मौन का सागर
मौन का सागर अपार
मैं इस पार - तू उस पार।
कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
संवादो की गठरी बाँधे
खड़े रहे मंझधार
न इस पार , न उस पार |
मान की डाली झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठायों के गहन भंवर में
छूट गई पतवार
कैसे होगा पार ?
उलझ गई रिश्तों की डोर
ढूँढ़ न पाए बिखरे छोर
टूटा मन का ताना बाना
शब्द गए सब हार
मैं इस पार , तू उस पार |
शशि पाधा
अनुनय
कुछ कहो, कुछ तो सुनाओ
गीत कोई गुनगुनाओ ।
बिन कहे और बिन सुने ही
रात आधी हो गई
मौन के आकाश में हर-
आस मेरी खो गई
छेड़ दो न सुर सुरीले
तार मन के बजाओ |
भोर होने को अभी दो -
चार पल बाकी पड़े हैं
यह घड़ी संवारने को
दीप ले जुगनूँ खड़े हैं
रोक लो न यह प्रहर
चाँद को तुम ही मनाओ ।
साधना में लीन सी
मौन ये चारों दिशाएँ
रात की कालिमा में
मौन जलती तारिकायें
थाम लो न हाथ मेरा
रात को कुछ तो सजाओ ।
गीत कोई गुनगुनाओ !!!
शशि पाधा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें