शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

आप भी पढ़िये यह किताब


जीवन की किताब

ना स्याही, ना हाथ कलम
ना शब्दों का हिसाब
मन के पन्नों पर लिख डाली
जीवन की किताब |

पढ़े कोई, ना धरे सहेजे
पाला ना मलाल कभी  
यूँ ही लिखते उम्र गंवाई
पूछे ना सवाल कभी  
 सम्बन्धों के शब्द कोष में
 ढूँढा ना  जवाब |

आढ़ी-तिरछी रेखाओं पे
लिखा वही, जो लगा सही
ना ही जीवन नापा तोला
ना घाटे की बात कही
  दिल में कोई पीर ना बाँधी
  बस बाँधा सैलाब |

रिश्तों ने जब खेली चौपड़
दाँव पेच कुछ आया ना  
हार जीत का भेद न जाना
समझा तो, मनभाया ना  
  बस इतना ही समझा, जीवन
  काँटों संग गुलाब |

समय का तांगा दौड़ा फिरता
पाँव रुके ना साँस थमी
फिर भी जाने पलकों पर क्यों
बूंदों की कुछ रही नमी   
   मन को इतना ही समझाया 
   होना ना बेताब|
 

शशि पाधा



जन्माष्टमी के अवसर पर कृष्णा से सीधा संवाद

    कृष्णा से संवाद

वर्षों पाली मन में उलझन
झेला वाद –विवाद
सोचा अब तो कृष्णा तुमसे
हो सीधा संवाद |

प्रतिदिन जो घटता धरती पर
 नारद देते खबर नहीं ?
चीरहरण या कुकर्मों का
देखा ना कोई डर कहीं
  भूल गये क्या कथा द्रौपदी
   या है कुछ –कुछ याद |

बारम्बार पढ़ा गीता में
तुम हो अन्तर्यामी
कहाँ छिपे थे तुम जब
होती लज्जा की नीलामी
‘लूँगा मैं अवतार’ वचन का
सुना नहीं अनुनाद |

तुमने तो इक बार दिखाई
मुहँ में सारी सृष्टि
बन बैठे थे पालक –पोषक
अब क्यों फेरी दृष्टि
 क्या जिह्वा पर अब तक तेरे
माखन का ही स्वाद |

अब क्या कहना कृष्णा तुमसे
आओ तो इक बार
पापों की गगरी अब फोड़ो
कुछ तो हो उपकार

  बंसी की तानों में कब से
   सुना ना अंतर्नाद |


शशि पाधा