मानस मंथन : हमारी धरोहर----बुग्दियाँ
...: हमारी धरोहर ----बुग्दियाँ इस तस्वीर को ध्यान से देखें| इसमें एक गुज्जर युवती ने चा...
बुधवार, 7 फ़रवरी 2018
हमारी धरोहर
----बुग्दियाँ
इस तस्वीर को ध्यान
से देखें| इसमें एक गुज्जर युवती ने चाँदी में जड़े बहुत से सुंदर आभूषण पहने हैं|
आज भी इसी प्रकार के आभूषणों का चलन है और इन्हें आधुनिक फैशन माना जाता है| मेरे
बचपन की मधुर स्मृतियों की पिटारी में एक बहुत खूबसूरत याद है ‘बुग्दियाँ’| बोलने में जितना खूबसूरत यह शब्द
है उतना ही खूबसूरत यह गहना होता था| इस तस्वीर में इस गुज्जर युवती ने एक माला
पहनी है जिसमें चाँदी के सिक्कों को धागे में गूँथा हुआ है| अगर आप अन्य दूसरी
मालाओं से ध्यान हटा कर केवल सिक्कों की माला को देखेंगे तो समझ जायेंगे कि मैं
किस गहने की बात कर रही हूँ| आज मैं इन्हीं सिक्कों की माला के विषय में अपनी स्मृतियों
को आपके साथ साझा कर रही हूँ|
२०वीं शताब्दी में डुग्गर
प्रदेश की अधिकतर महिलाओं के पास सिक्कों जैसी आकृति से गूँथा एक हार अवश्य होता
था और आम भाषा में इसे ‘बुग्दियाँ’ कहा जाता था| यह सिक्के सोने के होते थे
जिन्हें शायद ‘गिन्नी’ भी कहा जाता था| एक मोटे काले धागे में बराबर की दूरी पर इन
बुग्दियों को गूँथा जाता था| धनी महिलाओं के पास दस- बारह बुग्दियों वाला हार होता
था| यह आकार में छोटी या बड़ी भी होती थीं यानी जिसके पास जितना धन हो|
हमारे परिवार में भी
एक बुज़ुर्ग महिला थीं जिन्हें हम ‘बेबे’ कह कर बुलाते थे| हमारी माँ अध्यापिका थीं
अत: हमारा बचपन अधिकतर ‘बेबे’ की गोद में ही व्यतीत हुआ था| मैंने अपने बचपन में
उनके पास यह गहना देखा था| कभी भी अगर उनके पास कुछ ज़रूरत से अधिक पैसे होते तो वो
मेरे पिताजी से कह कर अपनी बुग्दियों की माला में एक और बुग्दी जोड़ने के लिए
सुनारों के पास भेजती थीं| उनकी बुग्दियों का आकार पुराने ‘नये पैसे’ जितना होता
था| सोने के तोल के हिसाब से ही इन्हें बड़ा या छोटा बनाया जाता था| उन दिनों सोना
भी तो –तोला , माशा , रत्तियों के हिसाब से तोला जाता था|
मेरी बचपन की
स्मृतियों में एक मीठी याद यह भी है कि जब भी मैं ज़िद्द करती तो अपनी प्यारी
‘बेबे’ से बुग्दियाँ माँगती थी कि मुझे उनके साथ खेलना है| हम ‘बेबे’ को तंग भी
करते थे कि अपनी बुग्दियों को किसको देकर जाएँगी| वो हँसकर कभी भी हम भाई बहनों का
नाम ले लेती थी| मैंने इस प्रकार की माला सुनारों की दुकानों में कुछ वर्ष पहले तक
तो देखी हैं लेकिन अब दिखाई नहीं देती|
मैं जब भी आँख बंद
कर के अपने बचपन में लौटती हूँ तो मुझे बेबे की वो बुग्दियाँ बहुत याद आती हैं|
मैं इस अनमोल गहने को डुग्गर संस्कृति के साथ ही जोडती हूँ|
खेद है कि मेरे पास
सोने में जड़ी बुग्दियों की माला की कोई तस्वीर नहीं है और न ही किसी डोगरी महिला
के गले में सजी बुग्दियों की कोई तस्वीर| यह गुज्जर युवती का तस्वीर मैंने गूगल
में ढूँढी है| अपने सभी डोगरी- हिमाचली मित्रों से अनुरोध है कि आपके पास अगर कोई
ऐसा चित्र है तो उसे इसे पोस्ट के साथ जोड़ें| अगर ‘बुग्दियों’ के विषय में कोई ओर
जानकारी है तो उसे भी लिखें| आभारी रहूँगी|
शशि पाधा
6 फरबरी, २०१८
रविवार, 4 फ़रवरी 2018
हमारी धरोहर ----डोगरी पोशाक--------
मेरे बहुत से मित्रों ने मुझसे पूछा है कि 'डोगरी पोशाक' पंजाबी पोशाक से भिन्न कैसे है या कितनी भिन्न है | मुझे इस विषय में जितनी भी जानकारी है उसे आपके साथ साझा कर रही हूँ | पंजाब में पहले सलवार कमीज़ ही पहनी जाती थी किन्तु जम्मू में डोगरी महिलाएँ कलियों वाला कुर्ता और सुत्थन पहनती थीं | 'सुत्थन' साठ के दशक में फैशन में आया चूडीदार के समान ही है केवल सुत्थन में चूड़ियाँ बहुत होती थी| सुत्थन धारी दार भी होती थी जो मोटी सिल्क में बनती थी, उस कपडे़ को ‘गुलबदन’ कहा जाता था ।हमारी दादी, परदादी और शायद उससे भी पहले डोगरी महिलाएँ केवल यही पोशाक पहनती थीं | मेरी दादी सास साठ के दशक में जब दिल्ली में रहने गईं तो यही पहनती थीं | उनको देख कर नवयुवतियाँ मेरी चाची सास से कहती थीं कि आपकी सास बहुत फैशनेबल है | कुर्ता शनील, प्लश का होता था और गर्मियों के लिए मलमल के कपड़े को रंग कर बनाया जाता था। समारोहों या विवाह शादियों में पहनने के लिए इसमें गोटा -किनारी का प्रयोग किया जाता था| कुर्ता और सुत्थन भिन्न रंगों की होती थी यानी contrast. आज का कुर्ता- पाजामा बहुत बाद फैशन में आया | मैं बहुत भग्यशाली हूँ कि मेरे पास मेरी माँ की और मेरी सासु माँ की डोगरी पोशाक है जो मैं कभी कभी त्योहारों पर पहन लेती हूँ | मेरी बहुओं और पोतियों के पास भी है जो बड़े चाव से इसे पहनती हैं | अपनी सांस्कृतिक धरोहर को पीढ़ी दर पीढ़ी सहेज के रखना हमारा कर्तव्य है | मैं अपने परिवार की कुछ डोगरी पोशाकों को आप के साथ साझा कर रही हूँ | मेरा विनम्र निवेदन जम्मू की लड़कियों से है कि आप अगर इस पोस्ट में कुछ जोड़ना चाहती हैं तो स्वागत है | आप सब इसे पहनें और अगली पीढ़ी के लिए अवश्य बनवा दें |
शशि पाधा
एक अंतहीन प्रेम कथा
“ मेरा हिन्दोस्तानी होना सिर्फ एक अहसास ही नहीं मेरी पहचान है
और मेरा भारतीय सैनिक होना सिर्फ एक काम ही नहीं
मेरा धर्म है, मेरा मान है ”
और मेरा भारतीय सैनिक होना सिर्फ एक काम ही नहीं
मेरा धर्म है, मेरा मान है ”
यह उद्गार है, परमवीर योद्धा लांस नायक मोहन गोस्वामी के | ये भारतीय सेना की महत्वपूर्ण यूनिट ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ के अविस्मरणीय योद्धा थे | इन्हे 26 जनवरी २०१६ के स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर उनकी वीरता तथा महाबलिदान के लिए सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’ से विभूषित किया था |
उद्घोषक, लांस नायक मोहन गोस्वामी के अदम्य साहस और शौर्य का वर्णन करते हुए बोल रहे थे, “ इस शूरवीर सैनिक ने केवल 10 दिनों में 11 आतंकवादियों को मौत के घाट उतार दिया | 2 और 3 सितंबर 2015 की रात को लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के हफरूदा जंगल में घात लगाने वाले दस्ते में शामिल थे। रात आठ बजकर 15 मिनट पर चार आतंकवादियों के साथ उनकी भीषण मुठभेड़ हुई। इसमें उनके दो साथी घालय होकर गिर पड़े। लांस नायक मोहन दो साथियों के साथ अपने सहयोगियों को बचाने के लिए आगे बढ़े। जबकि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि आगे बढ़ने में उनके जीवन को खतरा है। लांस नायक मोहन ने पहले एक आतंकवादी को मार गिराने में मदद की । उसके बाद अपने तीन घायल साथियों की जिंदगी पर आसन्न खतरे को भाँपते हुए, अपनी निजी सुरक्षा की परवाह न कर के बचे हुए आतंकवादियों पर टूट पड़े| दोनों ओर से भयंकर फायरिंग हुई |आतंकवादियों की गोली उनकी जांघ में लगी लेकिन उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उन्होंने एक आतंकवादी को मार गिराया और दूसरे को घायल कर दिया। अचानक उनके पेट में एक गोली लगी। अपने गंभीर घावों के बावज़ूद मोहन नाथ ने बचे हुए अंतिम आतंकवादी को दबोच लिया और उसे मार गिराया। इस अभियान मेंलांस नायक मोहन नाथ ने न केवल दो आतंकवादियों को मार गिराया, बल्कि अन्य दो को निष्क्रिय करने में भी सहायक हुए और अपने तीन घायल साथियों की जान बचाई। अंत में अपने लक्ष्य की पूर्ति के बाद यह योद्धा सदा के लिए माँ भारती की गोद में सो गया| लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी ने व्यक्तिगत रूप से आतंकवादियों को मार गिराने और अपने घायल साथियों का बचाव करने में सहायता प्रदान करते हुए भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं के अनुरूप अपना सर्वोच्च बलिदान दे कर विशिष्ट वीरता का प्रदर्शन किया । आज कृतज्ञ राष्ट्र इन्हें इनकी अप्रतिम वीरता के लिए सर्वोच्च पदक से विभूषित करते हुए गौरवान्वित है|”
उद्घोषक के ओजपूर्ण स्वर में इस शौर्य गाथा को सुनते ही सारा आकाश करतल ध्वनि से गूँज उठा | इस पदक को उनकी पत्नी भावना गोस्वामी ने करतल ध्वनि की गूँज के मध्य नतमस्तक होकर ग्रहण किया |
उद्घोषक, लांस नायक मोहन गोस्वामी के अदम्य साहस और शौर्य का वर्णन करते हुए बोल रहे थे, “ इस शूरवीर सैनिक ने केवल 10 दिनों में 11 आतंकवादियों को मौत के घाट उतार दिया | 2 और 3 सितंबर 2015 की रात को लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के हफरूदा जंगल में घात लगाने वाले दस्ते में शामिल थे। रात आठ बजकर 15 मिनट पर चार आतंकवादियों के साथ उनकी भीषण मुठभेड़ हुई। इसमें उनके दो साथी घालय होकर गिर पड़े। लांस नायक मोहन दो साथियों के साथ अपने सहयोगियों को बचाने के लिए आगे बढ़े। जबकि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि आगे बढ़ने में उनके जीवन को खतरा है। लांस नायक मोहन ने पहले एक आतंकवादी को मार गिराने में मदद की । उसके बाद अपने तीन घायल साथियों की जिंदगी पर आसन्न खतरे को भाँपते हुए, अपनी निजी सुरक्षा की परवाह न कर के बचे हुए आतंकवादियों पर टूट पड़े| दोनों ओर से भयंकर फायरिंग हुई |आतंकवादियों की गोली उनकी जांघ में लगी लेकिन उसे नज़र अंदाज़ करते हुए उन्होंने एक आतंकवादी को मार गिराया और दूसरे को घायल कर दिया। अचानक उनके पेट में एक गोली लगी। अपने गंभीर घावों के बावज़ूद मोहन नाथ ने बचे हुए अंतिम आतंकवादी को दबोच लिया और उसे मार गिराया। इस अभियान मेंलांस नायक मोहन नाथ ने न केवल दो आतंकवादियों को मार गिराया, बल्कि अन्य दो को निष्क्रिय करने में भी सहायक हुए और अपने तीन घायल साथियों की जान बचाई। अंत में अपने लक्ष्य की पूर्ति के बाद यह योद्धा सदा के लिए माँ भारती की गोद में सो गया| लांस नायक मोहन नाथ गोस्वामी ने व्यक्तिगत रूप से आतंकवादियों को मार गिराने और अपने घायल साथियों का बचाव करने में सहायता प्रदान करते हुए भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं के अनुरूप अपना सर्वोच्च बलिदान दे कर विशिष्ट वीरता का प्रदर्शन किया । आज कृतज्ञ राष्ट्र इन्हें इनकी अप्रतिम वीरता के लिए सर्वोच्च पदक से विभूषित करते हुए गौरवान्वित है|”
उद्घोषक के ओजपूर्ण स्वर में इस शौर्य गाथा को सुनते ही सारा आकाश करतल ध्वनि से गूँज उठा | इस पदक को उनकी पत्नी भावना गोस्वामी ने करतल ध्वनि की गूँज के मध्य नतमस्तक होकर ग्रहण किया |
मैं, समारोह का यह विवरण हज़ारों मील दूर बैठी अमेरिका में अपने टी वी स्क्रीन पर देख रही थी | भावविह्वल होकर मैंने कहा था, “ धीरज रखना बहन, मैं शीघ्र ही तुमसे मिलने आऊँगी |”
मेरा ममता से भरा हृदय उस समय उस दुबली-पतली लड़की को गले लगाने के लिए आतुर था |मुझे इस बात का अहसास था कि भारत के एक पहाड़ी नगर नैनीताल के पास बसे एक छोटे से गाँव ‘लालकुआँ’ में बैठी भावना मेरे अश्रुपूर्ण शब्द नहीं सुन रही है, किन्तु मुझे स्वयं से यह वायदा करके आन्तरिक सांत्वना मिली थी |
कुछ ही महीनों बाद जुलाई में ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ के ५०वें स्थापना दिवस के उत्सव में आई भावना से मिल कर खुद से किया यह वायदा पूरा हुआ ,इसकी मुझे प्रसन्नता हुई | उसे गले लगाते ही मैंने उसके सामने मन में उठते प्रश्नों की गठरी खोल दी थी |
मैंने कहा, “ भावना, मैं आपको तब से जानती हूँ जब मैंने टी वी स्क्रीन पर आपको राष्ट्रपति से अशोक चक्र एवं प्रशस्ति पत्र ग्रहण करते हुए देखा था | तब से मैं यही सोचती हूँ कि इतनी छोटी आयु, आगे की इतनी लम्बी जीवन डगर, कैसे, और किसके सहारे -------”
“ मैम, मैं आठ जन्म, आठ युग, आठ लोक, कहीं पर भी जन्म लूँ , मुझे उनके जैसा और कोई मिल नहीं सकता | मेरे हर एकाकी पल में वो मेरे साथ हैं | वही मेरा अतीत थे; वही मेरा वर्तमान हैं, और उनकी मधुर स्मृतियाँ ही मेरा भविष्य हैं | उनके सहारे ही जी रही हूँ |”
मैंने अभी सवाल पूरा भी नहीं किया था कि उसने बिना रुके, बिना साँस लिए मुझे उत्तर देना आरम्भ कर दिया था | यह संकल्प और निष्ठा से भरे हुए शब्द थे लांस नायक मोहन गोस्वामी की युवा पत्नी भावना गोस्वामी के | मोहन गोस्वामी को वीरगति प्राप्त हुए कुछ महीने ही हुए थे, शायद आठ महीने | मैं उससे कभी नहीं मिली थी, लेकिन यह जानती थी कि मोहन मेरे पति की पलटन ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ का एक शूरवीर सैनिक था | आज मैं और भावना दोनों आमने-सामने बैठे एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे |
उसका त्वरित उत्तर सुनकर मैंने बड़े प्यार से पूछा, “ भावना, यह आठ का आँकड़ा क्यूँ ?”
अब उसके होठों पर हल्की सी मुस्कराहट थी और उसकी बड़ी-बड़ी उदास आँखें अतीत की खोह में कुछ ढूँढ रही थी|
एक गहन उच्छ्वास लेते हुए वो बोली, “ मैंने मोहना के साथ आठ वर्ष का सुखद वैवाहिक जीवन बिताया है | |इन आठ वर्षों में मैंने जो भोगा-पाया, वो सुख मेरे लिए आठ जनमों की धरोहर है | वही जन्मों-जन्मों तक मेरा सम्बल है |”
मेरे सामने दुबली-पतली सी लड़की बैठी थी किन्तु उसके स्वर में वही ओज झलक रहा था जो आज की वीर नारी का सब से दृढ़ रक्षा कवच है | मुझे उसके स्वर में कहीं कोई कँपकपी, कोई घबराहट नहीं दिखी | मुझे लगा कि यही तो एक मुख्य लक्षण है जो वीर नारी को एक अलग पहचान देता है |
मैं श्रद्धा से उसे देख रही थी और वो अपने छोटे से वैवाहिक जीवन की प्रेम भरी गाथा सुना रही थी |
“ मैम, बहुत शरारती थे मोहना | मुझे बिना बताए ही वो छुट्टी आते और घर के दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे हैरान कर देते थे | आनन–फानन में छत पर खड़े होकर गाँव वालों को आवाजें लगा कर कहते थे – ‘चाची मैं आ गया, बुआ शाम का खाना आपके साथ !’ आस-पास के बच्चों के लिए भी उपहार लाते थे | सारे गाँव का ‘लाडला बेटा’ थे वे | इतनी मौज मस्ती करते थे कि गाँव वाले स्नेह से इन्हें ‘रौनकी’ नाम से बुलाते थे |”
भावना अपने बीते जीवन की मीठी यादों में खो गई थी और मैं उसके हाव-भाव, उसके शब्दों की मीठास में डूब रही थी | मोहन ने उसे किसी शादी में देखा था और उससे शादी का प्रस्ताव कर बैठा था, और उस दिन भी तारीख़ थी – आठ |
मैंने मोहन और भावना की एक सुंदर सी तस्वीर में भावना के गले में प्यारा सा मंगल सूत्र देखा था | मैंने पूछ लिया, “ तो वो मंगल सूत्र भी आठ धागों से पिरोया होगा ?”
हँस कर कहने लगी, “ नहीं मेम साब, वो तो इन्होने मुझे शादी की दूसरी साल गिरह पर पहनाया था | मैंने बहुत कहा था कि पहले घर बनवा लेते हैं फिर दूसरे खर्चे | पर कहाँ माने थे वो | लाकर पहना दिया था |”
आज वो मंगल सूत्र तो नहीं देखा किन्तु उसके स्थान पर पतले से काले धागे में पिरोई काले मनकों की माला थी | पहाड़ में मैंने बहुत सी लड़कियों को ऐसी माला पहने देखा है | अच्छा लगा कि उसका गला और कलाई सूनी नहीं थी |
मैंने सुना था कि मोहन अच्छा शायर भी था | उसकी इस खूबसूरत कला के विषय में मैंने भावना से पूछा, “ बहुत से गीत गाए होंगे उसने तुम्हारे लिए | गीतों में तुम्हें बहुत कुछ कह जाता होगा| अच्छा तो तुम्हारी किस चीज़ की वो सबसे अधिक प्रशंसा करता था ?”
पहली बार मुझे आभास हुआ कि वो थोड़ा झिझकी थी | कुछ पल चुप रही फिर हँस कर बोली, “ मेरी आँखें | कहते थे तेरी आँखों में कोई समन्दर है | तुम काजल मत लगाया करो |” मैंने उसकी आँखों में उमड़े पीड़ा के तूफ़ान को देख लिया था | इससे पहले कि वो किनारे तोड़ जाए मैंने जल्दी से पूछा, “ और तुम्हें ?”
बड़े कोमल भाव से उसने कहा, “ मुझे तो वो पूरे के पूरे ही अच्छे लगते थे | किस-किस की तारीफ़ करूँ ? वो हैं ही इतने अच्छे, थे |” वो अपने अतीत में खो गई थी और मैं उसे बाहर नहीं लाना चाहती थी | सुना था मीठी यादें ही दारुण पीड़ा की औषधि होती हैं | हम दोनों ही कमरे में चुप-चाप बैठे, मौन में उस पीड़ा की मरहम ढूँढ रहे थे |
अभियान से एक दिन पहले उसने अपनी डायरी में एक छोटी सी कविता लिखी थी – “ पत्नी के निस्वार्थ प्रेम की खुश्बू को महकता छोड़ के आया हूँ
मैं नन्हीं सी चिड़िया बेटी को चहकता छोड़ के आया हूँ
मुझे सीने से अपने तू लगा ले ऐ भारत माँ
मैं अपनी जन्मदायिनी माँ को तरसता छोड़ के आया हूँ ”
मैंने कई बार इन पँक्तियों को पढ़ा था | इन्हें भीतर तक महसूस करते हुए मैं यही सोचती थी कि 10 दिन में 11 खूँखार आतंकवादियों को मौत के घाट उतारने वाले इस शूरवीर योद्धा के हृदय में और कितनी जगह होगी जहाँ शौर्य और पराक्रम की उद्दात भावना के साथ पति, पिता और सुपुत्र के मनोभावों की अविरल नदिया बहती रहती हो | मैं सदैव इस बात को मानती हूँ और अपने पाठकों को बताना चाहती हूँ कि सैनिक केवल ‘घातक’ नहीं होता | वह पति, पुत्र, मित्र, पिता, शायर, गायक, सेवक और अभिनेता भी होता है | वह ‘अर्जुन’ तब होता है जब उसे धर्म की रक्षा करनी होती है | वह धर्म चाहे राष्ट्र रक्षा हो, चाहे मानव रक्षा | उस समय वह रक्षक का चोला पहन कर अपना कर्तव्य निभाने चल पड़ता है |
“ शायरी के साथ-साथ और भी शौक होंगे मोहन को ?” मेरे पूछने पर बहुत संजीदगी से बताने लगी, “ डांस का बहुत शौक था | स्कूल में उनके अध्यापक बताते हैं कि हर कार्यक्रम में उनके डांस की एक आईटम अवश्य होती थी |”
मेरा ममता से भरा हृदय उस समय उस दुबली-पतली लड़की को गले लगाने के लिए आतुर था |मुझे इस बात का अहसास था कि भारत के एक पहाड़ी नगर नैनीताल के पास बसे एक छोटे से गाँव ‘लालकुआँ’ में बैठी भावना मेरे अश्रुपूर्ण शब्द नहीं सुन रही है, किन्तु मुझे स्वयं से यह वायदा करके आन्तरिक सांत्वना मिली थी |
कुछ ही महीनों बाद जुलाई में ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ के ५०वें स्थापना दिवस के उत्सव में आई भावना से मिल कर खुद से किया यह वायदा पूरा हुआ ,इसकी मुझे प्रसन्नता हुई | उसे गले लगाते ही मैंने उसके सामने मन में उठते प्रश्नों की गठरी खोल दी थी |
मैंने कहा, “ भावना, मैं आपको तब से जानती हूँ जब मैंने टी वी स्क्रीन पर आपको राष्ट्रपति से अशोक चक्र एवं प्रशस्ति पत्र ग्रहण करते हुए देखा था | तब से मैं यही सोचती हूँ कि इतनी छोटी आयु, आगे की इतनी लम्बी जीवन डगर, कैसे, और किसके सहारे -------”
“ मैम, मैं आठ जन्म, आठ युग, आठ लोक, कहीं पर भी जन्म लूँ , मुझे उनके जैसा और कोई मिल नहीं सकता | मेरे हर एकाकी पल में वो मेरे साथ हैं | वही मेरा अतीत थे; वही मेरा वर्तमान हैं, और उनकी मधुर स्मृतियाँ ही मेरा भविष्य हैं | उनके सहारे ही जी रही हूँ |”
मैंने अभी सवाल पूरा भी नहीं किया था कि उसने बिना रुके, बिना साँस लिए मुझे उत्तर देना आरम्भ कर दिया था | यह संकल्प और निष्ठा से भरे हुए शब्द थे लांस नायक मोहन गोस्वामी की युवा पत्नी भावना गोस्वामी के | मोहन गोस्वामी को वीरगति प्राप्त हुए कुछ महीने ही हुए थे, शायद आठ महीने | मैं उससे कभी नहीं मिली थी, लेकिन यह जानती थी कि मोहन मेरे पति की पलटन ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ का एक शूरवीर सैनिक था | आज मैं और भावना दोनों आमने-सामने बैठे एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे |
उसका त्वरित उत्तर सुनकर मैंने बड़े प्यार से पूछा, “ भावना, यह आठ का आँकड़ा क्यूँ ?”
अब उसके होठों पर हल्की सी मुस्कराहट थी और उसकी बड़ी-बड़ी उदास आँखें अतीत की खोह में कुछ ढूँढ रही थी|
एक गहन उच्छ्वास लेते हुए वो बोली, “ मैंने मोहना के साथ आठ वर्ष का सुखद वैवाहिक जीवन बिताया है | |इन आठ वर्षों में मैंने जो भोगा-पाया, वो सुख मेरे लिए आठ जनमों की धरोहर है | वही जन्मों-जन्मों तक मेरा सम्बल है |”
मेरे सामने दुबली-पतली सी लड़की बैठी थी किन्तु उसके स्वर में वही ओज झलक रहा था जो आज की वीर नारी का सब से दृढ़ रक्षा कवच है | मुझे उसके स्वर में कहीं कोई कँपकपी, कोई घबराहट नहीं दिखी | मुझे लगा कि यही तो एक मुख्य लक्षण है जो वीर नारी को एक अलग पहचान देता है |
मैं श्रद्धा से उसे देख रही थी और वो अपने छोटे से वैवाहिक जीवन की प्रेम भरी गाथा सुना रही थी |
“ मैम, बहुत शरारती थे मोहना | मुझे बिना बताए ही वो छुट्टी आते और घर के दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे हैरान कर देते थे | आनन–फानन में छत पर खड़े होकर गाँव वालों को आवाजें लगा कर कहते थे – ‘चाची मैं आ गया, बुआ शाम का खाना आपके साथ !’ आस-पास के बच्चों के लिए भी उपहार लाते थे | सारे गाँव का ‘लाडला बेटा’ थे वे | इतनी मौज मस्ती करते थे कि गाँव वाले स्नेह से इन्हें ‘रौनकी’ नाम से बुलाते थे |”
भावना अपने बीते जीवन की मीठी यादों में खो गई थी और मैं उसके हाव-भाव, उसके शब्दों की मीठास में डूब रही थी | मोहन ने उसे किसी शादी में देखा था और उससे शादी का प्रस्ताव कर बैठा था, और उस दिन भी तारीख़ थी – आठ |
मैंने मोहन और भावना की एक सुंदर सी तस्वीर में भावना के गले में प्यारा सा मंगल सूत्र देखा था | मैंने पूछ लिया, “ तो वो मंगल सूत्र भी आठ धागों से पिरोया होगा ?”
हँस कर कहने लगी, “ नहीं मेम साब, वो तो इन्होने मुझे शादी की दूसरी साल गिरह पर पहनाया था | मैंने बहुत कहा था कि पहले घर बनवा लेते हैं फिर दूसरे खर्चे | पर कहाँ माने थे वो | लाकर पहना दिया था |”
आज वो मंगल सूत्र तो नहीं देखा किन्तु उसके स्थान पर पतले से काले धागे में पिरोई काले मनकों की माला थी | पहाड़ में मैंने बहुत सी लड़कियों को ऐसी माला पहने देखा है | अच्छा लगा कि उसका गला और कलाई सूनी नहीं थी |
मैंने सुना था कि मोहन अच्छा शायर भी था | उसकी इस खूबसूरत कला के विषय में मैंने भावना से पूछा, “ बहुत से गीत गाए होंगे उसने तुम्हारे लिए | गीतों में तुम्हें बहुत कुछ कह जाता होगा| अच्छा तो तुम्हारी किस चीज़ की वो सबसे अधिक प्रशंसा करता था ?”
पहली बार मुझे आभास हुआ कि वो थोड़ा झिझकी थी | कुछ पल चुप रही फिर हँस कर बोली, “ मेरी आँखें | कहते थे तेरी आँखों में कोई समन्दर है | तुम काजल मत लगाया करो |” मैंने उसकी आँखों में उमड़े पीड़ा के तूफ़ान को देख लिया था | इससे पहले कि वो किनारे तोड़ जाए मैंने जल्दी से पूछा, “ और तुम्हें ?”
बड़े कोमल भाव से उसने कहा, “ मुझे तो वो पूरे के पूरे ही अच्छे लगते थे | किस-किस की तारीफ़ करूँ ? वो हैं ही इतने अच्छे, थे |” वो अपने अतीत में खो गई थी और मैं उसे बाहर नहीं लाना चाहती थी | सुना था मीठी यादें ही दारुण पीड़ा की औषधि होती हैं | हम दोनों ही कमरे में चुप-चाप बैठे, मौन में उस पीड़ा की मरहम ढूँढ रहे थे |
अभियान से एक दिन पहले उसने अपनी डायरी में एक छोटी सी कविता लिखी थी – “ पत्नी के निस्वार्थ प्रेम की खुश्बू को महकता छोड़ के आया हूँ
मैं नन्हीं सी चिड़िया बेटी को चहकता छोड़ के आया हूँ
मुझे सीने से अपने तू लगा ले ऐ भारत माँ
मैं अपनी जन्मदायिनी माँ को तरसता छोड़ के आया हूँ ”
मैंने कई बार इन पँक्तियों को पढ़ा था | इन्हें भीतर तक महसूस करते हुए मैं यही सोचती थी कि 10 दिन में 11 खूँखार आतंकवादियों को मौत के घाट उतारने वाले इस शूरवीर योद्धा के हृदय में और कितनी जगह होगी जहाँ शौर्य और पराक्रम की उद्दात भावना के साथ पति, पिता और सुपुत्र के मनोभावों की अविरल नदिया बहती रहती हो | मैं सदैव इस बात को मानती हूँ और अपने पाठकों को बताना चाहती हूँ कि सैनिक केवल ‘घातक’ नहीं होता | वह पति, पुत्र, मित्र, पिता, शायर, गायक, सेवक और अभिनेता भी होता है | वह ‘अर्जुन’ तब होता है जब उसे धर्म की रक्षा करनी होती है | वह धर्म चाहे राष्ट्र रक्षा हो, चाहे मानव रक्षा | उस समय वह रक्षक का चोला पहन कर अपना कर्तव्य निभाने चल पड़ता है |
“ शायरी के साथ-साथ और भी शौक होंगे मोहन को ?” मेरे पूछने पर बहुत संजीदगी से बताने लगी, “ डांस का बहुत शौक था | स्कूल में उनके अध्यापक बताते हैं कि हर कार्यक्रम में उनके डांस की एक आईटम अवश्य होती थी |”
अब तक भावना थोड़ी सहज हो गई थी | पास में बैठी थी उसकी छोटी सी बिटिया | मैंने उससे पूछा, “ बहुत सुंदर नाम है आपका ‘भूमिका’| किसने नाम रखा था आपका ?”
भूमिका ने बाल सुलभ भोलेपन से कहा, “ मेरे पापा ने | पर वो मुझे कभी गुड़िया और कभी चिड़िया ही बुलाते थे |”
हँसते हुए भावना बोली, “ बहुत सोच-विचार के बाद ही यह नाम चुना था मोहना ने | मेरे नाम का ‘भ’ और अपने नाम का ‘म’ जोड़ कर ही वो अपनी पहली सन्तान का नाम रखना चाहते थे |”
मैंने भी उत्सुकता वश पूछ लिया, “ और अगर लड़का होता तो ?”
बिना समय गँवाए उत्तर था , “ भौम या भीम |”
अब हम दोनों ही सहज होकर हँस रहे थे | स्वयं एक सैनिक पत्नी होने के नाते मैं वियोग की वेदना भोग चुकी थी | उस लम्बी और अनिश्चित अवधि में पत्र ही हमारा सहारा होते थे | अपने बीते कल को याद करते हुए मैंने भावना से पूछा, “ जब से देश की उत्तरी सीमाओं को आतंकवाद ने घेर रखा है, हमारी पलटन के सैनिक अधिकतर सीमाओं पर ही तैनात रहते हैं | ऐसे में बहुत कम समय के लिए ही तुम उनके साथ रह पाती होगी | केवल लम्बे-लम्बे पत्र ही तुम्हारा सम्पर्क सूत्र होंगे ?”
उसने बड़ी हैरानी से मेरी ओर देखा कि मैं कैसा सवाल कर रही हूँ, और फिर कहने लगी, “ मैम, पत्र कहाँ, आज कल तो WhatsApp , Messenger पर ही सारा पत्र व्यवहार होता है | कोई भी दिन खाली नहीं था जब ‘वे’ फेस टाइम पर या व्हट्स एप पर बात नहीं करते थे |”
मैं भी कितनी नादान थी | इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि मैं अपनी अगली पीढ़ी से बात कर रही थी | मैंने कुछ झिझकते हुए कहा, ‘ओह ! मैं तो भूल ही गई थी कि अब डाक से पत्र तो कोई भेजता ही नहीं है |”
इससे पहले कि मैं कुछ और पूछती वो बोली, “ उनके फोन की एक अलग से रिंग टोन मैंने सहेज रखी थी | आधी रात को भी फोन आता तो मैं उठा लेती थी |”
थोड़ी देर के लिए भावना चुप रही और फिर अपने पर्स से एक मोबाइल निकाला |
मोहना के फोन की रिंग टोन लगाई और बहुत अस्फुट स्वर में बोली, “ अब मैं खुद ही फोन करती हूँ और खुद ही सुनती हूँ |”
मैं थोड़ा काँप गई थी | इतनी बहादुर लड़की और भीतर से इतनी भावुक, इतनी कोमल | कैसे होंगे वो अंतहीन प्रतीक्षा के पल जब भावना केवल मोहन के फोन की घंटी ही सुनना चाहती होगी और फिर अपने को ही सुना कर मौन सांत्वना देती होगी !!
कुछ घंटे पहले यूनिट के वेलफेयर सेंटर के समारोह में भावना को सम्मानित करते हुए सूबेदार साहब की पत्नी ने कहा था , “ भावना बहुत बहादुर है | वह अपनी बच्ची को पढ़ा भी रही है और साइकोलोजी में एम ए भी कर रही है | साथ ही अपना घर भी बनवा रही है | ऐसी धैर्यवान और कर्मठ वीर नारी हम सब के लिए एक उदाहरण है |”
भावना ने मुझे यह भी बताया था कि मोहन उसे आगे पढ़ने के लिए बहुत उत्साहित करते रहते थे | स्वयं उन्होंने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की थी, लेकिन उन्हें बहुत गर्व था कि भावना ग्रेजुएट थी |
मैं अब तक मोहन और भावना के छोटे से प्यार भरे जीवन के विषय में बहुत कुछ जान गई थी, किन्तु अनुभव यही कहता था कि कोई तो पल होगा जब भावना को मोहन की जीवन रक्षा के विषय में डर लगता होगा या आशंका होती होगी | सुदूर पहाड़ों में रहने वाली लड़की को कितना पता था कि जिस पलटन में मोहन सेवारत था उस पलटन को सदैव शत्रु के साथ आमने-सामने युद्ध करना पड़ता है | स्पेशल फोर्सेस में होने के कारण उनका हर अभियान, हर युद्ध ख़तरों से भरा होता है |
मैंने यही प्रश्न उससे पूछा, “ वे कभी आपसे अपने इस चुनौती पूर्ण व्यवसाय की बात करते थे | कभी बताते थे कि अभियान पर जाते हुए कितने खतरों का सामना करते हैं ?”
उसने बिना संकोच के कहा, “ वे हमें अपने काम के विषय में जितना आवश्यक था, उतना ही बताते थे | पता नहीं क्यूँ पर वो मुझे भविष्य के लिए सदैव तैयार करते रहते थे | अगर कभी मैं डरती थी तो कहते थे – मैं कमांडो हूँ , पूरे दस को लेकर जाऊँगा | अब सोचती हूँ कि क्या सभी सैनिक अपने परिवार को यूँ ही सचेत करते रहते हैं या इन्हें मेरी बहुत चिंता थी | पता नहीं, वही जानें |”
मोहन के सैनिक होने का गर्व जितना मोहन को था उतना ही भावना को भी | बताने लगी, “ मोहन कहते थे, बचपन से ही उन्हें कमांडो बनने का शौक था | उनके पिता भी भूतपूर्व सैनिक थे | इसीलिए सैनिक धर्म तो उन्हें जन्म घुट्टी में ही पिला दिया गया था | किन्तु कमांडो ही बनना है, यह जुनून तो विद्यार्थी जीवन में ही उनके मन-मस्तिष्क में छा गया था | सेना में भर्ती होने से पहले निर्भीक कमांडो बनने के लिए उन्होंने पूरी तैयारी कर ली थी |”
अचानक बात करते करते उसने मुझसे पूछा, “ मेम साब जी, क्या आप मोहना को जानती थीं , कभी उससे मिली थी ?”
मैंने बड़े स्नेह से उससे कहा, “ कभी नहीं मिली | पर एक बात कहूँ, पति के सेवा निवृत होने के बाद भी हमें अपनी पलटन से उतना ही प्यार, लगाव रहता है जितना नौकरी के समय था | हम हर पल उनसे सम्पर्क बनाए रखते हैं और जब भी समय मिलता है पलटन के सदस्यों से मिलने भी आते हैं | फिर दूरी कैसी ? इस नाते मैं मोहन को जानती थी | जिस दिन मोहन ने वीरगति प्राप्त की थी उस दिन मैंने विभिन्न समाचार पत्रों में उसकी तस्वीर देखी थी | एक तस्वीर में तुम और भूमिका भी उसके साथ थी | कितने खुश लग रहे थे आप तीनों | उसी दिन मैंने यह संकल्प लिया था कि तुमसे अवश्य मिलूँगी, कभी |”
अब मैं थोड़ी भावुक थी | मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर भावना मुझसे बोली, “ आप मेरी से बड़ी हैं | मेरी बेटी को आशीर्वाद दीजिए कि यह अपने पापा का नाम ऊँचा करे | मैं इसे डॉक्टर बनाना चाहती हूँ, सेना में भेजना चाहती हूँ | बस यही मेरा एक मात्र लक्ष्य है |”
मैंने उसके स्वर में जो संकल्प का घोष सुना उससे मुझे लगा कि सीमाओं पर शत्रु का संहार करने वाले शूरवीर अपनी वीरांगनाओं के इसी धैर्य और आस्था का संबल पाकर निश्चिन्त हो कर रक्षा कर्म में जुट पते होंगे |
अपनी बेटी की ओर देखती हुई भावना बोली,” इसके जन्म पर मुझे परिवार से काफी कुछ सुनना पड़ा था क्योंकि घर के बड़ों को पुत्र की चाह थी | पर अब मैं इससे ही अपना वंश चलाऊँगी, इसके नाम के साथ मोहन का नाम सदैव जुड़ा रहेगा |”
भावना के इस रूप को देख कर मुझे बहुत खुशी हो रही थी | किन्तु एक प्रश्न जो मेरे मन में अभी तक बैठा था, पर इतनी हंसती खेलती नवयुवती को मैं फिर से उस दारुण पल की याद नहीं दिलाना चाहती थी, फिर भी पूछ लिया, “ भावना आप को सूचना कैसे मिली ?
धरती पर आँखें गड़ाये दूर कहीं कुछ खोजती सी वो बोली, ” मुझे पता नहीं था कि वो किसी मिशन पर गए हैं | 11 अगस्त को ही तो गुड़िया का जनम दिन मना कर 15 अगस्त को गए थे | कुछ दिन फोन पर भी बात होती रहती थी | पिछले तीन दिनों से नहीं हुई थी | फिर एक दिन इनके दोस्त बार-बार फोन करके पूछ रहे थे कि भाभी आप कैसी हो ? मुझे नहीं पता था कि वो मुझे किसी अशुभ सूचना के लिए तैयार कर रहे थे | फिर शाम को ‘एस एम’ साहब का फोन आया था | कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कह रहे थे | बस सुन्न सी मैं यही समझ सकी कि ----
अब वो चुप थी | पहली बार मैंने उसके शरीर में कंपन देखी थी | उसकी बच्ची चुपचाप अपनी माँ का हाथ लेकर उसे सहला रही थी | कितने असमय ही बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे ! कैसे समझ लेते हैं अपना उत्तरदायित्व !! मैंने उसके मौन को नहीं तोड़ा | उसकी आर्द्र आँखों की पीड़ा मेरी आँखों में भी प्रतिबिम्बित हो रही थी |
उसने गले में पतली सी माला पहन रखी थी जो शायद शादी के समय मोहन ने उसे पहनाई होगी | उसे बड़े प्रेम से छू कर बोली , “ यह है न उनका मेरे साथ होने का चिह्न | और फिर मैंने उनकी लैप टॉप, वर्दी , मोटर साइकल, फोन सभी चीजें सम्भाल कर रखी हैं |
मैंने वातावरण को थोड़ा सहज करते हुए पूछा, “ और उनकी शायरी वाली डायरी ? उसे तो तुम रोज़ पढ़ती होगी ?”
अब वो थोड़ा शर्मा गई थी | भावना ने बताया, “ हाँ पढ़ती हूँ ; कई बार, बार-बार | और फिर उनके मित्र भी मुझे उनका लिखा भेजते रहते हैं जो उन्होने पलटन में रहते हुए किसी नोटबुक में लिख छोड़ा होगा |”
फिर स्वयं ही कहने लगी, “ मैंने उनकी समाधि बनवाई है, घर के सामने अपनी ज़मीन पर | पहाड़ों में वीरों की समाधि बनवाने का भी प्रावधान है | वहीं पर एक छोटा सा मंदिर बनेगा | गाँव में उनके नाम की सड़क है, स्कूल है | स्टेडियम को भी उनका ही नाम दिया गया है | बहुत से लोग आते रहते हैं उस समाधि पर | कई संस्थाएँ भी मुझे बुलाती रहती हैं | सब से अधिक मैं जो काम कर रही हूँ वो यह है कि मैंने अन्य वीर नारियों से सम्पर्क बना लिया है | उनसे बातचीत करती रहती हूँ |
“और पलटन के साथ क्या सम्पर्क सूत्र है ?” मेरे यह पूछने पर कहने लगी,
“पलटन ही तो मेरा घर है | इन्होने ही तो मेरा घर बनवाने में मेरी सहायता की | फोन भी आते रहते हैं | आप इतनी दूर से मिलने आई हो, आप भी मेरी अपनी हो | मैं अकेली कहाँ हूँ ?”
बातों का सिलसिला तो कभी समाप्त नहीं हो सकता था किन्तु अभी और भी कार्यक्रम थे| मेरे मन में मोहन के उस महा अभियान के विषय में कई प्रश्न थे | इसीलिए हम दोनों फिर मिलने का वादा कर के विदा हुए | उसके जाने के बाद मैंने एक अजीब सा एकाकीपन महसूस किया | भावना के साथ मेरा एक अटूट संबंध जो जुड़ गया था |
भूमिका ने बाल सुलभ भोलेपन से कहा, “ मेरे पापा ने | पर वो मुझे कभी गुड़िया और कभी चिड़िया ही बुलाते थे |”
हँसते हुए भावना बोली, “ बहुत सोच-विचार के बाद ही यह नाम चुना था मोहना ने | मेरे नाम का ‘भ’ और अपने नाम का ‘म’ जोड़ कर ही वो अपनी पहली सन्तान का नाम रखना चाहते थे |”
मैंने भी उत्सुकता वश पूछ लिया, “ और अगर लड़का होता तो ?”
बिना समय गँवाए उत्तर था , “ भौम या भीम |”
अब हम दोनों ही सहज होकर हँस रहे थे | स्वयं एक सैनिक पत्नी होने के नाते मैं वियोग की वेदना भोग चुकी थी | उस लम्बी और अनिश्चित अवधि में पत्र ही हमारा सहारा होते थे | अपने बीते कल को याद करते हुए मैंने भावना से पूछा, “ जब से देश की उत्तरी सीमाओं को आतंकवाद ने घेर रखा है, हमारी पलटन के सैनिक अधिकतर सीमाओं पर ही तैनात रहते हैं | ऐसे में बहुत कम समय के लिए ही तुम उनके साथ रह पाती होगी | केवल लम्बे-लम्बे पत्र ही तुम्हारा सम्पर्क सूत्र होंगे ?”
उसने बड़ी हैरानी से मेरी ओर देखा कि मैं कैसा सवाल कर रही हूँ, और फिर कहने लगी, “ मैम, पत्र कहाँ, आज कल तो WhatsApp , Messenger पर ही सारा पत्र व्यवहार होता है | कोई भी दिन खाली नहीं था जब ‘वे’ फेस टाइम पर या व्हट्स एप पर बात नहीं करते थे |”
मैं भी कितनी नादान थी | इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि मैं अपनी अगली पीढ़ी से बात कर रही थी | मैंने कुछ झिझकते हुए कहा, ‘ओह ! मैं तो भूल ही गई थी कि अब डाक से पत्र तो कोई भेजता ही नहीं है |”
इससे पहले कि मैं कुछ और पूछती वो बोली, “ उनके फोन की एक अलग से रिंग टोन मैंने सहेज रखी थी | आधी रात को भी फोन आता तो मैं उठा लेती थी |”
थोड़ी देर के लिए भावना चुप रही और फिर अपने पर्स से एक मोबाइल निकाला |
मोहना के फोन की रिंग टोन लगाई और बहुत अस्फुट स्वर में बोली, “ अब मैं खुद ही फोन करती हूँ और खुद ही सुनती हूँ |”
मैं थोड़ा काँप गई थी | इतनी बहादुर लड़की और भीतर से इतनी भावुक, इतनी कोमल | कैसे होंगे वो अंतहीन प्रतीक्षा के पल जब भावना केवल मोहन के फोन की घंटी ही सुनना चाहती होगी और फिर अपने को ही सुना कर मौन सांत्वना देती होगी !!
कुछ घंटे पहले यूनिट के वेलफेयर सेंटर के समारोह में भावना को सम्मानित करते हुए सूबेदार साहब की पत्नी ने कहा था , “ भावना बहुत बहादुर है | वह अपनी बच्ची को पढ़ा भी रही है और साइकोलोजी में एम ए भी कर रही है | साथ ही अपना घर भी बनवा रही है | ऐसी धैर्यवान और कर्मठ वीर नारी हम सब के लिए एक उदाहरण है |”
भावना ने मुझे यह भी बताया था कि मोहन उसे आगे पढ़ने के लिए बहुत उत्साहित करते रहते थे | स्वयं उन्होंने 12वीं कक्षा तक पढ़ाई की थी, लेकिन उन्हें बहुत गर्व था कि भावना ग्रेजुएट थी |
मैं अब तक मोहन और भावना के छोटे से प्यार भरे जीवन के विषय में बहुत कुछ जान गई थी, किन्तु अनुभव यही कहता था कि कोई तो पल होगा जब भावना को मोहन की जीवन रक्षा के विषय में डर लगता होगा या आशंका होती होगी | सुदूर पहाड़ों में रहने वाली लड़की को कितना पता था कि जिस पलटन में मोहन सेवारत था उस पलटन को सदैव शत्रु के साथ आमने-सामने युद्ध करना पड़ता है | स्पेशल फोर्सेस में होने के कारण उनका हर अभियान, हर युद्ध ख़तरों से भरा होता है |
मैंने यही प्रश्न उससे पूछा, “ वे कभी आपसे अपने इस चुनौती पूर्ण व्यवसाय की बात करते थे | कभी बताते थे कि अभियान पर जाते हुए कितने खतरों का सामना करते हैं ?”
उसने बिना संकोच के कहा, “ वे हमें अपने काम के विषय में जितना आवश्यक था, उतना ही बताते थे | पता नहीं क्यूँ पर वो मुझे भविष्य के लिए सदैव तैयार करते रहते थे | अगर कभी मैं डरती थी तो कहते थे – मैं कमांडो हूँ , पूरे दस को लेकर जाऊँगा | अब सोचती हूँ कि क्या सभी सैनिक अपने परिवार को यूँ ही सचेत करते रहते हैं या इन्हें मेरी बहुत चिंता थी | पता नहीं, वही जानें |”
मोहन के सैनिक होने का गर्व जितना मोहन को था उतना ही भावना को भी | बताने लगी, “ मोहन कहते थे, बचपन से ही उन्हें कमांडो बनने का शौक था | उनके पिता भी भूतपूर्व सैनिक थे | इसीलिए सैनिक धर्म तो उन्हें जन्म घुट्टी में ही पिला दिया गया था | किन्तु कमांडो ही बनना है, यह जुनून तो विद्यार्थी जीवन में ही उनके मन-मस्तिष्क में छा गया था | सेना में भर्ती होने से पहले निर्भीक कमांडो बनने के लिए उन्होंने पूरी तैयारी कर ली थी |”
अचानक बात करते करते उसने मुझसे पूछा, “ मेम साब जी, क्या आप मोहना को जानती थीं , कभी उससे मिली थी ?”
मैंने बड़े स्नेह से उससे कहा, “ कभी नहीं मिली | पर एक बात कहूँ, पति के सेवा निवृत होने के बाद भी हमें अपनी पलटन से उतना ही प्यार, लगाव रहता है जितना नौकरी के समय था | हम हर पल उनसे सम्पर्क बनाए रखते हैं और जब भी समय मिलता है पलटन के सदस्यों से मिलने भी आते हैं | फिर दूरी कैसी ? इस नाते मैं मोहन को जानती थी | जिस दिन मोहन ने वीरगति प्राप्त की थी उस दिन मैंने विभिन्न समाचार पत्रों में उसकी तस्वीर देखी थी | एक तस्वीर में तुम और भूमिका भी उसके साथ थी | कितने खुश लग रहे थे आप तीनों | उसी दिन मैंने यह संकल्प लिया था कि तुमसे अवश्य मिलूँगी, कभी |”
अब मैं थोड़ी भावुक थी | मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर भावना मुझसे बोली, “ आप मेरी से बड़ी हैं | मेरी बेटी को आशीर्वाद दीजिए कि यह अपने पापा का नाम ऊँचा करे | मैं इसे डॉक्टर बनाना चाहती हूँ, सेना में भेजना चाहती हूँ | बस यही मेरा एक मात्र लक्ष्य है |”
मैंने उसके स्वर में जो संकल्प का घोष सुना उससे मुझे लगा कि सीमाओं पर शत्रु का संहार करने वाले शूरवीर अपनी वीरांगनाओं के इसी धैर्य और आस्था का संबल पाकर निश्चिन्त हो कर रक्षा कर्म में जुट पते होंगे |
अपनी बेटी की ओर देखती हुई भावना बोली,” इसके जन्म पर मुझे परिवार से काफी कुछ सुनना पड़ा था क्योंकि घर के बड़ों को पुत्र की चाह थी | पर अब मैं इससे ही अपना वंश चलाऊँगी, इसके नाम के साथ मोहन का नाम सदैव जुड़ा रहेगा |”
भावना के इस रूप को देख कर मुझे बहुत खुशी हो रही थी | किन्तु एक प्रश्न जो मेरे मन में अभी तक बैठा था, पर इतनी हंसती खेलती नवयुवती को मैं फिर से उस दारुण पल की याद नहीं दिलाना चाहती थी, फिर भी पूछ लिया, “ भावना आप को सूचना कैसे मिली ?
धरती पर आँखें गड़ाये दूर कहीं कुछ खोजती सी वो बोली, ” मुझे पता नहीं था कि वो किसी मिशन पर गए हैं | 11 अगस्त को ही तो गुड़िया का जनम दिन मना कर 15 अगस्त को गए थे | कुछ दिन फोन पर भी बात होती रहती थी | पिछले तीन दिनों से नहीं हुई थी | फिर एक दिन इनके दोस्त बार-बार फोन करके पूछ रहे थे कि भाभी आप कैसी हो ? मुझे नहीं पता था कि वो मुझे किसी अशुभ सूचना के लिए तैयार कर रहे थे | फिर शाम को ‘एस एम’ साहब का फोन आया था | कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कह रहे थे | बस सुन्न सी मैं यही समझ सकी कि ----
अब वो चुप थी | पहली बार मैंने उसके शरीर में कंपन देखी थी | उसकी बच्ची चुपचाप अपनी माँ का हाथ लेकर उसे सहला रही थी | कितने असमय ही बड़े हो जाते हैं शहीदों के बच्चे ! कैसे समझ लेते हैं अपना उत्तरदायित्व !! मैंने उसके मौन को नहीं तोड़ा | उसकी आर्द्र आँखों की पीड़ा मेरी आँखों में भी प्रतिबिम्बित हो रही थी |
उसने गले में पतली सी माला पहन रखी थी जो शायद शादी के समय मोहन ने उसे पहनाई होगी | उसे बड़े प्रेम से छू कर बोली , “ यह है न उनका मेरे साथ होने का चिह्न | और फिर मैंने उनकी लैप टॉप, वर्दी , मोटर साइकल, फोन सभी चीजें सम्भाल कर रखी हैं |
मैंने वातावरण को थोड़ा सहज करते हुए पूछा, “ और उनकी शायरी वाली डायरी ? उसे तो तुम रोज़ पढ़ती होगी ?”
अब वो थोड़ा शर्मा गई थी | भावना ने बताया, “ हाँ पढ़ती हूँ ; कई बार, बार-बार | और फिर उनके मित्र भी मुझे उनका लिखा भेजते रहते हैं जो उन्होने पलटन में रहते हुए किसी नोटबुक में लिख छोड़ा होगा |”
फिर स्वयं ही कहने लगी, “ मैंने उनकी समाधि बनवाई है, घर के सामने अपनी ज़मीन पर | पहाड़ों में वीरों की समाधि बनवाने का भी प्रावधान है | वहीं पर एक छोटा सा मंदिर बनेगा | गाँव में उनके नाम की सड़क है, स्कूल है | स्टेडियम को भी उनका ही नाम दिया गया है | बहुत से लोग आते रहते हैं उस समाधि पर | कई संस्थाएँ भी मुझे बुलाती रहती हैं | सब से अधिक मैं जो काम कर रही हूँ वो यह है कि मैंने अन्य वीर नारियों से सम्पर्क बना लिया है | उनसे बातचीत करती रहती हूँ |
“और पलटन के साथ क्या सम्पर्क सूत्र है ?” मेरे यह पूछने पर कहने लगी,
“पलटन ही तो मेरा घर है | इन्होने ही तो मेरा घर बनवाने में मेरी सहायता की | फोन भी आते रहते हैं | आप इतनी दूर से मिलने आई हो, आप भी मेरी अपनी हो | मैं अकेली कहाँ हूँ ?”
बातों का सिलसिला तो कभी समाप्त नहीं हो सकता था किन्तु अभी और भी कार्यक्रम थे| मेरे मन में मोहन के उस महा अभियान के विषय में कई प्रश्न थे | इसीलिए हम दोनों फिर मिलने का वादा कर के विदा हुए | उसके जाने के बाद मैंने एक अजीब सा एकाकीपन महसूस किया | भावना के साथ मेरा एक अटूट संबंध जो जुड़ गया था |
दो जुलाई के दिन पलटन में कोई विशेष कार्यक्रम नहीं था | बस वो विदा लेने का दिन था | मैंने भी भावना और भूमिका से मिलने के लिए उन्हें अपने पास बुलाया था | हम तीनों सुबह-सुबह उस गौरवशाली वीर स्थली पर गए जहाँ यूनिट के अन्य तीन अशोक चक्र विजेता शहीदों के साथ मोहन की कांस्य मूर्ति स्थापित थी | उन पर चढ़ाई गई श्रद्धा सुमन से पिरोई मालाएँ अभी तक वातावरण को सुगन्धित कर रहीं थी | मैंने चुपचाप नतमस्तक हो कर उन वीरों को नमन किया | मेरे पास खड़ी भावना और भूमिका मोहन की मूर्ति को अपलक निहार रहीं थी | शायद उससे कुछ कह रही हों, अपने मन की बात | उस पल मैं सोच रही थी कि एक युवा पत्नी के मन में अपने शूरवीर पति की मूर्ति को देख कर क्या भाव उठ रहे होंगे ? वो कौन से मधुर पलों को याद कर ही होगी |? नन्हीं सी बिटिया क्या पूछ रही होगी अपने पिता से ? भावना तो शायद अपने अलौकिक प्रेम का कोई संदेश दे रही होगी किन्तु भूमिका ??? कौन जाने उसके भोले-भाले मन में कितने प्रश्न उठ रहे होंगे | वो तो आतंकवाद की घृणित परिभाषा भी नहीं जानती होगी | बड़ी होकर ही शायद समझ पाएगी अपने बहादुर पिता के महाबलिदान का संकल्प और लक्ष्य |
मैंने भावना से कहा, “ देखो तो सामने ही खड़ा है , तुम्हें कैसा लग रहा है ?”
भावना ने भी कुछ सहज भाव से उत्तर दिया, “ बिलकुल वैसे ही, जैसे वो ‘मेरे’ थे | वो तो सदा ही मेरे मन-मस्तिष्क में ऐसे ही रहेंगे, जनमों जनमों तक |”
मैं समझ गई थी कि भावना ने आठ जनमों की बात क्यूँ कही थी | ऐसे परमवीर की पत्नी होने का मान उसे मिला था और वो उस गौरव के साथ, अपनी बच्ची का पालन पोषण करते हुए जीना चाहती थी |हमने एक दूसरे के साथ फोन पर सम्पर्क रखने का वचन लिया और विदा ली |
मेरी दृष्टि अभी भी उस वीर स्थली पर टिकी थी यहाँ पर अपने सशक्त हाथों में शस्त्र थामे चार योद्धा भारत माँ की रक्षा के लिए समस्त राष्ट्र का उद्बोधन कर रहे थे | मैं लौट आई थी उस पावन स्थली से इस विश्वास के साथ कि केवल उत्तराखंड के लालकुंयाँ गाँव में ही नहीं, देश के कोने -कोने में शहीदों के ऐसे स्मारक बनें ताकि हमारा देश, आने वाली पीढ़ी शहीदों के महाबलिदान को सदियों तक न भूले |
मैंने भावना से कहा, “ देखो तो सामने ही खड़ा है , तुम्हें कैसा लग रहा है ?”
भावना ने भी कुछ सहज भाव से उत्तर दिया, “ बिलकुल वैसे ही, जैसे वो ‘मेरे’ थे | वो तो सदा ही मेरे मन-मस्तिष्क में ऐसे ही रहेंगे, जनमों जनमों तक |”
मैं समझ गई थी कि भावना ने आठ जनमों की बात क्यूँ कही थी | ऐसे परमवीर की पत्नी होने का मान उसे मिला था और वो उस गौरव के साथ, अपनी बच्ची का पालन पोषण करते हुए जीना चाहती थी |हमने एक दूसरे के साथ फोन पर सम्पर्क रखने का वचन लिया और विदा ली |
मेरी दृष्टि अभी भी उस वीर स्थली पर टिकी थी यहाँ पर अपने सशक्त हाथों में शस्त्र थामे चार योद्धा भारत माँ की रक्षा के लिए समस्त राष्ट्र का उद्बोधन कर रहे थे | मैं लौट आई थी उस पावन स्थली से इस विश्वास के साथ कि केवल उत्तराखंड के लालकुंयाँ गाँव में ही नहीं, देश के कोने -कोने में शहीदों के ऐसे स्मारक बनें ताकि हमारा देश, आने वाली पीढ़ी शहीदों के महाबलिदान को सदियों तक न भूले |
शशि पाधा
चित्र -----
लांस नायक मोहन गोस्वामी की पत्नी भावना और बेटी भूमिका के साथ लेखिका |
लांस नायक मोहन गोस्वामी किसी अभियान से पहले |
मंगलवार, 5 सितंबर 2017
वीर स्थली का सिंह नाद
संस्मरण
1 जुलाई, 2016 को भारतीय सेना की एक महत्वपूर्ण पलटन ‘9 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ अपना 50वाँ स्थापना दिवस बड़े उत्साह और गर्व के
साथ मना रही थी | सेना से सेवा निवृत हुए बहुत से अधिकारी भी सपरिवार इस महाकुम्भ
में भाग लेने के लिए देश- विदेश से आए हुए थे | धर्म स्थल पर सामूहिक पूजा-अर्चना,
सामूहिक बड़ा खाना, मैस में प्रीति भोज, और भी न जाने कितने कार्यक्रमों में यह तीन
दिन कैसे बीते, पता ही नहीं चला | कुछ लोग अपने कैमरे में इन मधुर स्मृतियों को
सदा के लिए कैद कर रहे थे और कुछ विडिओ रिकॉर्डिंग में | और, मैं वहाँ से अपने
मानस पटल पर जो अविस्मरणीय चित्र उकेर कर लाई उसे आपके सामने प्रस्तुत करते हुए
मुझे जिस रोमांच, गर्व, ममता, कृतज्ञता और श्रद्धा की मिलीजुली भावना ने घेर रखा
है, उसे शब्दों में बाँध पाना मेरे लिए असाध्य कार्य है |
मेरा इस पलटन के साथ
भावनात्मक सम्बन्ध है | १९६५ के भारत-पाक युद्ध के बाद ‘मेघदूत फ़ोर्स’ के नाम से
इस पलटन की स्थापना हुई थी | मैंने भी लगभग 5 दशक पहले वर्ष १९६८ में एक नई नवेली
दुल्हन के रूप में सूरमाओं के इस परिवार में अपने सैनिक जीवन का पहला कदम रखा था |
उन दिनों यह पलटन अपनी शैश्वावस्था में जम्मू नगर के डन्साल गाँव के पास एक पहाड़ी
क्षेत्र में स्थित थी | आज यह पलटन जम्मू –कश्मीर की उधमपुर छावनी में स्थित है |

अपने जीवन के 50
वर्षों में यह पलटन अनगिन वीर चक्र, शौर्य चक्र, कीर्तिचक्र, सेना मेडल एवं कई
अन्य वीरता के पदकों से विभूषित हुई है | इस
पलटन को बाह्य एवं आंतरिक युद्ध में अप्रतिम वीरता का प्रदर्शन करने के कारण पाँच
बार भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष ने यूनिट साइटेशन से सम्मानित किया | इसके साथ ही
कई बार अन्य मिलिट्री कमांडरों द्वारा समय समय पर इस यूनिट को वीरता के पुरस्कारों
से समानित किया गया है | हम सब के लिए यह बहुत गर्व की बात है कि इस पलटन को ‘bravest Of The Brave ‘ के
गौरवशाली सम्मान से भी विभूषित किया गया
है |
स्थापना दिवस के
महोत्सवों में मेरे लिए सब से महत्वपूर्ण एवं रोमंचाकरी पल थे जब इन चार महा
योद्धाओं की मूर्तियों पर माल्यारोपण के लिए सभी अधिकारी, जेसीओ, सैनिक एवं उनके
परिवार के सदस्य इस टीले के सामने एकत्रित हुए थे | मेरे साथ ही खड़े थे प्रथम अशोक चक्र विजेता मेजर
अरुण जसरोटिया के बड़े भाई, उनके साथ ही अपने वीर पुत्र की मूर्ति को अपलक निहार
रहे थे दूसरे अशोक चक्र विजेता मेजर सुधीर कुमार के वृद्ध पिता | तीसरे अशोक चक्र
विजेता लांस नायक छत्री के परिवार से तो कोई नहीं आ पाया था किन्तु पूरी पलटन उनके
लिए नत मस्तक हो खड़ी थी | मेरा हाथ थामें खड़ी थी चौथे अशोक चक्र विजेता लांस नायक
मोहन गोस्वामी की युवा पत्नी ‘भावना’ अपनी 8 वर्ष की बेटी ‘भूमिका’ के साथ | एक–एक
करके सभी अधिकारी इन मूर्तियों पर श्रद्धा सुमन चढ़ा रहे थे, और हम सब खड़े उन्हें अपनी मौन श्रद्धांजलि
अर्पित कर रहे थे |
माँ वैष्णो देवी की
पहाड़ी से आती हुई सुबह की हल्की-हल्की धूप अमरत्व के चिह्न इन मूर्तियों को धीमे-धीमे
सहला रही थी और उनकी शीतल-शांत परछाई छू रही थी अपने पिता को, भाई को, पत्नी को,
बच्ची को और श्रद्धा में नत खड़े असंख्य सैनिकों को | अचानक मुझे लगा कि भावना के
हाथ की पकड़ मेरे हाथ पर और मजबूत होती जा रही थी | कुछ महीने पहले ही वैधव्य के
दारुण संसार में अपना अस्तित्व खोजती, दुबली पतली पहाड़ी लड़की भावना शायद एक बड़ी
बहन के हाथों में कोई ढाढस, कोई सांत्वना कोई सहारा ढूँढ रही थी | उन महा योद्धाओं
की मूर्तियों की परछाई की दिव्य उजास में मुझे आभास हुआ कि कहीं भी तो नहीं गए हैं
‘वे’ | यहीं तो हैं, धूप की गुनगुनाहट में, हवा की सुगंध में, आकाश के विस्तार में
और धरती के धैर्य में | उस समय वातावरण में अपनों के खोने के दुःख की नमी भी थी और
शौर्य की धूप की गरिमा भी |
समारोह के समापन के
बाद मैंने उस वीर स्थली की तस्वीर ली थी | दो दिन बाद हम सब इस वीरोत्सव की मधुर स्मृतियाँ
सहेजे अपने-अपने घर लौट आए | कई दिनों के बाद जब मैंने पुन: उस तस्वीर को देखा तो
मुझे लगा कि कुछ-कुछ वैसा ही मैंने कभी-कहीं पहले भी देखा है |सुधियों की पिटारी
खोली तो वर्षों पहले ली गई एक तस्वीर मेरी अँखियों के सामने खुल गई | मैं लौट गई
अपने अतीत में |
वर्ष १९६७ में मैं
जम्मू कश्मीर विश्विद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए वाद –विवाद प्रतियोगितामें
भाग लेने के लिए मैं ‘बनारस हिन्दू विश्विद्यालय’ गई थी | वहीं से कुछ मील दूर
सारनाथ में देखा था अशोक स्तम्भ, जिसके शीर्ष पर सुशोभित थे चार सिंह | उसके बाद
इन चार सिंहों का विराट रूप देखा था राजकीय मोहर पर,राजकीय चिह्न के रूप में |भारत
की एकता, अखंडता और अक्षुण्णता का सिंह नाद वर्षों से यही चार पराक्रमी- बलशाली सिंह
चहुँ दिशाओं में,सात समुद्र पार,ऊँचे से ऊँचे पर्वत शिखरों की सीमाओं को लाँघ
युगों युगों से करते आए हैं |

आज 9 पैरा स्पेशल फोर्सेस की वीर स्थली पर खड़े
अशोक चक्र विजेता चार महावीरों की तस्वीर सारनाथ के स्तम्भ पर अंकित सिंहों की
तस्वीर का इतिहास पुन: दोहरा रही है | अगर उस समय अहिंसा के परम धर्म के प्रसार के
लिए सिंह नाद हुआ था तो आज इन चारों वीरों की काँस्य मूर्तियाँ भी अपने रण घोष से
पूरे भारत को उद्बोधन का संदेश दे रही हैं | मुझे पूर्ण विश्वास है कि भारत वासी
इन पराक्रमी वीरों के स्मृति स्थल पर अपना
माथा टेक यह प्रण लेंगे कि जिस आतंकवाद को समूल मिटाने में इन वीरों ने अपने प्राण उत्सर्ग किए हैं, आज का भारत उस शत्रु से
लोहा लेते हुए उनके सिंह नाद को भूलेगा नहीं |एक बार फिर से कृतज्ञ राष्ट्र विश्व शान्ति की ज्योत प्रज्ज्वलित करके विश्व के कोने-कोने
को दैदीप्यमान करेगा |
जय हिन्द –जय हिन्द
की सेना |
शशि पाधा
‘(स्वतंत्रता दिवस के
उपलक्ष्य में’)
मंगलवार, 25 जुलाई 2017
सोमवार, 3 जुलाई 2017
कल फिर लौट के आऊँगा ----
विदा की वेला में सूरज ने
धरती की फिर माँग सजाई,
तारक वेणी बाँध अलक में
नीली चुनरी अंग ओढ़ाई,
नयनों में भर सांझ का अंजन
हर शृंगार की सेज बिछाई,
धरती की फिर माँग सजाई,
तारक वेणी बाँध अलक में
नीली चुनरी अंग ओढ़ाई,
नयनों में भर सांझ का अंजन
हर शृंगार की सेज बिछाई,
और कहा सो जाओ प्रिय
मैं कल फिर लौट के आऊँगा।
मैं कल फिर लौट के आऊँगा।
भोर किरण कल प्रात तुझे
चूम कपोल जगाएगी
लाल ग़ुलाबी पुष्पित माला
ले द्वारे पर आएगी
पुनर्मिलन के सुख सपनों की
आस में तू शरमाएगी
उदयाचल पर खड़ा मैं देखूँ
तू कितनी सज जाएगी
चूम कपोल जगाएगी
लाल ग़ुलाबी पुष्पित माला
ले द्वारे पर आएगी
पुनर्मिलन के सुख सपनों की
आस में तू शरमाएगी
उदयाचल पर खड़ा मैं देखूँ
तू कितनी सज जाएगी
पलक उठा तू मुझे देखना
किरणों में मुसकाऊँगा
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।
किरणों में मुसकाऊँगा
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।
दोपहरी की धूप छाँव में
खेलेंगे हम आँख मिचौली
डाल डाल से पात पात से
छिप कर देखूँ सूरत भोली
प्रणय पुष्प की पाँखों से तब
भर दूँगा मैं तेरी झोली
खेलेंगे हम आँख मिचौली
डाल डाल से पात पात से
छिप कर देखूँ सूरत भोली
प्रणय पुष्प की पाँखों से तब
भर दूँगा मैं तेरी झोली
दूर क्षितिज तक चलना संग
नयनों में भर ले जाऊँगा
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।
नयनों में भर ले जाऊँगा
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।
शशि पाधा
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