गुरुवार, 17 नवंबर 2016

              दृश्य -पटकथा - पात्र 
                     ( संस्मरण )

(नेपथ्य से)  मेरी आवाज़ में
मेरे मध्यवर्गीय माता पिता का घर। प्रत्येक वस्तु अपने स्थान पर करीने से लगी हुई । छोटा सा आँगन,गुलाब-गेंदा आदि सभी मौसमी फूलों से शोभित छोटी सी बगिया, तुलसी का चौबारा, धूप-दीप तथा फूलों से सुगन्धित ठाकुरद्वारा, शयन कक्ष में अलमारी में साहित्यिक पुस्तकें सजी हुईं। यानी पूरा का पूरा घर साफ़ सुथरा। पिता कहते थे स्वच्छ घर में लक्ष्मी का निवास होता है । वैसे माता -पिता दोनों शिक्षक थे । अत: लक्ष्मी से अधिक सरस्वती का निवास ही था हमारा घर ।

      (दृश्य एक)  कुछ वर्षों के बाद
रिटायर्ड माता- पिता का शयन कक्ष । चारपाइयों के दोनों ओर तिपाई पर बहुत सारी पुस्तकें –पत्रिकाएँ, बिना खोल के दो-दो चश्में ( एक दूर के लिए- एक पास के लिए),  पानी पीने का चाँदी का गिलास तथा ताँबे का पानी भरा लौटा। दोनों का अपना-अपना दवाइयों का प्लास्टिक का डिब्बा। पिता जी की तरफ खिड़की की सिल पर पंचाँग, कल्याण के नये पुराने अंक, पत्र लिखने के लिये  उनके नाम का पैड, पेन | पास ही ऊनी टोपी, जुराबें हाथ- पाँव पोंछने के लिये छोटा सा तौलिया, चश्में के खोल, कुछ नये पुराने पोस्ट कार्ड आदि- आदि न जाने कितनी छोटी मोटी चीज़ें । माता जी की चारपाई के पीछे की सिल के स्थान पर बिस्तर गर्म करने के लिये रबर की पानी वाली बोतल, छोटा सा ट्राँसिस्टर, कुछ भजनों की कैसटें । शरतचन्द्र, वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यास , एक छोटा पर्स जिसमें यहाँ-वहाँ देने के लिये कुछ पैसे, हाथ पाँव मे दर्द के लिये लगाने वाली कोई टयूब, आदि -आदि- आदि न जाने कितनी चीज़ें । यानी उनका सारा वैभव,सारा संसार, सारी अवश्यकताएँ सिमट कर उनकी चारपाइयों के इर्द-गिर्द समा गईं । कभी कभी मुझे इतना सामान देख कर खीज आती थी तो धैर्य की मूर्ति मेरे पिता मन्द-मन्द मुस्कुरा कर कहते" सुविधा रहती है, किसी को आवाज़ नहीं देनी पड़ती "। मैं चुप रहती । वैसे भी मैं साल में एक- आध बार ही तो उनसे मिलने जाती थी , क्या फ़र्क पड़ता था ।

    ३५ वर्षों के  बाद  ( नेपथ्य से मेरी आवाज़)

अत्यन्त रोमांचक, शौर्य पूर्ण कार्यों से भरा पूरा जीवन जीने के बाद अब मेरे सैनिक अधिकारी पति रिटायर्ड हो गए हैं । बड़े-विशाल सरकारी सुसज्जित भवनों (जिनके साथ अति सुन्दर बाग -बगीचा) में ही हमारा अधिकांश जीवन बीता । उन घरों की सफ़ाई तथा देख- रेख के लिये हमारे साथ बहुत से सहायक रहते थे । यानी घर की सुई के लिये भी निश्चित स्थान । सारा घर सजा-सजाया, साफ़ सुथरा ।

 अब हम अपने बच्चों के साथ अमेरिका में रहने के लिये आ गए हैं । भरा- पूरा परिवार है, बड़ा सा घर भी है  ।
               दृश्य २ 
 हमारे शयन कक्ष में क्वीन साइज़ बेड के पास नाइट स्टैंड पर एक-एक टेबल लैम्प, दोनों की मेज पर दो-दो चश्में, ( एक पास के लिएऔर एक दूर देखने के लिए) नीचे के खुले दराज़ों में मेरी तरफ़  एक छोटी डिब्बिया जिसमें मैं रात को सोने से पहले अँगूठी आदि रखती हूँ ,वैस्लीन का जार, पीठ दर्द के लिये लगाने वाली दवाई की टयूब, फोन का चार्जर, टिशु पेपर का रोल, मेरी पूर्ण-अपूर्ण रचनाओं की डायरियाँ, कुछ नई- पुरानी हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएँ । लिखेने के पैड, पेन-पेंसिलें, पानी की बोतल, आदि-आदि-आदि न जाने छोटी-मोटी कितनी चीज़ें । एक छोटी टेबुल पर छोटा सा सी.डी सिस्टम जिसके साथ ही पड़ी रहती हैं गुलज़ार, फ़रीदा खानुम, आशा भोंसले, मुकेश, जगजीत आदि की मश्हूर सीडीज़ का संग्रह । साथ ही रखा रहता है दिन भर का साथी –मेरा लैप टॉप|

मेरे पति के टेबुल पर दो चश्में, हाथ की घड़ी, टेलीफोन के नम्बरों की डायरी । नीचे खुली दराज़ के एक खाने में दवाइयों का प्लास्टिक का डिब्बा,चश्मों के खोल, पेन और वालेट, पानी की बोतल ।
दूसरे खाने में हाथ-पाँव पोंछने का तौलिया ( क्योंकि पेपर टावल रखना उन्हें पर्यावरण के सिद्धान्तों के विरुद्ध लगता है) , एट्लस, कुछ नक्शे, कुछ नए- पुराने बिल । पास ही छोटी टेबुल पर उनकी  लैप टाप, अमेरिका की पत्रिकाएँ, विश्व के प्रसिद्ध सैनानियों की जीवनियाँ,योग ध्यान की पुस्तकें आदि,आदि आदि | यानी दिनचर्या की न जानें कितनी चीज़ें ।

 काम करते करते जब भी मुझे समय मिलता है मैं हर चीज़ झाड़ पोंछ कर करीने से अपनी -अपनी जगह रख देती हूँ । लेकिन धीरे-धीरे सब छूटता जा रहा है । बहुत कोशिश के बाद भी कमरा अस्त-व्यस्त ही लगता है ।
अब जब भी कभी रात को अपने कमरे में सोने के लिए आती हूँ तो सोचती हूँ  ---कुछ भी तो नहीं बदला | वही दृश्य, वही पटकथा | बदले हैं तो केवल पात्र ------


शशि पाधा 

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