दीवानों की बस्ती में
हँसी ठिठोली, चुहल
चुटकुले
दीवानों की बस्ती
में
दिन तो बीते उत्सव
मेले
रातें मौज परस्ती
में |
उलझन की ना खड़ी
दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों
में
मोल भाव ना
मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों
में
खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
भर लो झोली सस्ती में |
चैन की बंसी, गीत
गुनगुने
माथे पर ना शिकन
कहीं
अभिमानों के महल
कहीं न
साहु- सेठ का विघ्न
नहीं
सुख़-दुःख दोनों खेला करते
धूप –छाँव की मस्ती में |
मन तो रहता खुली
तिजोरी
ताला चाबी रोग नहीं
रूखी सूखी बने रसोई
हाँडी छप्पन भोग
नहीं
चार धाम खुद आन बसे हैं
सब की घर गृहस्ती में |
ताम झाम सब धरे ताक
पे
किया वही जो लगा सही
झूठ कपट का कवच न
पहना
खरी –खरी ही सदा कही
न नेता न चपल चाकरी
समदर्शी हर हस्ती में |
शशि पाधा
मौसम का डाकिया
इक ख़त बंद दे गया
मौसम का डाकिया,
भीनी सुगंध दे गया
मौसम का डाकिया |
नाम ना, पता नहीं
ना कोई मोहर लगी,
द्वार पर खड़ी –खड़ी
रह गई ठगी –ठगी
कांपते हाथ में
इक उमंग दे गया
मौसम का डाकिया |
किस दिशा, किस छोर
में
जा छिपूं , ले ऊडूँ
आँचल की ओट में
बार –बार मैं पढूँ |
मौसमी गीत का
राग- छंद दे गया
मौसम का डाकिया |
मीत कोई देस से
क्या मुझे बुला रहा
बिन लिखे अक्षरों,
से
मुझे रुला रहा
अधर पे मुस्कान की
इक सौगंध दे गया
मौसम का डाकिया |
अधखुली परत में
छिपी थी फूल पंखुड़ी
देश काल लाँघ कर
याद कोई आ जुड़ी
मौन पतझार में
रुत वसंत दे गया
मौसम का डाकिया !!!!!
शशि पाधा
मैंने भी बनवाया घर
धरती अम्बर मोल ना
माँगें
सागर ने पूछा ना दाम
नदिया पर्वत लिखें
ना कागज
हवा ना पूछे क्या है
नाम
अपने मन की इस नगरी में
मैंने भी बनवाया घर |
इस गाँव में न
पटवारी
ना साहु, ना सेठ कोई
ना कोई माँगे
हिस्सेदारी
धन का दाँव पलेच
नहीं
तिनके माटी घोल यहाँ की
मैंने भी बनवाया घर |
चहुँ दिशा दीवारें
होंगी
नील गगन की छत खुली
सागर का तट नीँव
सरीखा
धूप झरेगी धुली-धुली
शंख सीपियाँ जोड़ के मैंने
लहरों पे बनवाया घर |
कोई ना पूछे अता –पता क्या
किरणें सीधी राह चालें
चंदा सूरज लालटेन से
चौक–चौराहे आन जलें
तारे-जुगनू टांग डगर पे
मैंने भी बनवाया घर |
शशि पाधा
और
कितनी दूर जाना
उपलब्धियों
की दौड़ में कब
खो
गया सुख का ठिकाना
और
कितनी दूर जाना ?
क्या
किसी पड़ाव पर
बैठ
सेंकी धूप तूने
हाथ
के दोने में रक्खी
बारिशों
की बूँद तूने
भूल गया शोर में तू
पंछियों
का चहचहाना
और
कितनी दूर जाना ?
फुनगियों पे नींव रखी
आसमां
पे घर बसाया
एक
दिन होगा अकेला
क्या
कभी यह होश आया
भोगने का वक्त कम है
व्यर्थ ही भरता खजाना
और
कितनी दूर जाना ?
अंतहीन दौड़ में
मन कभी थक जाएगा
किस
लिए था दौड़ता
यह
भी भूल जाएगा
पंख कट जायेंगे, जब
वक्त
साधेगा निशाना |
और
कितनी दूर जाना ?
उड़
रहा जो ठीक पीछे
धूल
का गुब्बार देख
बाट
जोहती, थक गई जो
आँख
की बौछार देख
लौट आ , आबाद कर
हाथ
जोड़े घर वीराना
और
कितनी दूर जाना ?
और कितनी दूर जाना ?????
शशि
पाधा
रचनाएँ अपनी अमिट छाप छोड़ गई हैं, विशेषकर मौसम का डाकिया …
जवाब देंहटाएंयूँ … उपलब्धियों के दौर में हम विलुप्तप्रायः हो गए हैं
रश्मि जी, रचनाएं तो सभी की साझी होती हैं तभी स्नेही पाठक उन्हें पढ़कर आनन्द लेते हैं | आपको अच्छी लगीं , हृदय से धन्यवाद |
हटाएंआपकी सभी कविताएँ हृदयस्पर्शी हैं , लेकिन मौसम का डाकिया तो बहुत अलग है , विशेष है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रामेश्वर जी , कविता का संचार, बहाव इन्हीं उत्साहवर्धक शब्दों से होता है |
हटाएंशशि जी ,"दीवानों की बस्ती" में नामक कविता वास्तव में खुशी से जीवन जीने की कला की सीख देती कविता है |"मौसम का डाकिया" तो वाकई अलग हट कर लिखी हुई रचना है |सभी कवितायें बहुत सुंदर हैं |हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएंसविता, आप इस ब्लॉग पर आईं और मेरी रचनाओं को सराहा , आपका धन्यवाद |
हटाएंAapkee kavitaaon mein SARITA kaa man lubhaataa prawaah hai . Bhaavaanukool Bhasha ke kyaa Kahne hain !
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ बहुत सुन्दर लगी
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