाषा में उन पैसों के नाम बताती हूँ | पैसा, आन्ना, दोआन्नी, चौआन्नी, अठन्नी और रुपया | पैसा ताम्बे का होता था और दो तरह का था | एक तो पूरा गोल और दूसरा मोरी वाला | (डोगरी में मोरी यानी सुराख) यानी अगर आप पैसे को बीच में गोल सुराख़ कर दें तो वो मोरी वाला पैसा बन जाता था | राज़ की बात बताऊँ ? इन पैसों की बहुत बरकत थी | एक आन्ने से पूरे के पूरे गोल-गोल, नर्म-नर्म बुड्डी के बाल मिल जाते थे | अब आप पूछेंगे की बुड्डी के बाल क्या होते हैं | चीनी के तारों को गोल-गोल घुमा कर एक बड़ी सी नर्म गेंद का आकार दे दिया जाता था उसे बुड्डी के बाल कहते थे |  आज के जमाने में बच्चे जिसे कॉटन कैंडी कहते हैं न, वहीईई---|
इससे पहले कि मेरी उम्र के सभी लोगों के मुँह में पानी आ जाए, मैं आपसे अपनी मुग्गनी की पहचान करा देती हूँ |  दिवाली पर हम बच्चों को उपहार मिलते थे | मेरे स्नेही मामा ने मुझे मिट्टी की एक मुग्गनी दी और कहा, “ गुड्डी! अब अपने सारे पैसे इसमें जमा करना |” यानी पैसे जोड़ने और बचाने की पहली सीख शायद पाँच –छह साल की आयु में ही मिल गई थी |
मेरी मुग्गनी मिट्टी की थी और एक सुराही की शक्ल की थी | उसके सिर के बीचो-बीच एक पतला सा सुराख था जिसमें हम पैसे डाल सकते थे |चाक पर मिट्टी के घड़े आदि गढ़ने वाले कुम्हार ही इसे बड़ी सोच से बनाते थे क्यूँकि इसमें पैसे डाल तो सकते थे, निकाल नहीं सकते थे |



मुग्गनी मिलने पर मैं इतनी खुश थी कि सोते जागते बड़ी ही सावधानी से इसे किसी सुरक्षित जगह पर ही रखती थी | शुरू-शरू में तो बड़े चाव से सबने आन्ना-दुआन्नी दी और मैंने उन पैसों को मुग्गनी की भेंट चढ़ा दिया | कभी उसे छनका के देखती तो पैसों की खनक सुन कर तन मन नाचने लगता | कभी दादी माँ जिसे मैं प्यार से ‘बेबे’ कह के पुकारती थी, अपनी ओढ़नी की गिरह में बंधे पैसे गिन रही होतीं तो मैं बड़प्पन से भीगे शब्दों में कहती, “ दादी! कम तो नहीं हैं आपके पास पैसे ? चाहिए तो मैं दे दूँ ?
बेबे बड़े प्यार से गले लगाती और कहती, “ तू भागों वाली है गुड्डी | प्रभु करे तेरी मुग्गनी हमेशा भरी रहे |”  नही जानती थी तब कि ‘भाग’ क्या होता है| लेकिन यह जानती हूँ कि उनके आशीषों के कारण कभी कोई कमी नहीं हुई |
अब एक समस्या खड़ी हो गई | त्योहारों का सिलसिला ख़त्म हो गया और मुग्गनी तो आधी खाली ही रही| बहुत देर प्रतीक्षा की कि कहीं से पैसे मिलें लेकिन कुछ ख़ास मौका हो तो मिलें न | अभी तक मैं ख़ास मौके की प्रतीक्षा कर ही रही थी कि जलंधर से छोटे मामा मिलने के लिए आ गए | मामा हमारे लिए बहुत से उपहार लाए | हम सब उनके आने पर बहुत खुश थे | पता नहीं मेरे भोले से मन में क्या विचार आया कि मैं झट से अपनी मुग्गनी  लेकर मामा जी के पास गई और कहा, “यह देखिए मेरी नई मुग्गनी | इसमें मैं पैसे डालती हूँ |”
मामा ने बिना देर किए अपनी जेब से सारी रेजगारी निकाली और एक-एक कर के मेरी मुग्गनी के पतले से होठों में पैसे डालने शुरू किए | जब पैसा अंदर डल जाता तो मैं ताली बजा कर नाचती और जब मुँह में फंस जाता तो उत्सुकता से मामा की उँगलियों की ओर देखती रहती | मेरे जलंधर वाले मामा बहुत धनी नहीं थे, लेकिन उनका मन राजाओं सा था |
उस दिन मेरी मुग्गनी भी आधी से ज़्यादा भर गई | अब मेरे नन्हें-नन्हें पाँव धरती पर पड़ नहीं रहे थे, उड़ रहे थे |
अब तो यह खेल कई बार खेला| उधमपुर से मौसा जी आए या बड़ी ब्याही बोबो ससुराल से आई | मैं अपनी मुग्गनी उनके पास ज़रुर ले जाती | कभी माँगा तो नहीं कुछ लेकिन, शायद उन दिनों बच्चों को पैसे देना हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण भाग था | याद है जब भी कोई सम्बन्धी घर में कुछ दिनों के लिए रह कर जाता तो विदा के समय बच्चों के हाथ में कुछ न अवश्य थमाता | उन दिनों बहुत से उपहार लाने या देने का रिवाज़ नहीं था | प्लास्टिक तो था नहीं | खिलौने या तो मिट्टी के या बाद में पोर्सलीन के बनते थे | मेरे पास तो केवल सौंधी सी खुश्बू वाली मिट्टी की मुग्गनी ही थी|
दिवाली पर हमारे यहाँ एक प्रथा थी | लक्ष्मी पूजा के बाद पूजा का दीपक हम अपने पिता के सामने रखते थे | पूजा के बाद पिता आशीर्वाद में एक रुपया या दो रूपये का नोट हमें देते थे | फिर उस नोट को मुग्गनी में डालने की जद्दोजेहद शुरू हो जाती थी | मुग्गनी का मुँह छोटा, पतला और नोट को उसमें डालने के लिए दो-तीन तहों में मोड़ा जाता और फिर बड़ी सावधानी से उसे मुग्गनी के सुपुर्द कर दिया जाता | नोट कागज़ी होता था, उसकी ख़नक तो थी नहीं | इसलिए उसे पाकर कोई ज़्यादा खुशी नहीं होती थी |
एक दिन की बात बताऊँ | हमारे घर में आँवले और गाजर का मुरब्बा बनता था | इस मुरब्बे को बड़े-बड़े मर्तबानों में भर कर अलमारी में रख दिया जाता था | इसे हम जूठा हाथ न लगा दें, हमें मुरब्बे को स्वयं मर्तबान से निकाल कर खाने की अनुमति नहीं थी | बेबे दे या माँ दे | उसी अलमारी में मेरी मुग्गनी भी पड़ी रहती थी | उन दिनों न तो बच्चों का अलग कमरा होता था न अलमारी | बस एक स्टोर की अलमारी में सभी अच्छी-अच्छी चीज़ें रखी रहती थीं | मेरे लिए तो मेरी भरी-भरी मुग्गनी सब से कीमती चीज़ थी |मुरब्बे के मर्तबानों के पीछे मैंने उसे सहेज कर रख दिया था | एक दिन कुछ पैसे डालने के लिए मुग्गनी उतारने लगी तो मुरब्बों पर नजर पड़ी| मन ललचा गया | स्टूल पर चढ़ कर मर्तबान का ढक्कन खोला और गाजर हाथ में लेकर वहीं स्टूल पर बैठे-बैठे खा गई | जिह्वा और मन तृप्त हुआ और बड़े चाव से मर्तबान के पीछे पड़ी मुग्गनी उतारने लगी | पता नहीं स्टूल हिल गया या चाशनी से सना मेरा हाथ मुग्गनी से चिपक गया, मैं मुग्गनी समेत स्टूल से गिर गई | अपने आस-पास देखा तो टूटी मुग्गनी के मिट्टी के टुकड़ों के साथ अनगिनत आन्ने , दुआन्नियाँ , चवन्नियां बिखरी पडी थीं | कहीं-कहीं से कोई नोट भी झाँक रहा था |
मैं बहुत डर गई थी और सुबकने लगी थी | पता नहीं  गिरने से चोट का दर्द था या मुग्गनी के टूटने का | पर मैं बहुत रोई थी | बेबे ने बड़े प्यार से सारे पैसे इकट्ठे किए, रुमाल में बाँधे और कहा, “ देख , मिट्टी की चीज़ है, टूट गई | चीज़ें टूटने पर रोते नहीं |”
चीज़ें टूटने पर रोते नहीं ??? यह बात तो मुझे बहुत सालों के बाद समझ आई | उस दिन तो मैं अपनी सब से प्रिय धरोहर के टूटने से खुद भी टूट गई थी |
बहुत दिनों के बाद मुझसे पिता ने पूछा, “ गुड्डी! तुझे नई मुग्गनी ला दें ? अब तो बाज़ार में प्लास्टिक की मुग्गनी भी आ गई है | अब नहीं टूटेगी |
“न! नहीं चाहिए थी मुझे नई प्लास्टिक की मुग्गनी | “ मेरा संक्षिप्त सा उत्तर था |
या तो मैं अपनी प्यारी मुग्गनी को भूली नहीं थी या------ मैं बड़ी हो रही थी |

शशि पाधा




गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020


अनमोल निधियाँ---

शशि पाधा

अतीत के झरोखे से झाँक के जिन्दगी को देखें तो कितने खुशनुमा पल आँखों के सामने चलचित्र से घूमने लगते हैं | आपका बीता हुआ कल मन के किसी कोने में बैठा रहता है चुपचाप |आपके एकांत के लम्हों में वह कभी बतियाता भी है , कभी गाता भी है और ले जाता है दूर -बहुत दूर | मेरे साथ अब यह अमूमन हो रहा है , बीता बहुत याद आ रहा है |

उन्हीं पलों से एक बहुत प्यारी सी याद आपके साथ साझा कर रही हूँ ---

जम्मू -कश्मीर विश्वविद्यालय में आयोजित inter College Competition के कार्यक्रम में मुझे गाँधी जी पर बोलना था | मैं अपने कॉलेज का प्रतिनिधित्व कर रही थी | उस समय के शिक्षा मंत्री Mr M C Chhagla मुख्य अतिथि थे | जब मेरी बारी आई तो मैंने अपनी बात इन दो पंक्तियों से आरम्भ की --

" लोग कहते हैं बदलता है ज़माना अक्सर
लोग वो भी हैं जो ज़माने को बदल देते हैं "

पता नहीं इन पंक्तियों का क्या प्रभाव पड़ा कि सारा सभागार तालियों से गूँज उठा | खैर ! मुझे उस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला | मुझे याद है कि अपने समापन भाषण में श्री छागला ने कहा कि मेरी हिन्दी इतनी उच्च नहीं है जितनी इन वक्ताओं की है | लेकिन सभागर में गूँजती हुई तालियों ने ही निर्णय दे दिया की आज की विजेता कौन हैं | और उन्होंने स्वयं मेरी यह दो पंक्तियाँ दोहराई | मुझे ईनाम में बहुत सी पुस्तकें मिली जिनमें एक थी -- गाँधी की आत्मकथा |
बहुत खुशी खुशी जब मैं घर आई और अपने पिता जी को पुस्तकें दिखाई तो वे बहुत प्रसन्न हुए | मेरे सर पर स्नेह भरा हाथ रखा और झट से अपने कुर्ते की जेब से कुछ निकाल कर मेरी मुट्ठी में थमा दिया और कहा ," यशस्वी भव " |




मुट्ठी खोल के देखा तो वो पाँच रूपये का नोट था | मैंने इस नोट को इनाम के तौर पर अपनी किताब में रख दिया | उन दिनों हर अनमोल चीज़ हम अपनी किताबों के पन्नों में ही सम्भाल कर रखते थे |

कुछ वर्षों के बाद मेरी शादी हुई | पतिदेव ने कह दिया ," आप केवल अपनी किताबें और सितार ले कर आएँगी हमारे साथ | और कुछ नहीं |" यानी दहेज की पूरी तौर से मनाही |
तो मेरी किताबों के साथ ही यह नोट भी मेरे ससुराल आ गया | पता नहीं कब मैंने इसे किताब से निकल कर अपने पर्स की पॉकेट में सहेज लिया | समय बीतता चला गया | मैंने कितने शहर बदले, घर बदले, देश भी बदला लेकिन यह नोट हमेशा मेरे छोटे से पर्स में मेरे साथ रहा | नया पर्स बदलती हूँ तो भी यह नोट उसमें सहेज लेती हूँ |
जीवन में बहुत कुछ देखा, पाया और भोगा | लेकिन वर्षों से मेरे पास मेरे पिता के आशीषों की निशानी जो अनमोल निधि है, वही मेरा जीवन धन है | कभी कभी अपने पर्स से निकाल कर इसे देखती हूँ , इस पर हाथ फेरती हूँ और बतियाती हूँ अपने पिता के साथ | वक्त फिर पीछे लौट जाता है |

शशि पाधा


गुरुवार, 25 जुलाई 2019


मीठी नींद – मीठे सपने
            शशि पाधा
नींद तो बेशक मीठी होती है लेकिन मीठे सपने? आश्चर्यचकित तो नहीं हो रहे आप ? सच कहूँ तो मुझे कई बार एक सपना आता है जो मेरी जीह्वा पर मिश्री घोल के रख देता है|  आँख खुलते ही ऐसा लगता है जैसे कोई मिठाई मुँह में घुल रही हो | सपनों की कोई आयु नहीं होती| वे देश काल लाँघ कर आपकी आँखों के बिछौने पर आ कर चुपचाप बैठ जाते हैं और ले जाते हैं आपको एक ऐसे स्थान पर, उन गलियारों में जहाँ कभी आपने कोई सुखद पल बिताए हों|
कहते हैं सपनों का आपके अवचेतन मन से सम्बन्ध रहता ही है| वो मन के किसी गिरह में बंधे रहते हैं और कभी कभी गहरी नींद में उस गिरह से झाँक कर आपके साथ खेलते हैं| भला सपनों की बात के साथ मैं खेल का क्यों रिश्ता जोड़ रही हूँ ?? इस लिए कि जो मीठा सपना मैं इस उम्र में भी देखती हूँ वो मुझे मेरे खोए हुए बचपन में ले जाता है, जिस उम्र में मैं बहुत मीठा खाती थी और बस खेल में ही अपना समय बिताती थी| अब तक तो आपकी जीह्वा पर भी मिश्री घुलने लगी होगी| तो चलिए, ले जाती हूँ आपको अपने बचपन के उस घर में जहाँ के सपने देखती हूँ |
जम्मू शहर की पंजतीर्थी गली में हमारा घर था| यह गली बाज़ार और राज महलों को जोड़ती थी| गली तो क्या मानो एक भरा-पूरा परिवार ही इसमें रहता था| मुझे बड़ी देर बाद इस बात की समझ आई थी कि आस- पास रहने वाले सभी को मैं मामा-मामी या मौसा मौसी क्यूँ पुकारती थी| सुना था कि मेरी ननिहाल का घर भी कभी इसी गली में था| तो रिश्ता तो ननिहाल का ही जुड़ेगा न? उन दिनों दिन भर तो कई लोग कुछ न कुछ बेचने के लिए आते थे| कभी खिलौने वाला, कभी गुब्बारे वाला, कभी कचालू वाला और कभी मलाई बर्फ वाला | मज़े की बात यह थी कि हर एक बेचने वाले का आवाज़ लगाने का अपना अलग ही ढंग होता था| हम बच्चे उनकी आवाज़ सुन कर ही पहचान जाते थे कि क्या बिकने आया है|
लेकिन एक आवाज़ थी जो सब से मीठी थी| बिलकुल मिश्री में घुली हुई| यह याद नहीं आ रहा कि मौसम कौन सा होता था | शायद सर्दियों का मौसम होगा| रात के समय लगभग 8 या 9 बजे हमारे घर से थोड़ी दूर से एक आवाज़ आती थी जो घंटी की आवाज़ के साथ ही सुनाई पड़ती थी -----
खंड दे खिलौने
घड़ी दे परौने
निक्के निक्के मिट्ठे
ते किन्ने सौने सौने
 ----टन-टन – टन –टन ---
 ( खांड के खिलौने
घड़ी भर के मेहमान
  छोटे- छोटे मीठे
  कितने मन भाने
टन – टन टन--------)
उन घंटियों की मीठी आवाज़ सुनते ही मैं अपने पिता की  अँगुली पकड कर बड़े दरवाज़े के पास खड़ी हो जाती थी और बड़ी बेसब्री से उस खिलौने बेचने वाले की प्रतीक्षा करती थी| धीरे-धीरे और भी बच्चे गली में पहुँच जाते थे|
यह खिलौने बेचने वाला अन्य खिलौने बेचने वालो से बिलकुल भिन्न था| यह रात को आता था| इसके पास जो खिलौने होते थे वे खांड और खोये के मिश्रण से बने होते थे| अधिकतर यह बच्चों के प्रिय खिलौने या पक्षियों की सूरत में बने होते थे| इन पर हल्का रंग भी चढ़ा होता था | स्वाद ऐसा कि शब्दों में बता पाना अभी  तक मेरे लिए कठिन| जैसे कबीर ने कहा है न –‘गूँगे केरी सरकरा, खाए और मुस्काए’|
उसका खंड के खिलौने बेचने का ढंग भी सब से भिन्न था| वे अपने काँधे पर एक कांवर रख कर आता था|( ‘कांवर’ यानी बांस डंडी के दोनों ओर डोरियों से बंधी दो बड़ी-बड़ी टोकरियाँ) | अगर पाठकों ने श्रवण कुमार की कथा पढ़ी हो तो जैसी कांवर में श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को बिठा कर तीर्थ कराए थे, बिलकुल वैसी ही थी इसकी भी कांवर| अब समझ आता है कि वो खंड के खिलौनों को घड़ी भर के परौने (मेहमान) क्यूँ कहता था| क्यूँकि मुँह में धरते ही वे मिनटों में घुल जाते थे|
हम बच्चे और बड़े सभी मीठे खिलौने वाले को भैया कह कर पुकारते थे | शायद इस लिए भी कि वो जम्मू से नहीं थे और डोगरी नहीं बोलते थे| हम सब के साथ वो भोजपुरी में बात करते थे | हमारे लिए वो यू०पी वाले भैया थे |
उन की कांवर की एक और विशेषता थी| दोनों टोकरियों में दो छोटी-छोटी लालटेनें रखी होती थीं ताकि बच्चे अपनी मनपसंद का खिलौना देख सकें| भैया के हाथ में एक घंटी होती थी जिसकी मधुर आवाज़ हमें आकर्षित करती थी|
भैया बोलते भी बहुत मीठे थे| एक तो उनकी बोली हमारी डोगरी से अलग और फिर वो हम बच्चों को गुड्डी, मुनिया, रानों, परी आदि प्यारे-प्यारे नामों से पुकारते थे| यह खिलौने पत्ते के दोने में सजे होते थे| भैया बड़े प्यार से दोना उठा कर बड़े नाज़ुक ढंग से हमारे हाथ में रख देते थे| उन्हें शायद यह बात पता थी कि इस लेन-देन में मिठाई कहीं नीचे न गिर जाए| क्यूँकि उन दिनों हमारे हाथ तो उस दोने से भी छोटे होते थे| मुझे याद है मेरे पिता जी कुछ देर यू0पी वाले भैया से बतियाते थे, हाल-चाल पूछते थे और फिर वो मीठी हाँक लगाता हुआ अपनी कांवर लेकर अगली गली की ओर बढ़ जाता था| जब तक मैं अपने कमरे में बैठ के उस मिठाई को चाव से खा रही होती थी तब तक अगली गली से भी घंटियों के मीठे सुर सुनाई देते रहते थे--- खंड दे खिलौने ---घड़ी दे परौने---टन—टन—टन—टन|
मीठे खिलौने वाले भैया बोली से तो मीठे थे ही, दिल से और भी मीठे | पता है क्यूँ ? उनकी कांवर की टोकरी में रंगीन कागज़ में लिपटे खांड के छोटे-छोटे मोर, गुड़िया, तितली, फूल आदी की शक्ल में बने खिलौने होते थे जो वे हमें अपनी खुशी से बिना माँगे दे देते थे| हमारी डोगरी भाषा में इस छोटी सी, बिना मोल चुकाए मिली भेंट को *‘चुंगा’ कहा जाता था| यह  ‘चुंगा’ हमारी उस दिन की सब से बड़ी उपलब्धि थी| अब क्या बताऊँ कि उस चुंगे का स्वाद बड़े खिलौने से भी अधिक होता था| हम पहले उसे खाते थे और फिर बड़े वाले को|  मुझे याद आता है कि हम बच्चे जब भी किसी दुकानदार से टॉफ़ी वगैरह लेने जाते थे तो पैसे देने के बाद चुपचाप खड़े रहते थे| उदार दुकानदार बच्चों को छोटी सी एक टॉफ़ी या चूर्ण की गोली बिना मोल के दे देता था| हमारा और दुकानदार के बीच चुंगे का भी एक रिश्ता था )
एक बात और याद आती है| कई बार मैं सो जाती थी भैया की प्रतीक्षा करते हुए| लेकिन सुबह उठते ही पिता सब से पहले वो दोना मुझे थमाते और कहते, “ कहा  भी था उस भैया को कि गुड्डी सो गई है, आज नहीं चाहिए| पर घर के अंदर आ कर दे गया तुम्हारे लिए| पता नहीं कैसा है, आज तो पैसे लेने से भी इनकार कर दिया| कहता था –गुड्डी तो सो गई तो पैसे किससे लेने|”
अब यह बातें याद करती हूँ तो मन भर आता है| हम बड़े हो गए| शहर छूट गया, देश छूट गया| अब बाज़ार में अनगिन प्रकार की मिठाइयाँ मिलती हैं| लेती भी हूँ, खाती भी हूँ और बनाती भी हूँ| लेकिन इन सब मिठाइयों में न वो रिश्तों की मिठास है, न नेह की घंटियों की टन-टन और न भैया की वो दुलार| मीठा तो सब जगह मिलता है पर---- वो मीठे वाला मीठा नहीं जो उन खंड के खिलौनों में था| उनके सपनों से अब भी नींद शहद घुली हो जाती है |  

शशि पाधा
*Bonus.