बुधवार, 6 जनवरी 2016

नव वर्ष की पूर्व संध्या पर जाते वर्ष से संवाद

  सरक गया इक और बरस
बरती सावधानियाँ
 भूली सब नादानियाँ
 रूठे और मनाते खुद को  
बीत गया एक और बरस |
कभी कहीं पंछी सा चहका
कभी कहीं चुपचाप चला
जाने कितनी बाजी जीती
बहुतेरा तो गया छला
खोने-पाने की गिनती में  
सरक गया इक और बरस |
बड़ी सूझ से, बड़ी बूझ से
नया पुराना छाँट गया  
बरसों का जो धरा–सहेजा
जाते- जाते बाँट गया
मोह माया का दरिया गहरा
लाँघ गया इक और बरस |

खुद की हिम्मत, खुद का धीर
कानों में कुछ बोल गया
काँधे हाथ धरे, कुछ ठिठका 
देहरी पर कुछ डोल गया
नेग-शगुन का सिक्का मुट्ठी  
डाल गया एक और बरस |

शशि पाधा, 28 दिसम्बर 2015    






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