मौन क्यूँ हैं शब्द सारे |
मौन क्यूँ हैं शब्द सारे
पतझरी सी कल्पना है
झर गए हैं अर्थ सारे |
अब नहीं पुकारती
पर्वतों की श्रेणियाँ
मन को नहीं बाँधती
मालती की वेणियाँ
मूक-जड़ लेखनी
भाव हैं नि:शब्द सारे |
भूत –अनुभूत किसी
कन्दरा में सो गया
हर्ष-उल्लास का
वेग कहीं खो गया
सूनी मन की वीथियाँ
पट–द्वार बंद सारे |
अनकही-अनछुई
बात यूँ ही रह गई
वेदना - संवेदना
क्षार सी बह गई
नाद–अनुनाद सब
हो गए हैं मंद सारे |
गीत मल्हार के
बादलों से माँग लूँ
सुरमयी साँझ को
आँख में आँज लूँ
कोकिला से सीख लूँ
रागिनी के छंद सारे |
किस ओट जा खड़ी
रेशमी बहार अब
कब लौट आएगी
मरमरी फुहार अब
छिपी कहाँ है चेतना
पूछते दिगंत सारे|
शशि पाधा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें