रविवार, 4 फ़रवरी 2018

                                                 एक अंतहीन प्रेम कथा


“ मेरा हिन्दोस्तानी होना सिर्फ एक अहसास ही नहीं मेरी पहचान है
और मेरा भारतीय सैनिक होना सिर्फ एक काम ही नहीं
मेरा धर्म है, मेरा मान है ”
यह उद्गार है, परमवीर योद्धा लांस नायक मोहन गोस्वामी के | ये भारतीय सेना की महत्वपूर्ण यूनिट ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ के अविस्मरणीय योद्धा थे | इन्हे 26 जनवरी २०१६ के स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर उनकी वीरता तथा महाबलिदान के लिए सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’ से विभूषित किया था |
उद्घोषक, लांस नायक मोहन गोस्वामी के अदम्य साहस और शौर्य का वर्णन करते हुए बोल रहे थे, “ इस शूरवीर सैनिक ने केवल 10 दिनों में 11 आतंकवादियों को मौत के घाट उतार दिया | 2 और 3 सितंबर 2015 की रात को लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के हफरूदा जंगल में घात लगाने वाले दस्ते में शामिल थे। रात आठ बजकर 15 मिनट पर चार आतंकवादियों के साथ उनकी भीषण मुठभेड़ हुई। इसमें उनके दो साथी घालय होकर गिर पड़े। लांस नायक मोहन दो साथियों के साथ अपने सहयोगियों को बचाने के लिए आगे बढ़े। जबकि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि आगे बढ़ने में उनके जीवन को खतरा है। लांस नायक मोहन ने पहले एक आतंकवादी को मार गिराने में मदद की । उसके बाद अपने तीन घायल साथियों की जिंदगी पर आसन्न खतरे को भाँपते हुए, अपनी निजी सुरक्षा की परवाह न कर के बचे हुए आतंकवादियों पर टूट पड़े| दोनों ओर से भयंकर फायरिंग हुई |आतंकवादियों की गोली उनकी जांघ में लगी लेकिन उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उन्होंने एक आतंकवादी को मार गिराया और दूसरे को घायल कर दिया। अचानक उनके पेट में एक गोली लगी। अपने गंभीर घावों के बावज़ूद मोहन नाथ ने बचे हुए अंतिम आतंकवादी को दबोच लिया और उसे मार गिराया। इस अभियान मेंलांस नायक मोहन नाथ ने न केवल दो आतंकवादियों को मार गिराया, बल्कि अन्य दो को निष्क्रिय करने में भी सहायक हुए और अपने तीन घायल साथियों की जान बचाई। अंत में अपने लक्ष्य की पूर्ति के बाद यह योद्धा सदा के लिए माँ भारती की गोद में सो गया| लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी ने व्यक्तिगत रूप से आतंकवादियों को मार गिराने और अपने घायल साथियों का बचाव करने में सहायता प्रदान करते हुए भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं के अनुरूप अपना सर्वोच्च बलिदान दे कर विशिष्ट वीरता का प्रदर्शन किया । आज कृतज्ञ राष्ट्र इन्हें इनकी अप्रतिम वीरता के लिए सर्वोच्च पदक से विभूषित करते हुए गौरवान्वित है|”
उद्घोषक के ओजपूर्ण स्वर में इस शौर्य गाथा को सुनते ही सारा आकाश करतल ध्वनि से गूँज उठा | इस पदक को उनकी पत्नी भावना गोस्वामी ने करतल ध्वनि की गूँज के मध्य नतमस्तक होकर ग्रहण किया |
मैं, समारोह का यह विवरण हज़ारों मील दूर बैठी अमेरिका में अपने टी वी स्क्रीन पर देख रही थी | भावविह्वल होकर मैंने कहा था, “ धीरज रखना बहन, मैं शीघ्र ही तुमसे मिलने आऊँगी |”
मेरा ममता से भरा हृदय उस समय उस दुबली-पतली लड़की को गले लगाने के लिए आतुर था |मुझे इस बात का अहसास था कि भारत के एक पहाड़ी नगर नैनीताल के पास बसे एक छोटे से गाँव ‘लालकुआँ’ में बैठी भावना मेरे अश्रुपूर्ण शब्द नहीं सुन रही है, किन्तु मुझे स्वयं से यह वायदा करके आन्तरिक सांत्वना मिली थी |
कुछ ही महीनों बाद जुलाई में ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ के ५०वें स्थापना दिवस के उत्सव में आई भावना से मिल कर खुद से किया यह वायदा पूरा हुआ ,इसकी मुझे प्रसन्नता हुई | उसे गले लगाते ही मैंने उसके सामने मन में उठते प्रश्नों की गठरी खोल दी थी |
मैंने कहा, “ भावना, मैं आपको तब से जानती हूँ जब मैंने टी वी स्क्रीन पर आपको राष्ट्रपति से अशोक चक्र एवं प्रशस्ति पत्र ग्रहण करते हुए देखा था | तब से मैं यही सोचती हूँ कि इतनी छोटी आयु, आगे की इतनी लम्बी जीवन डगर, कैसे, और किसके सहारे -------”
“ मैम, मैं आठ जन्म, आठ युग, आठ लोक, कहीं पर भी जन्म लूँ , मुझे उनके जैसा और कोई मिल नहीं सकता | मेरे हर एकाकी पल में वो मेरे साथ हैं | वही मेरा अतीत थे; वही मेरा वर्तमान हैं, और उनकी मधुर स्मृतियाँ ही मेरा भविष्य हैं | उनके सहारे ही जी रही हूँ |”
मैंने अभी सवाल पूरा भी नहीं किया था कि उसने बिना रुके, बिना साँस लिए मुझे उत्तर देना आरम्भ कर दिया था | यह संकल्प और निष्ठा से भरे हुए शब्द थे लांस नायक मोहन गोस्वामी की युवा पत्नी भावना गोस्वामी के | मोहन गोस्वामी को वीरगति प्राप्त हुए कुछ महीने ही हुए थे, शायद आठ महीने | मैं उससे कभी नहीं मिली थी, लेकिन यह जानती थी कि मोहन मेरे पति की पलटन ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ का एक शूरवीर सैनिक था | आज मैं और भावना दोनों आमने-सामने बैठे एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे |
उसका त्वरित उत्तर सुनकर मैंने बड़े प्यार से पूछा, “ भावना, यह आठ का आँकड़ा क्यूँ ?”
अब उसके होठों पर हल्की सी मुस्कराहट थी और उसकी बड़ी-बड़ी उदास आँखें अतीत की खोह में कुछ ढूँढ रही थी|
एक गहन उच्छ्वास लेते हुए वो बोली, “ मैंने मोहना के साथ आठ वर्ष का सुखद वैवाहिक जीवन बिताया है | |इन आठ वर्षों में मैंने जो भोगा-पाया, वो सुख मेरे लिए आठ जनमों की धरोहर है | वही जन्मों-जन्मों तक मेरा सम्बल है |”
मेरे सामने दुबली-पतली सी लड़की बैठी थी किन्तु उसके स्वर में वही ओज झलक रहा था जो आज की वीर नारी का सब से दृढ़ रक्षा कवच है | मुझे उसके स्वर में कहीं कोई कँपकपी, कोई घबराहट नहीं दिखी | मुझे लगा कि यही तो एक मुख्य लक्षण है जो वीर नारी को एक अलग पहचान देता है |
मैं श्रद्धा से उसे देख रही थी और वो अपने छोटे से वैवाहिक जीवन की प्रेम भरी गाथा सुना रही थी |
“ मैम, बहुत शरारती थे मोहना | मुझे बिना बताए ही वो छुट्टी आते और घर के दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे हैरान कर देते थे | आनन–फानन में छत पर खड़े होकर गाँव वालों को आवाजें लगा कर कहते थे – ‘चाची मैं आ गया, बुआ शाम का खाना आपके साथ !’ आस-पास के बच्चों के लिए भी उपहार लाते थे | सारे गाँव का ‘लाडला बेटा’ थे वे | इतनी मौज मस्ती करते थे कि गाँव वाले स्नेह से इन्हें ‘रौनकी’ नाम से बुलाते थे |”
भावना अपने बीते जीवन की मीठी यादों में खो गई थी और मैं उसके हाव-भाव, उसके शब्दों की मीठास में डूब रही थी | मोहन ने उसे किसी शादी में देखा था और उससे शादी का प्रस्ताव कर बैठा था, और उस दिन भी तारीख़ थी – आठ |
मैंने मोहन और भावना की एक सुंदर सी तस्वीर में भावना के गले में प्यारा सा मंगल सूत्र देखा था | मैंने पूछ लिया, “ तो वो मंगल सूत्र भी आठ धागों से पिरोया होगा ?”
हँस कर कहने लगी, “ नहीं मेम साब, वो तो इन्होने मुझे शादी की दूसरी साल गिरह पर पहनाया था | मैंने बहुत कहा था कि पहले घर बनवा लेते हैं फिर दूसरे खर्चे | पर कहाँ माने थे वो | लाकर पहना दिया था |”
आज वो मंगल सूत्र तो नहीं देखा किन्तु उसके स्थान पर पतले से काले धागे में पिरोई काले मनकों की माला थी | पहाड़ में मैंने बहुत सी लड़कियों को ऐसी माला पहने देखा है | अच्छा लगा कि उसका गला और कलाई सूनी नहीं थी |
मैंने सुना था कि मोहन अच्छा शायर भी था | उसकी इस खूबसूरत कला के विषय में मैंने भावना से पूछा, “ बहुत से गीत गाए होंगे उसने तुम्हारे लिए | गीतों में तुम्हें बहुत कुछ कह जाता होगा| अच्छा तो तुम्हारी किस चीज़ की वो सबसे अधिक प्रशंसा करता था ?”
पहली बार मुझे आभास हुआ कि वो थोड़ा झिझकी थी | कुछ पल चुप रही फिर हँस कर बोली, “ मेरी आँखें | कहते थे तेरी आँखों में कोई समन्दर है | तुम काजल मत लगाया करो |” मैंने उसकी आँखों में उमड़े पीड़ा के तूफ़ान को देख लिया था | इससे पहले कि वो किनारे तोड़ जाए मैंने जल्दी से पूछा, “ और तुम्हें ?”
बड़े कोमल भाव से उसने कहा, “ मुझे तो वो पूरे के पूरे ही अच्छे लगते थे | किस-किस की तारीफ़ करूँ ? वो हैं ही इतने अच्छे, थे |” वो अपने अतीत में खो गई थी और मैं उसे बाहर नहीं लाना चाहती थी | सुना था मीठी यादें ही दारुण पीड़ा की औषधि होती हैं | हम दोनों ही कमरे में चुप-चाप बैठे, मौन में उस पीड़ा की मरहम ढूँढ रहे थे |
अभियान से एक दिन पहले उसने अपनी डायरी में एक छोटी सी कविता लिखी थी – “ पत्नी के निस्वार्थ प्रेम की खुश्बू को महकता छोड़ के आया हूँ
मैं नन्हीं सी चिड़िया बेटी को चहकता छोड़ के आया हूँ
मुझे सीने से अपने तू लगा ले ऐ भारत माँ
मैं अपनी जन्मदायिनी माँ को तरसता छोड़ के आया हूँ ”
मैंने कई बार इन पँक्तियों को पढ़ा था | इन्हें भीतर तक महसूस करते हुए मैं यही सोचती थी कि 10 दिन में 11 खूँखार आतंकवादियों को मौत के घाट उतारने वाले इस शूरवीर योद्धा के हृदय में और कितनी जगह होगी जहाँ शौर्य और पराक्रम की उद्दात भावना के साथ पति, पिता और सुपुत्र के मनोभावों की अविरल नदिया बहती रहती हो | मैं सदैव इस बात को मानती हूँ और अपने पाठकों को बताना चाहती हूँ कि सैनिक केवल ‘घातक’ नहीं होता | वह पति, पुत्र, मित्र, पिता, शायर, गायक, सेवक और अभिनेता भी होता है | वह ‘अर्जुन’ तब होता है जब उसे धर्म की रक्षा करनी होती है | वह धर्म चाहे राष्ट्र रक्षा हो, चाहे मानव रक्षा | उस समय वह रक्षक का चोला पहन कर अपना कर्तव्य निभाने चल पड़ता है |
“ शायरी के साथ-साथ और भी शौक होंगे मोहन को ?” मेरे पूछने पर बहुत संजीदगी से बताने लगी, “ डांस का बहुत शौक था | स्कूल में उनके अध्यापक बताते हैं कि हर कार्यक्रम में उनके डांस की एक आईटम अवश्य होती थी |”
अब तक भावना थोड़ी सहज हो गई थी | पास में बैठी थी उसकी छोटी सी बिटिया | मैंने उससे पूछा, “ बहुत सुंदर नाम है आपका ‘भूमिका’| किसने नाम रखा था आपका ?”
भूमिका ने बाल सुलभ भोलेपन से कहा, “ मेरे पापा ने | पर वो मुझे कभी गुड़िया और कभी चिड़िया ही बुलाते थे |”
हँसते हुए भावना बोली, “ बहुत सोच-विचार के बाद ही यह नाम चुना था मोहना ने | मेरे नाम का ‘भ’ और अपने नाम का ‘म’ जोड़ कर ही वो अपनी पहली सन्तान का नाम रखना चाहते थे |”
मैंने भी उत्सुकता वश पूछ लिया, “ और अगर लड़का होता तो ?”
बिना समय गँवाए उत्तर था , “ भौम या भीम |”
अब हम दोनों ही सहज होकर हँस रहे थे | स्वयं एक सैनिक पत्नी होने के नाते मैं वियोग की वेदना भोग चुकी थी | उस लम्बी और अनिश्चित अवधि में पत्र ही हमारा सहारा होते थे | अपने बीते कल को याद करते हुए मैंने भावना से पूछा, “ जब से देश की उत्तरी सीमाओं को आतंकवाद ने घेर रखा है, हमारी पलटन के सैनिक अधिकतर सीमाओं पर ही तैनात रहते हैं | ऐसे में बहुत कम समय के लिए ही तुम उनके साथ रह पाती होगी | केवल लम्बे-लम्बे पत्र ही तुम्हारा सम्पर्क सूत्र होंगे ?”
उसने बड़ी हैरानी से मेरी ओर देखा कि मैं कैसा सवाल कर रही हूँ, और फिर कहने लगी, “ मैम, पत्र कहाँ, आज कल तो WhatsApp , Messenger पर ही सारा पत्र व्यवहार होता है | कोई भी दिन खाली नहीं था जब ‘वे’ फेस टाइम पर या व्हट्स एप पर बात नहीं करते थे |”
मैं भी कितनी नादान थी | इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि मैं अपनी अगली पीढ़ी से बात कर रही थी | मैंने कुछ झिझकते हुए कहा, ‘ओह ! मैं तो भूल ही गई थी कि अब डाक से पत्र तो कोई भेजता ही नहीं है |”
इससे पहले कि मैं कुछ और पूछती वो बोली, “ उनके फोन की एक अलग से रिंग टोन मैंने सहेज रखी थी | आधी रात को भी फोन आता तो मैं उठा लेती थी |”
थोड़ी देर के लिए भावना चुप रही और फिर अपने पर्स से एक मोबाइल निकाला |
मोहना के फोन की रिंग टोन लगाई और बहुत अस्फुट स्वर में बोली, “ अब मैं खुद ही फोन करती हूँ और खुद ही सुनती हूँ |”
मैं थोड़ा काँप गई थी | इतनी बहादुर लड़की और भीतर से इतनी भावुक, इतनी कोमल | कैसे होंगे वो अंतहीन प्रतीक्षा के पल जब भावना केवल मोहन के फोन की घंटी ही सुनना चाहती होगी और फिर अपने को ही सुना कर मौन सांत्वना देती होगी !!
कुछ घंटे पहले यूनिट के वेलफेयर सेंटर के समारोह में भावना को सम्मानित करते हुए सूबेदार साहब की पत्नी ने कहा था , “ भावना बहुत बहादुर है | वह अपनी बच्ची को पढ़ा भी रही है और साइकोलोजी में एम ए भी कर रही है | साथ ही अपना घर भी बनवा रही है | ऐसी धैर्यवान और कर्मठ वीर नारी हम सब के लिए एक उदाहरण है |”
भावना ने मुझे यह भी बताया था कि मोहन उसे आगे पढ़ने के लिए बहुत उत्साहित करते रहते थे | स्वयं उन्होंने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की थी, लेकिन उन्हें बहुत गर्व था कि भावना ग्रेजुएट थी |
मैं अब तक मोहन और भावना के छोटे से प्यार भरे जीवन के विषय में बहुत कुछ जान गई थी, किन्तु अनुभव यही कहता था कि कोई तो पल होगा जब भावना को मोहन की जीवन रक्षा के विषय में डर लगता होगा या आशंका होती होगी | सुदूर पहाड़ों में रहने वाली लड़की को कितना पता था कि जिस पलटन में मोहन सेवारत था उस पलटन को सदैव शत्रु के साथ आमने-सामने युद्ध करना पड़ता है | स्पेशल फोर्सेस में होने के कारण उनका हर अभियान, हर युद्ध ख़तरों से भरा होता है |
मैंने यही प्रश्न उससे पूछा, “ वे कभी आपसे अपने इस चुनौती पूर्ण व्यवसाय की बात करते थे | कभी बताते थे कि अभियान पर जाते हुए कितने खतरों का सामना करते हैं ?”
उसने बिना संकोच के कहा, “ वे हमें अपने काम के विषय में जितना आवश्यक था, उतना ही बताते थे | पता नहीं क्यूँ पर वो मुझे भविष्य के लिए सदैव तैयार करते रहते थे | अगर कभी मैं डरती थी तो कहते थे – मैं कमांडो हूँ , पूरे दस को लेकर जाऊँगा | अब सोचती हूँ कि क्या सभी सैनिक अपने परिवार को यूँ ही सचेत करते रहते हैं या इन्हें मेरी बहुत चिंता थी | पता नहीं, वही जानें |”
मोहन के सैनिक होने का गर्व जितना मोहन को था उतना ही भावना को भी | बताने लगी, “ मोहन कहते थे, बचपन से ही उन्हें कमांडो बनने का शौक था | उनके पिता भी भूतपूर्व सैनिक थे | इसीलिए सैनिक धर्म तो उन्हें जन्म घुट्टी में ही पिला दिया गया था | किन्तु कमांडो ही बनना है, यह जुनून तो विद्यार्थी जीवन में ही उनके मन-मस्तिष्क में छा गया था | सेना में भर्ती होने से पहले निर्भीक कमांडो बनने के लिए उन्होंने पूरी तैयारी कर ली थी |”
अचानक बात करते करते उसने मुझसे पूछा, “ मेम साब जी, क्या आप मोहना को जानती थीं , कभी उससे मिली थी ?”
मैंने बड़े स्नेह से उससे कहा, “ कभी नहीं मिली | पर एक बात कहूँ, पति के सेवा निवृत होने के बाद भी हमें अपनी पलटन से उतना ही प्यार, लगाव रहता है जितना नौकरी के समय था | हम हर पल उनसे सम्पर्क बनाए रखते हैं और जब भी समय मिलता है पलटन के सदस्यों से मिलने भी आते हैं | फिर दूरी कैसी ? इस नाते मैं मोहन को जानती थी | जिस दिन मोहन ने वीरगति प्राप्त की थी उस दिन मैंने विभिन्न समाचार पत्रों में उसकी तस्वीर देखी थी | एक तस्वीर में तुम और भूमिका भी उसके साथ थी | कितने खुश लग रहे थे आप तीनों | उसी दिन मैंने यह संकल्प लिया था कि तुमसे अवश्य मिलूँगी, कभी |”
अब मैं थोड़ी भावुक थी | मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर भावना मुझसे बोली, “ आप मेरी से बड़ी हैं | मेरी बेटी को आशीर्वाद दीजिए कि यह अपने पापा का नाम ऊँचा करे | मैं इसे डॉक्टर बनाना चाहती हूँ, सेना में भेजना चाहती हूँ | बस यही मेरा एक मात्र लक्ष्य है |”
मैंने उसके स्वर में जो संकल्प का घोष सुना उससे मुझे लगा कि सीमाओं पर शत्रु का संहार करने वाले शूरवीर अपनी वीरांगनाओं के इसी धैर्य और आस्था का संबल पाकर निश्चिन्त हो कर रक्षा कर्म में जुट पते होंगे |
अपनी बेटी की ओर देखती हुई भावना बोली,” इसके जन्म पर मुझे परिवार से काफी कुछ सुनना पड़ा था क्योंकि घर के बड़ों को पुत्र की चाह थी | पर अब मैं इससे ही अपना वंश चलाऊँगी, इसके नाम के साथ मोहन का नाम सदैव जुड़ा रहेगा |”
भावना के इस रूप को देख कर मुझे बहुत खुशी हो रही थी | किन्तु एक प्रश्न जो मेरे मन में अभी तक बैठा था, पर इतनी हंसती खेलती नवयुवती को मैं फिर से उस दारुण पल की याद नहीं दिलाना चाहती थी, फिर भी पूछ लिया, “ भावना आप को सूचना कैसे मिली ?
धरती पर आँखें गड़ाये दूर कहीं कुछ खोजती सी वो बोली, ” मुझे पता नहीं था कि वो किसी मिशन पर गए हैं | 11 अगस्त को ही तो गुड़िया का जनम दिन मना कर 15 अगस्त को गए थे | कुछ दिन फोन पर भी बात होती रहती थी | पिछले तीन दिनों से नहीं हुई थी | फिर एक दिन इनके दोस्त बार-बार फोन करके पूछ रहे थे कि भाभी आप कैसी हो ? मुझे नहीं पता था कि वो मुझे किसी अशुभ सूचना के लिए तैयार कर रहे थे | फिर शाम को ‘एस एम’ साहब का फोन आया था | कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कह रहे थे | बस सुन्न सी मैं यही समझ सकी कि ----
अब वो चुप थी | पहली बार मैंने उसके शरीर में कंपन देखी थी | उसकी बच्ची चुपचाप अपनी माँ का हाथ लेकर उसे सहला रही थी | कितने असमय ही बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे ! कैसे समझ लेते हैं अपना उत्तरदायित्व !! मैंने उसके मौन को नहीं तोड़ा | उसकी आर्द्र आँखों की पीड़ा मेरी आँखों में भी प्रतिबिम्बित हो रही थी |
उसने गले में पतली सी माला पहन रखी थी जो शायद शादी के समय मोहन ने उसे पहनाई होगी | उसे बड़े प्रेम से छू कर बोली , “ यह है न उनका मेरे साथ होने का चिह्न | और फिर मैंने उनकी लैप टॉप, वर्दी , मोटर साइकल, फोन सभी चीजें सम्भाल कर रखी हैं |
मैंने वातावरण को थोड़ा सहज करते हुए पूछा, “ और उनकी शायरी वाली डायरी ? उसे तो तुम रोज़ पढ़ती होगी ?”
अब वो थोड़ा शर्मा गई थी | भावना ने बताया, “ हाँ पढ़ती हूँ ; कई बार, बार-बार | और फिर उनके मित्र भी मुझे उनका लिखा भेजते रहते हैं जो उन्होने पलटन में रहते हुए किसी नोटबुक में लिख छोड़ा होगा |”
फिर स्वयं ही कहने लगी, “ मैंने उनकी समाधि बनवाई है, घर के सामने अपनी ज़मीन पर | पहाड़ों में वीरों की समाधि बनवाने का भी प्रावधान है | वहीं पर एक छोटा सा मंदिर बनेगा | गाँव में उनके नाम की सड़क है, स्कूल है | स्टेडियम को भी उनका ही नाम दिया गया है | बहुत से लोग आते रहते हैं उस समाधि पर | कई संस्थाएँ भी मुझे बुलाती रहती हैं | सब से अधिक मैं जो काम कर रही हूँ वो यह है कि मैंने अन्य वीर नारियों से सम्पर्क बना लिया है | उनसे बातचीत करती रहती हूँ |
“और पलटन के साथ क्या सम्पर्क सूत्र है ?” मेरे यह पूछने पर कहने लगी,
“पलटन ही तो मेरा घर है | इन्होने ही तो मेरा घर बनवाने में मेरी सहायता की | फोन भी आते रहते हैं | आप इतनी दूर से मिलने आई हो, आप भी मेरी अपनी हो | मैं अकेली कहाँ हूँ ?”
बातों का सिलसिला तो कभी समाप्त नहीं हो सकता था किन्तु अभी और भी कार्यक्रम थे| मेरे मन में मोहन के उस महा अभियान के विषय में कई प्रश्न थे | इसीलिए हम दोनों फिर मिलने का वादा कर के विदा हुए | उसके जाने के बाद मैंने एक अजीब सा एकाकीपन महसूस किया | भावना के साथ मेरा एक अटूट संबंध जो जुड़ गया था |
दो जुलाई के दिन पलटन में कोई विशेष कार्यक्रम नहीं था | बस वो विदा लेने का दिन था | मैंने भी भावना और भूमिका से मिलने के लिए उन्हें अपने पास बुलाया था | हम तीनों सुबह-सुबह उस गौरवशाली वीर स्थली पर गए जहाँ यूनिट के अन्य तीन अशोक चक्र विजेता शहीदों के साथ मोहन की कांस्य मूर्ति स्थापित थी | उन पर चढ़ाई गई श्रद्धा सुमन से पिरोई मालाएँ अभी तक वातावरण को सुगन्धित कर रहीं थी | मैंने चुपचाप नतमस्तक हो कर उन वीरों को नमन किया | मेरे पास खड़ी भावना और भूमिका मोहन की मूर्ति को अपलक निहार रहीं थी | शायद उससे कुछ कह रही हों, अपने मन की बात | उस पल मैं सोच रही थी कि एक युवा पत्नी के मन में अपने शूरवीर पति की मूर्ति को देख कर क्या भाव उठ रहे होंगे ? वो कौन से मधुर पलों को याद कर ही होगी |? नन्हीं सी बिटिया क्या पूछ रही होगी अपने पिता से ? भावना तो शायद अपने अलौकिक प्रेम का कोई संदेश दे रही होगी किन्तु भूमिका ??? कौन जाने उसके भोले-भाले मन में कितने प्रश्न उठ रहे होंगे | वो तो आतंकवाद की घृणित परिभाषा भी नहीं जानती होगी | बड़ी होकर ही शायद समझ पाएगी अपने बहादुर पिता के महाबलिदान का संकल्प और लक्ष्य |
मैंने भावना से कहा, “ देखो तो सामने ही खड़ा है , तुम्हें कैसा लग रहा है ?”
भावना ने भी कुछ सहज भाव से उत्तर दिया, “ बिलकुल वैसे ही, जैसे वो ‘मेरे’ थे | वो तो सदा ही मेरे मन-मस्तिष्क में ऐसे ही रहेंगे, जनमों जनमों तक |”
मैं समझ गई थी कि भावना ने आठ जनमों की बात क्यूँ कही थी | ऐसे परमवीर की पत्नी होने का मान उसे मिला था और वो उस गौरव के साथ, अपनी बच्ची का पालन पोषण करते हुए जीना चाहती थी |हमने एक दूसरे के साथ फोन पर सम्पर्क रखने का वचन लिया और विदा ली |
मेरी दृष्टि अभी भी उस वीर स्थली पर टिकी थी यहाँ पर अपने सशक्त हाथों में शस्त्र थामे चार योद्धा भारत माँ की रक्षा के लिए समस्त राष्ट्र का उद्बोधन कर रहे थे | मैं लौट आई थी उस पावन स्थली से इस विश्वास के साथ कि केवल उत्तराखंड के लालकुंयाँ गाँव में ही नहीं, देश के कोने -कोने में शहीदों के ऐसे स्मारक बनें ताकि हमारा देश, आने वाली पीढ़ी शहीदों के महाबलिदान को सदियों तक न भूले |
शशि पाधा
चित्र -----
लांस नायक मोहन गोस्वामी की पत्नी भावना और बेटी भूमिका के साथ लेखिका |
लांस नायक मोहन गोस्वामी किसी अभियान से पहले |

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