रविवार, 10 जनवरी 2016

आज विश्व हिन्दी दिवस पर अपनी एक प्रिय रचना ----

हिन्दी विश्वजीत हो

छन्द हो , गीत हो,
स्वर हो, संगीत हो
जो रचूँ , जो कहूँ
हिन्दी मन का मीत हो

भावना में तू बहे
कल्पना में तू सजे
मन के  तार तार में
प्राण वीणा सी बजे

जहाँ रहूँ , जहाँ बसूँ
हिन्दी से चिर प्रीत हो  |

स्रोत तू ज्ञान का
आधार उत्थान का
देस - परदेस में
चिह्न तू पहचान का

मन में इक साध यह  
हिन्दी विश्वजीत हो  |

परम्परा की वाहिनी
अविरल  मंदाकिनी
सुनिधि सुसहित्य की
संस्कार की प्रवाहिनी

भविष्य के विधान में
हिन्दी ही  रीत-नीत हो |
नक्षत्रों के पार भी
ध्वज तेरा फहराएँगे
धरा से आसमान तक
ज्योत हम जलाएँगे

हर दिशा, हर छोर में
सूर्य सी  उदीप्त हो |

हिन्दी विश्वजीत जीत हो !!


बुधवार, 6 जनवरी 2016

कभी कभी लेखनी भी रूठ जाती है ----

मौन क्यूँ हैं शब्द सारे |
मौन क्यूँ हैं शब्द सारे
पतझरी सी कल्पना है
झर गए हैं अर्थ सारे |

अब नहीं पुकारती
पर्वतों की श्रेणियाँ
मन को नहीं बाँधती
मालती की वेणियाँ
 मूक-जड़ लेखनी
 भाव हैं नि:शब्द सारे |
          
भूत –अनुभूत किसी  
कन्दरा में सो गया
हर्ष-उल्लास का  
वेग कहीं खो गया
 सूनी मन की वीथियाँ
  पट–द्वार बंद सारे |

अनकही-अनछुई
बात यूँ ही रह गई
वेदना - संवेदना
क्षार सी बह गई
नाद–अनुनाद सब
हो गए हैं मंद सारे |

  गीत मल्हार के
   बादलों से माँग लूँ
   सुरमयी साँझ को
    आँख में आँज लूँ
      कोकिला से सीख लूँ
      रागिनी के छंद सारे |

किस ओट जा खड़ी
   रेशमी बहार अब
    कब लौट आएगी
     मरमरी फुहार अब
      छिपी कहाँ है चेतना  
       पूछते दिगंत सारे|

शशि पाधा 

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर जाते वर्ष से संवाद

  सरक गया इक और बरस
बरती सावधानियाँ
 भूली सब नादानियाँ
 रूठे और मनाते खुद को  
बीत गया एक और बरस |
कभी कहीं पंछी सा चहका
कभी कहीं चुपचाप चला
जाने कितनी बाजी जीती
बहुतेरा तो गया छला
खोने-पाने की गिनती में  
सरक गया इक और बरस |
बड़ी सूझ से, बड़ी बूझ से
नया पुराना छाँट गया  
बरसों का जो धरा–सहेजा
जाते- जाते बाँट गया
मोह माया का दरिया गहरा
लाँघ गया इक और बरस |

खुद की हिम्मत, खुद का धीर
कानों में कुछ बोल गया
काँधे हाथ धरे, कुछ ठिठका 
देहरी पर कुछ डोल गया
नेग-शगुन का सिक्का मुट्ठी  
डाल गया एक और बरस |

शशि पाधा, 28 दिसम्बर 2015    






नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित ----

गुर मन्त्र

आशीषों से भरी पिटारी
उम्मीदों की गठरी भारी
जाते-जाते मेरे द्वारे
छोड़ गया था बीता साल |

इक पुड़िया में बंधे संकल्प
दूजे में निष्ठा विश्वास
तीजी में बाँधा था धीर
चौथी पुड़िया में सुख-हास
       हर गिरह में रक्ष रोली
       बाँध गया था बीता साल |

कुछ थी कल के मीठी यादें
कड़वी रखना भूल गया था
जीवन पथ में फूल बिछ कर
बीन के सारे शूल गया था

 अंगना में खुशियों के बीज
  रोप गया था बीता साल |

ज्ञान नहीं, उपदेश नहीं था
पाती में ताकीद लिखी थी
नींव पुरानी, भवन नया हो
भावी सुख की सीख लिखी थी

     गुरमन्त्र समझौतों का
    सिखा गया था बीता कल |

शशि पाधा , २२ दिसंबर २०१५