बुधवार, 6 जनवरी 2016

कभी कभी लेखनी भी रूठ जाती है ----

मौन क्यूँ हैं शब्द सारे |
मौन क्यूँ हैं शब्द सारे
पतझरी सी कल्पना है
झर गए हैं अर्थ सारे |

अब नहीं पुकारती
पर्वतों की श्रेणियाँ
मन को नहीं बाँधती
मालती की वेणियाँ
 मूक-जड़ लेखनी
 भाव हैं नि:शब्द सारे |
          
भूत –अनुभूत किसी  
कन्दरा में सो गया
हर्ष-उल्लास का  
वेग कहीं खो गया
 सूनी मन की वीथियाँ
  पट–द्वार बंद सारे |

अनकही-अनछुई
बात यूँ ही रह गई
वेदना - संवेदना
क्षार सी बह गई
नाद–अनुनाद सब
हो गए हैं मंद सारे |

  गीत मल्हार के
   बादलों से माँग लूँ
   सुरमयी साँझ को
    आँख में आँज लूँ
      कोकिला से सीख लूँ
      रागिनी के छंद सारे |

किस ओट जा खड़ी
   रेशमी बहार अब
    कब लौट आएगी
     मरमरी फुहार अब
      छिपी कहाँ है चेतना  
       पूछते दिगंत सारे|

शशि पाधा 

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