गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

"जहाँ मन होता है वहाँ मैं नहीं होती , जहाँ मैं होती हूँ वहां मन नहीं होता " ( मित्र श्याम जुनेजा की टिप्पणी से )


परदेसी मन

पता ठिकाना पूछता
जड़ें पुरानी ढूँढता
  घूम रहा परदेसी मन |
काकी चाची मामा मौसा
एक गली का इक परिवार
बीच सजा वो चाट खोमचा
आस –पास बसता संसार
    रोज़ हवा को सूँघता
    खुश्बू वो ही ढूँढता
    तड़प रहा परदेसी मन |
जुड़ी सटी सब छत मुंडेरें
रात आधी की कथा कहानी
खाट दरी बस चादर तकिया
मिट्टी की सुराही –पानी

        यादों में ही झूमता
        छत वही फिर ढूँढता
       पछताया परदेसी मन |
दोपहरी की धूप गुनगुनी
आंगन तकिया लंबी तान
पके रसोई चाय पकोड़ी
सर्दी से तब बचते प्राण

     उनींदा सा ऊँघता
     हरी चटाई ढूँढता
   पगला सा परदेसी मन |

संग मनाए मेले ठेले
चौगानों में तीज त्यौहार
आपस में बाँटे थे कितने
चूड़ी रिब्बन के उपहार

बिन झूले के झूलता
ठाँव वही फिर ढूँढता
बेचारा एकाकी मन |





शशि पाधा , 28 अक्टूबर 2015

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