मंगलवार, 4 मार्च 2014

एक गुनगुना अहसास -----

     धूप गुनगुनी

आज भोर से आँगन में
धूप गुनगुनी छाई है,
लगता जैसे दूर देस से
 माँ मुझे मिलने आई है ।

भोर किरण ने चूम के पलकें
सुबह सुबह जगाया था
धीमे धीमे खोल के खिड़की
रंग स्वर्णिम बिखरया था
शीतल मंद पवन छुए जो
आँचल क्या वह् तेरा है?
नीले अम्बर में बदली सा
 तेरे स्नेह का घेरा है ?

अंग अंग को सिहरन देने
आई जो पुरवाई है
लगता जैसे दूर कहीं से 
माँ ही मिलने आई है ।

भरी दोपहरी में अम्बर से
बिन बदली ही मेह झरा
खाली सी थी मन की गगरी
किसने आकर नेह भरा?
आँगन में तुलसी का बिरवा
धीमे धीमे डोल रहा
सौगातों से भरी पिटारी
धीरे से कोई खोल रहा |

अम्बुआ की डाली के नीचे
बैठी जो परछाई है
लगता जैसे दूर देश से
माँ ही मिलने आई है ।

देख न पाती माँ मैं तुमको
फिर भी तुम तो यहीं कहीं
आँगन में या बगिया में हो
कलियों में तुम छिपी कहीं|

एक बार भी मिल जाती तो
जी भर तुमसे मिल लूँ माँ
नयनों में भर सूरत तेरी
पलकों को मैं मूँद लूँ माँ

जानूँ तू तो यही कहेगी
माँ भी कभी परायी है ?
फिर क्यों लगता बरसों बाद
तू मुझसे मिलने आई है?

फिर क्यों लगता बरसों बाद -------


शशि पाधा 

15 टिप्‍पणियां:


  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन लक्ष्मी के साहस और जज़्बे को नमन - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. सुंदर। पढ़ कर मन कुछ भीग गया है।

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    1. परमेश्वरी जी,
      बहुत बहुत धन्यवाद | यह इश्ते ही साझे होते हैं | सब को याद आ जाती है |

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    2. धन्यवाद परमेश्वरी जी | कुछ रिश्ते ही साझे होते हैं , बस याद आ ही जाती है |

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    1. कौशल लाल जी , मेरे अहसास को सराहने के लिए धन्यवाद |

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    1. रश्मि जी, रचना की सरहना के लिए धन्यवाद |

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  5. उत्तर
    1. मधु जी , पहचान रही हूँ आपको | धन्यवाद बहुत सा |

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  6. यह जननी पर जननी की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है। दर्द भी है। टीस भी है। नाभि से संसार जुड़ा है। परिन्दा दूर दूर उड़ कर भी नीड़ की और लौटता है। मन भटकता है तो लौट कर कुछ समय फिर उसी सुरक्षित गोद में पहुँच जाता है जिसके आँचल की छाँव के साये में जिन्दगी के प्रथम असहाय पल बीते थे।

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    1. चन्द्र प्रकाश जी, माँ शब्द में ही इतनी शीतलता और स्निघ्दता है कि इसकी और कोई उपमा नहीं | आप मेरे ब्लॉग पर आए और इस रचना के मर्म को पहचाना | हार्दिक धन्यवाद |

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