सरक गया इक और बरस
बरती सावधानियाँ
भूली सब नादानियाँ
रूठे और मनाते खुद को
बीत गया एक और बरस |
कभी कहीं पंछी सा चहका
कभी कहीं चुपचाप चला
जाने कितनी बाजी जीती
बहुतेरा तो गया छला
खोने-पाने की गिनती
में
सरक गया इक और बरस |
बड़ी सूझ से, बड़ी बूझ से
नया पुराना छाँट गया
बरसों का जो धरा–सहेजा
जाते- जाते बाँट गया
मोह माया का दरिया गहरा
लाँघ गया इक और बरस |
खुद की हिम्मत, खुद का धीर
कानों में कुछ बोल गया
काँधे हाथ धरे, कुछ
ठिठका
देहरी पर कुछ डोल गया
नेग-शगुन का सिक्का
मुट्ठी
डाल गया एक और बरस |
शशि पाधा, 28 दिसम्बर 2015
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