उर्मिला
हाय यह जग कितना अनजाना
हिय नारी का न पहचाना,
पढ़ न पाए मन की भाषा
मौन को स्वीकृति ही माना।
विदा की वेला आन खड़ी थी
कैसी निर्मम करुण घड़ी थी,
न रोका न अनुनय कोई
झुके नयन दो बूंद झरी थी ।
अन्तर्मन की विरह वेदना
पलकों से बस ढाँप रही थी,
देहरी पर निश्चेष्ट खड़ी सी
देह वल्लरी काँप रही थी ।
हुए नयन से ओझल प्रियतम
पिघली अँखियाँ,सिहरा तन-मन
मौन थी उस पल की भाषा
अंग - अंग में मौन क्रन्दन
।
रोक लिया था रुदन कंठ में
अधरों पे आ रुकी थी सिसकी,
दूर
गये प्रियतम के पथ पर
बार बार
आ दृष्टि ठिठकी ।
गुमसुम कटते विरह के पल
नयनों में घिर आते घन दल,
बोझिल भीगी पलकें मूँदे
ढूँढ रही प्रिय मूरत चंचल ।
सावन के बादल से पूछे
क्या तूने मेरा प्रियतम देखा,
सूर्य किरण अंजुलि में भर-भर
चित्रित करती प्रियमुख रेखा ।
चौबारे कोई
काग जो आये
देख उसे मन को समझाती,
लौट आयेंगे प्रियतम मेरे
जैसे मधुऋतु लौट के आती ।
दर्पण में प्रिय मुख ही देखे
लाल सिंदूरी मांग भरे जब,
माथे की बिंदिया से पूछे
मोरे प्रियतम आवेंगे कब ।
सूर्य किरण नभ के आंगन में
जब-जब खेले सतरंग होली,
धीर बाँध तब बाँध सके न
नयनों से कोई नदिया रो ली ।
गहरे घाव हुए अंगुलि पर
पल-पल घड़ियाँ गिनते गिनते्,
मौन वेदना ताप मिटाने
अम्बर में आ मेघा
घिरते।
पंखुड़ियों से लिख-लिख अक्षर
आंगन में प्रिय नाम सजाती,
बार-बार पाँखों को छूती
बीते कल को पास बुलाती ।
तरू से टूटी बेला जैसे
बिन सम्बल मुरझाई सी,
विरह अग्न से तपती काया
झुलसी और कुम्हलाई सी ।
बीते कल की सुरभित सुधियाँ
आँचल में वो बाँध के रखती,
विस्मृत न हो कोई प्रिय क्षण
मन ही मन में बातें करती ।
पुनर्मिलन की साध के दीपक
तुलसी की देहरी पर जलते,
अभिनन्दन की मधुवेला की
बाट जोहते नयन न थकते ।
प्रिय मंगल के गीतों के सुर
श्वासों में रहते सजते ,
लाल हरे गुलाबी कंगन
भावी सुख की आस में बजते ।
दिवस, मास
और बरस बिताए
बार-बार अंगुलि पर गिन गिन,
काटे न कटते
ते फिर भी
विरह की अवधि के दिन ।
कुल सेवा ही धर्म था उसका
पूजा अर्चन कर्म था उसका,
धीर भाव अँखियों का अंजन
प्रिय सुधियाँ अवलम्बन उसका ।
जन्म-जन्म मैं पाऊँ तुमको
हाथ जोड़ प्रिय वन्दन करती,
पर न झेलूँ
विरह वेदना
परम ईश से विनती करती ।
उस देवी की करूण वेदना
बदली बन नित झरी -झरी,
अँखियों की अविरल धारा से
नदियां जग की भरी -भरी ।
शशि
पाधा