सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

प्रस्तुत है एक लघु कथा ---

                       फ्युनरल होम   

“फ्युनरल होम” में रीमा का शव पहियों वाले हरे रंग के ताबूत में रखा हुआ था| ताबूत को सफेद-गुलाबी रंग के फूलों से सजाया हुआ था| आस-पास अनगिन खुशबूदार अगरबत्तियाँ और मोमबत्तियाँ जल रहीं थी |
मेन दरवाज़े की ओर से लम्बे-लम्बे काले कोट पहने, मुख पर अफसोस का मुखौटा लगाए लोग धीरे-धीरे हाल में प्रवेश कर रहे थे | यह सब रीमा के पति साहिल के ऑफिस के लोग थे जो शायद उससे कभी मिले ही नहीं थे | ना तो  रीमा के परिवार से भारत से कोई आ पाया था और ना ही साहिल के परिवार से | रीमा का देहांत शुक्रवार को हुआ था| विदेश में किसी की मृत्यु के बाद उसका अंतिम संस्कार अधिकतर शनिवार या रविवार को हो तो सब को सुविधा रहती है| काम काज से छुट्टी नहीं लेनी पड़ती| अत: सब की सम्मति से अंत्येष्टि के लिए रविवार ही निर्णित किया गया | साहिल उसके बेटे का दोस्त था, इसीलिए वो भी इस अंत्येष्टि में सम्मिलित हुई थी | हालांकि वो रीमा से परिचित नहीं थी |
हॉल के अन्दर एक माइक पर पंडित जी ने गीता का १५वाँ अध्याय पढ़ना आरम्भ किया | सब लोग चुपचाप सुन रहे थे | आधे लोग अमेरिकन थे,उन्हें तो शायद  कुछ भी समझ नहीं आ रहा था| अब पंडित जी ने यमराज की कहानी सुनाते हुए कहा,” संसार में केवल मृत्यु ही ऐसी होनी है जो अटल है| इसका समय, स्थान और कारण पहले से ही निश्चित होता है और इसे कोई  टाल नहीं सकता” | वगैरह –वगैरह |
बाहर बहुत ज़ोरों से बर्फ गिर रही थी | कुछ लोग अपने मोबाइल पर मौसम की जानकारी लेने में व्यस्त थे | शायद उन्हें चिंता थी कि अगर और देरी हुई तो सड़कों में यातायात के बंद हो जाने का डर था | मौसम विभाग ने ऐसी चेतावनी सुबह से ही दी थी किन्तु अंतिम संस्कार भी आज ही होना तय था| लोग शोक में डूबे कम और वापिस जाने को ज़्यादा अधीर लग रहे थे| अगरबत्ती,धूप, मोमबत्तियों का टिमटिमाना, पंडित जी का मंत्रोच्चारण, सब यंत्रवत चल रहा था |
और, दृश्य बदल रहा था| वो देख रही थी ट्राली में रखे ताबूत में रीमा के स्थान पर अपने निर्जीव शरीर को | आस –पास कोई भी अपना नहीं | अफ़सोस का मुखौटा लगाए अजनबी चेहरे| 
एक बार फिर से विदेश में बसने की पीड़ा का सर्प उसे दंश मार गया और वो फफक फफक कर रोने लगी |


शशि पाधा      

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

मानस मंथन : प्रस्तुत है एक कहानी ------

मानस मंथन : प्रस्तुत है एक कहानी ------:                 वो कौन थी एक पार्क की बेंच पर बैठे मैंने उसे कई बार देखा था | भारत से अमेरिका आए मुझे कुछ ही दिन हुए थे | समय काटने ...

प्रस्तुत है एक कहानी ------

                वो कौन थी


एक पार्क की बेंच पर बैठे मैंने उसे कई बार देखा था | भारत से अमेरिका आए मुझे कुछ ही दिन हुए थे | समय काटने के लिए हर शाम मैं  घर के पास के पार्क में टहलने के लिए जाती थी | परदेस में किसी स्वदेसी को देख लेना असीम  आनन्द का कारण बन जाता है | मैं बड़ी उत्सुकता से एक –दो बार उसके पास से गुज़री कि शायद बात हो जाए,लेकिन उसने मेरी ओर देखा तक नहीं |
वो चुपचाप बैठी शून्य में अपलक ताका करती, जैसे उसमे कुछ ढूँढ रही हो | कभी  धरती पर दृष्टि गढ़ाए अपने पाँव से किन्हीं प्रश्नों के उत्तर कुरेदती रहती | कभी मौन, निश्चेष्ट बैठी रहती  |
बहुत बार इच्छा हुई कि उसके पास जाऊँ, उससे परिचय बढाऊँ या उसकी निराशा का कारण पूछूँ| किन्तु मैं उसके मौन की परिधि को लाँघने का साहस नहीं जुटा पाई |
एक बार, केवल एक बार उसने थोड़ी आत्मीयता से मेरी ओर देखा था| मुझे लगा कि वो अपने एकान्त लोक से इहलोक में आ गई हो |उसे अपनी ओर देखते हुए मैंने सोचा कि शायद उसे मेरी आवश्यकता हो, शायद मैं उसकी कोई सहायता कर सकूँ| साहस करके मैं उसके पास चली गई |मुझे सामने खड़ा देख वो एक बार चौंक सी गई |
मैंने पूछा,” क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ ?”
बिना उत्तर दिए वो थोड़ा सा खिसक गई | मुझे लगा, मना भी तो नहीं किया |
उसके पास बैंच पर बैठते हुए मैंने कहा,” मेरा नाम गरिमा है | मैं भारत से हूँ | यहाँ कुछ दिन पहले ही आई हूँ |
बिना दृष्टि उठाए उसने केवल “हूँ’ कहा| क्योंकि मैं उम्र में उससे बड़ी थी अत: उसकी निराशा देख कर मेरे मन में ममता जागृत हुई | बात बढ़ाने के लिए मैंने उससे पूछा,” बेटी,क्या नाम है तुम्हारा ?”
पहली बार उसने दृष्टी उठाई | मेरी तरफ़ नहीं, सामने फैलते अन्धकार की ओर देखते हुए उसने कहा,”मेरा नाम मंदोदरी है”|
नाम सुन कर मैं चौंक गई| मैंने रामायण में पढने के अलावा आज तक किसी का यह नाम नहीं सुना था | जिस नाम के साथ एक वेदनामय कथांश जुड़ा हो , ऐसा नाम इसके माता पिता ने इसे क्यों दिया ?
प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी और देखते हुए मैंने कहा, “मंदोदरी, किन्तु”?
मेरा सवाल नहीं सुना उसने | तीव्र वेग से उठती हुई वो बोली,” यह मेरा असली नाम नहीं है | मैंने अपना नाम बदल दिया है “| और तेज़ क़दमों से चलती हुई वो घिरती साँझ के अंधेरों में खो गई|
वो तो चली गई लेकिन एक प्रश्न चिन्ह मेरे लिए छोड़ गई | मैं अब शून्य से पूछ रही थी –क्या रावण अभी तक जीवित है ??????

शशि पाधा



गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

मानस मंथन :       तोल मोल के बोल -- दोहे जग ने मुझ को सीखदी, ...

मानस मंथन :       तोल मोल के बोल -- दोहे
जग ने मुझ को सीखदी, ...
:        तोल मोल के बोल -- दोहे जग ने मुझ को सीख दी, तोल मोल के बोल | अब मैं बोलूँ तोल के, लोग कहें अनमोल || मितभाषी जो मनुज हो, ...
      तोल मोल के बोल -- दोहे

जग ने मुझ को सीख दी, तोल मोल के बोल |
अब मैं बोलूँ तोल के, लोग कहें अनमोल ||

मितभाषी जो मनुज हो, चैन मिले दिन रात |
न बहुतेरे मीत बनें, दुश्मन करे न घात ||

हार गई मैं बोल के, कोई सुने न बात |
अब चुप हूँ तो जग कहे, गूँगे का क्या साथ |
|
तरकश में लौटे नहीं, छूटा तीर कमान |
 निकला जो दीवार से, छोड़े कील निशान ||

मीठी वाणी वैद की, आधा रोग निदान |
मिश्री घुल गई नीम में, बच गए जान –प्राण ||

जग जितना भी कुटिल हो, छोड़ो न निज धर्म |
पीड़ा सब की बाँट लो, भर दो सब का मर्म ||

मधुर वचन के मंत्र से, जीतो जग संसार |
कोयल से ही सीख लो, मधुरस का व्यवहार ||

गुड़ से मैंने सीख ली, एक पते की बात |
अधरों पे जो घोल लो, करे कभी न घात ||

खारा जल सागर भरा, बुझे कभी ना प्यास |
छोटा सा झरना झरा, पंथी के मन आस ||

कटु वचन यूँ घाव करें, काँटा चुभता पाँव |
भरी दुपहरी बाँट दो, ठंडी ठंडी छाँव ||

शशि पाधा