शनिवार, 9 अगस्त 2014

दो रचनाएँ--दो भाव

     मौन का सागर 
   
मौन का सागर अपार
मैं इस पार - तू उस पार।

कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
संवादो की गठरी  बाँधे
  खड़े रहे मंझधार
न इस पार , न उस पार |

मान की डाली झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठायों के गहन भंवर में
छूट गई पतवार
कैसे होगा पार ?

उलझ गई रिश्तों की डोर
ढूँढ़ न पाए बिखरे छोर
टूटा मन का ताना बाना
शब्द गए सब हार
मैं इस पार , तू उस पार |

शशि पाधा 

   

     अनुनय 


कुछ कहो, कुछ तो सुनाओ
    गीत कोई गुनगुनाओ ।

बिन कहे और बिन सुने ही
  रात आधी हो गई
मौन के आकाश में हर-
 आस मेरी खो गई

छेड़ दो न सुर सुरीले
      तार मन के बजाओ |

भोर होने को अभी दो -
 चार पल बाकी पड़े हैं
यह घड़ी संवारने को
 दीप ले जुगनूँ खड़े हैं

रोक लो न यह प्रहर
  चाँद को तुम ही मनाओ 

साधना में लीन सी
मौन ये चारों दिशाएँ
रात की कालिमा में
मौन जलती तारिकायें

थाम लो न हाथ मेरा
      रात को कुछ तो सजाओ ।

गीत कोई गुनगुनाओ !!!

शशि पाधा





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