सोमवार, 26 मई 2014

अनुभूति- अभिव्यक्ति हिन्दी वेब पत्रिका में प्रकाशित " पीपल विशेषांक " में मेरे रचे दोहे ------


पीपल की वो डार

यादों में है आज तक, पीपल की वो डार
सावन में झूले पड़े, झूली कितनी बार।

जो भी बैठे छाँव में, पीपल दे आशीष
ममता से ये डालियाँ, सहलाएँ हर शीश।

अनगिन कथा कहानियाँ, अनगिन सावन गीत
अनगिन दुखड़े विरह के, जाने पीपल मीत।

मौसम तो आए गए, पीपल खड़ा विशाल
जन मानस आ पूजता, झुका मान में भाल।

डार झुलाए झूलना, पंछी का सुख नीड़
थके तपे हर जीव की, पीपल जाने पीर।

पूजो पीपल देव सम,कहते वेद पुराण
चिरायु मोद निरोग का,पीपल दे वरदान।
पीपल तरुवर ढूँढते, नैना थके विदेस
कौन मेरे भैया को, देवे यह संदेस।

-शशि पाधा
२६ मई २०
१४

भारतीय सेना के शूरवीर सैनिकों को समर्पित माहिया -------






कैसी आज़ादी है - माहिया
                      शशि पाधा
     *
कैसी आज़ादी है
सरहद से पूछो
कितनी बर्बादी है |
    *
यह नेता क्या जाने
वीर सिपाही का
साहस ना पहचाने |
     *
अर्जुन सा वार करें 
दुशमन टोली का 
सैनिक संहार करें |
     *
दुशमन से जूझ जरा
दृढ़ता सैनिक की
पर्वत से पूछ जरा |
     *
आज़ादी पाई है
कितने वीरों ने
निज जान गंवाई है |
     *
जयघोष सुनाना है
सारा जग सुन ले
अब देश बचाना है |
    *
जब पहने रोता है
बेटा सैनिक का
वर्दी से छोटा है |
     *
सीमा पर ध्यान धरो
जन गण भारत के
सैनिक का मान करो |
      *


माँ धीर ज़रा धरना 
गर हम लौटें ना
नित याद हमें करना |
      *
इक रीत निभानी है
गाथा वीरों की
हर रोज़ सुनानी है |

शशि पाधा


रविवार, 25 मई 2014

लक्ष्मण पत्नी उर्मिला की विरह व्यथा --------

   उर्मिला

हाय यह जग कितना अनजाना
हिय नारी का पहचाना,
पढ़ पाए मन की भाषा
मौन को स्वीकृति ही माना।

विदा की वेला आन खड़ी थी
कैसी निर्मम करुण घड़ी थी,
रोका अनुनय कोई
झुके नयन दो बूंद झरी थी

अन्तर्मन की विरह वेदना
पलकों से बस ढाँप रही थी,
देहरी पर निश्चेष्ट खड़ी सी
देह वल्लरी काँप रही थी 

हुए नयन से ओझल प्रियतम
पिघली अँखियाँ,सिहरा तन-मन
मौन थी उस पल की भाषा
अंगअंग में मौन क्रन्दन  

रोक लिया था रुदन कंठ में
अधरों पे रुकी थी सिसकी,
 दूर गये  प्रियतम के पथ पर
बार बार  दृष्टि ठिठकी 

गुमसु कटते विरह के पल
नयनों में घिर आते घन दल,
बोझिल भीगी पलकें मूँदे
ढूँढ रही प्रिय मूरत चंचल

सावन के बादल से पूछे
क्या तूने मेरा प्रियतम देखा,
सूर्य किरण अंजुलि में भर-भर
चित्रित करती प्रियमुख रेखा

चौबारे कोई  काग जो आये
देख उसे मन को समझाती,
लौट आयेंगे प्रियतम मेरे
जैसे मधुऋतु लौट के आती

दर्पण में प्रिय मुख ही देखे
लाल सिंदूरी मांग भरे जब,
माथे की बिंदिया से पूछे
मोरे प्रियतम आवेंगे कब

सूर्य किरण नभ के आंगन में
जब-जब खेले सतरंग होली,
धीर बाँध तब बाँध सके
नयनों से कोई नदिया रो ली

गहरे घाव हुए अंगुलि पर
पल-पल घड़ियाँ गिनते गिनते्,
मौन वेदना ताप मिटाने
अम्बर में मेघा घिरते।

पंखुड़ियों से लिख-लिख अक्षर
आंगन में प्रिय नाम सजाती,
बार-बार पाँखों को छूती
बीते कल को पास बुलाती

तरू से टूटी बेला जैसे
बिन सम्बल मुरझाई सी,
विरह अग्न से तपती काया
झुलसी और कुम्हलाई सी

बीते कल की सुरभित सुधियाँ
आँचल में वो बाँध के रखती,
विस्मृत हो कोई प्रिय क्षण
मन ही मन में बातें करती 

पुनर्मिलन की साध के दीपक
तुलसी की देहरी पर जलते,
अभिनन्दन की मधुवेला की
बाट जोहते नयन थकते

प्रिय मंगल के गीतों के सुर
श्वासों में रहते सजते ,
लाल हरे गुलाबी कंगन
भावी सुख की आस में बजते

दिवस, मास और बरस बिताए
बार-बार अंगुलि पर गिन गिन,
काटे कटते ते फिर भी
विरह की अवधि के दिन

कुल सेवा ही धर्म था उसका
पूजा अर्चन कर्म था उसका,
धीर भाव अँखियों का अंजन
प्रिय सुधियाँ अवलम्बन उसका

जन्म-जन्म मैं पाऊँ तुमको
हाथ जोड़ प्रिय वन्दन करती,
पर झेलूँ विरह वेदना
परम ईश से विनती करती

उस देवी की करूण वेदना
बदली बन नित झरी -झरी,
अँखियों की अविरल धारा से
 नदियां जग की भरी -भरी

      शशि पाधा