जीवन की किताब
ना स्याही, ना हाथ कलम
ना शब्दों का हिसाब
मन के पन्नों पर लिख डाली
जीवन की किताब |
पढ़े कोई, ना धरे सहेजे
पाला ना मलाल कभी
यूँ ही लिखते उम्र गंवाई
पूछे ना सवाल कभी
सम्बन्धों के शब्द कोष में
ढूँढा ना जवाब |
आढ़ी-तिरछी रेखाओं पे
लिखा वही, जो लगा सही
ना ही जीवन नापा तोला
ना घाटे की बात कही
दिल में कोई पीर ना बाँधी
बस बाँधा सैलाब |
रिश्तों ने जब खेली चौपड़
दाँव पेच कुछ आया ना
हार जीत का भेद न जाना
समझा तो, मनभाया ना
बस इतना ही समझा, जीवन
काँटों संग गुलाब |
समय का तांगा दौड़ा फिरता
पाँव रुके ना साँस थमी
फिर भी जाने पलकों पर क्यों
बूंदों की कुछ रही नमी
मन को इतना ही समझाया
होना ना बेताब|
शशि पाधा