परदेसी मन
पता ठिकाना पूछता
जड़ें पुरानी ढूँढता
घूम रहा परदेसी मन |
काकी चाची मामा मौसा
एक गली का इक परिवार
बीच सजा वो चाट खोमचा
आस –पास बसता संसार
रोज़ हवा को सूँघता
खुश्बू वो ही ढूँढता
तड़प रहा परदेसी मन |
जुड़ी सटी सब छत मुंडेरें
रात आधी की कथा कहानी
खाट दरी बस चादर तकिया
मिट्टी की सुराही –पानी
यादों में ही झूमता
छत वही फिर ढूँढता
पछताया परदेसी मन |
दोपहरी की धूप गुनगुनी
आंगन तकिया लंबी तान
पके रसोई चाय पकोड़ी
सर्दी से तब बचते प्राण
उनींदा सा ऊँघता
हरी चटाई ढूँढता
पगला सा परदेसी मन |
संग मनाए मेले
ठेले
चौगानों में तीज
त्यौहार
आपस में बाँटे थे
कितने
चूड़ी रिब्बन के
उपहार
बिन झूले के
झूलता
ठाँव वही फिर
ढूँढता
बेचारा एकाकी मन |
शशि पाधा , 28 अक्टूबर 2015
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