सोमवार, 29 सितंबर 2014

मेरी माँ ------

माँ को समर्पित एक गीत

  आँचल संदली

जब भी देखा आँचल संदली
मंदिर देहरी ज्योत जली
मन की आँखों से माँ तेरी
अश्रु बन इक याद ढली |

माँ रंगती थी चुनरी अपनी
जैसा मन का मौसम था
कभी गुलाबी, कभी काश्नी
पीत वासन्ती तन मन था
 
रंग घुलते थे पूछ के उसको
हर रंग में वो लगी भली |

ठाकुर द्वारे कृष्ण कन्हैया
फूलों से थे सदा सजे
संध्या-वन्दन, दीप-आरती
माँ मीरा के गीत भजे
चित्रित करती माँ रंगोली
सज जाते थे द्वार गली |

सतरंगी धागों की डोरी
माँ रिश्तों की माल पिरोए
फीका हो न रंग प्रेम का
डोरी बारम्बार भिगोए
 ममता करुणा की रोली से
  माँ हम सब को बाँध चली|

त्याग दया की पावन गंगा 
माँ के अँगना बहती थी
माँ तो अपने सारे सुख दुःख
रंगों में ही कहती थी

  तेरे मन की मैं ही जानूँ
  मैं जो तेरी गोद पली |

शशि पाधा






सोमवार, 25 अगस्त 2014

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर "अनुभूति" इ पत्रिका में प्रकाशित दोहे -----

       मुरली की तान

बंसी ने जब जान ली, राधा कान्हा प्रीत
सुर दूजा साधे नहीं और न गाए गीत|

ब्रज की भोली गोपियाँ, सुन मुरली की तान
घुँघरू बाँधें पाँव में, अधर धरें मुस्कान

कनक रंग राधा हुई, कारे- कारे श्याम
दोपहरी की धूप संग, खेल रही यूँ शाम |

राधा रानी गूथती वैजन्ती की माल
कान्हा पहने रीझते राधा लाल गुलाल

ऊधो से जा पूछतीं अपने मन की बात
कृष्णा ने परदेस से, भेजी क्या सौगात

यमुना तीरे श्याम ने, खेली लीला रास
लहर-लहर नर्तन हुआ, कण-कण बिखरा हास

गुमसुम राधा घूमती, दिल से है मजबूर
हर पंथी से पूछती, मथुरा कितनी दूर

कोकिल कूजे डार पे, गाये मीठे गीत
ढूँढे सुर में राधिका, बंसी का संगीत

सोचूँ जग में हो कभी, मीरा-राधा मेल
दोनों सखियाँ खेलतीं, प्रीत-रीत का खेल

पल छिन चुभते शूल से, क्षीण हुई हर आस     
कैसे काटे रात दिन, नैनन आस निरास                         

-
शशि पाधा 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

http://trivenni.blogspot.in/2014/08/blog-post.html  -- इस लिंक पर प्रस्तुत हैं मेरे रचे "माहिया "

माहिया ----शशि पाधा 

यह प्यार अनोखा है 
मन जब हीर हुआ 
कब,किसने रोका है|

राँझा क्या गाता है
गीतों के सुर में
मन पीर सुनाता है |

सागर जल खारा है
किरणों से पूछो
उनको तो प्यारा है |

लो बदरा बरस गए
धरती प्यासी थी
चुप आके सरस गए |

यह भाषा कौन पढ़े
नैना कह देते
अधरों पे मौन धरे |

यह चुप ना रहती है
साँसें बोलें ना
धड़कन सब कहती है |

कैसी मनुहार हुई
कल तक रूठे थे
अब मन की हार हुई |

मन पंछी उड़ता है
सपने पंख बने
रोके न रुकता है |

दोनों ने ठानी है
राधा कह दे जो
मीरा ने मानी है |

बिन पूछे जग जाने
प्रेम किया जिसने
वो रब को पहचाने 



  शशि पाधा 

दो रचनाएँ--दो भाव

     मौन का सागर 
   
मौन का सागर अपार
मैं इस पार - तू उस पार।

कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
संवादो की गठरी  बाँधे
  खड़े रहे मंझधार
न इस पार , न उस पार |

मान की डाली झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठायों के गहन भंवर में
छूट गई पतवार
कैसे होगा पार ?

उलझ गई रिश्तों की डोर
ढूँढ़ न पाए बिखरे छोर
टूटा मन का ताना बाना
शब्द गए सब हार
मैं इस पार , तू उस पार |

शशि पाधा 

   

     अनुनय 


कुछ कहो, कुछ तो सुनाओ
    गीत कोई गुनगुनाओ ।

बिन कहे और बिन सुने ही
  रात आधी हो गई
मौन के आकाश में हर-
 आस मेरी खो गई

छेड़ दो न सुर सुरीले
      तार मन के बजाओ |

भोर होने को अभी दो -
 चार पल बाकी पड़े हैं
यह घड़ी संवारने को
 दीप ले जुगनूँ खड़े हैं

रोक लो न यह प्रहर
  चाँद को तुम ही मनाओ 

साधना में लीन सी
मौन ये चारों दिशाएँ
रात की कालिमा में
मौन जलती तारिकायें

थाम लो न हाथ मेरा
      रात को कुछ तो सजाओ ।

गीत कोई गुनगुनाओ !!!

शशि पाधा





मंगलवार, 24 जून 2014

मेरे ब्लॉग "मानस मंथन " पर अपनी कुछ नई रचनाएँ साझा कर रही हूँ ------

    दीवानों की बस्ती में


हँसी ठिठोली, चुहल चुटकुले
दीवानों की बस्ती में
दिन तो बीते उत्सव मेले
रातें मौज परस्ती में |

उलझन की ना खड़ी दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों में
मोल भाव ना मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों में
  खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
  भर लो झोली सस्ती में |

चैन की बंसी, गीत गुनगुने
माथे पर ना शिकन कहीं
अभिमानों के महल कहीं न
साहु- सेठ का विघ्न नहीं
  सुख़-दुःख दोनों खेला करते
 धूप –छाँव की मस्ती में |

मन तो रहता खुली तिजोरी
ताला चाबी रोग नहीं
 रूखी सूखी बने रसोई
हाँडी छप्पन भोग नहीं
    चार धाम खुद आन बसे हैं
    सब की घर गृहस्ती में |

ताम झाम सब धरे ताक पे
किया वही जो लगा सही
झूठ कपट का कवच न पहना
खरी –खरी ही सदा कही
  न नेता न चपल चाकरी
   समदर्शी हर हस्ती में |

  शशि पाधा 
  

    
मौसम का डाकिया

इक ख़त बंद दे गया
मौसम का डाकिया,
भीनी सुगंध दे गया
मौसम का डाकिया |

नाम ना, पता नहीं
ना कोई मोहर लगी,
द्वार पर खड़ी –खड़ी
रह गई ठगी –ठगी

कांपते हाथ में
इक उमंग दे गया
मौसम का डाकिया |

किस दिशा, किस छोर में
जा छिपूं , ले  ऊडूँ
आँचल की ओट में
बार –बार मैं पढूँ |
  मौसमी गीत का
   राग- छंद दे गया
    मौसम का डाकिया |

मीत कोई देस से
क्या मुझे बुला रहा
बिन लिखे अक्षरों, से
मुझे रुला रहा

    अधर पे मुस्कान की
    इक सौगंध दे गया
    मौसम का डाकिया |

 अधखुली परत में
छिपी थी फूल पंखुड़ी
देश काल लाँघ कर
याद कोई आ जुड़ी
   मौन पतझार में
   रुत वसंत दे गया
       मौसम का डाकिया !!!!!


शशि पाधा 



     मैंने भी बनवाया घर

धरती अम्बर मोल ना माँगें
सागर ने पूछा ना दाम
नदिया पर्वत लिखें ना कागज
हवा ना पूछे क्या है नाम
  अपने मन की इस नगरी में
   मैंने भी बनवाया घर |

इस गाँव में न पटवारी
ना साहु, ना सेठ कोई
ना कोई माँगे हिस्सेदारी
धन का दाँव पलेच नहीं
  तिनके माटी घोल यहाँ की 
  मैंने भी बनवाया घर |

चहुँ दिशा दीवारें होंगी
नील गगन की छत खुली
सागर का तट नीँव सरीखा
धूप झरेगी धुली-धुली
    शंख सीपियाँ जोड़ के मैंने
     लहरों पे बनवाया घर |

   कोई ना पूछे अता –पता क्या
   किरणें सीधी राह चालें
   चंदा सूरज लालटेन से
   चौक–चौराहे आन जलें
    तारे-जुगनू टांग डगर पे
    मैंने भी बनवाया घर  |


   शशि पाधा




  
 और कितनी दूर जाना



उपलब्धियों की दौड़ में कब
खो गया सुख का ठिकाना
और कितनी दूर जाना ?

क्या किसी पड़ाव पर
बैठ सेंकी  धूप तूने
हाथ के दोने में रक्खी  
बारिशों की बूँद तूने

 भूल गया शोर में तू
पंछियों का चहचहाना
और कितनी दूर जाना ?


फुनगियों  पे नींव रखी
आसमां पे घर बसाया
एक दिन होगा अकेला
क्या कभी यह होश आया

     भोगने का वक्त कम है
      व्यर्थ ही भरता खजाना
और कितनी दूर जाना ?

 अंतहीन दौड़ में
 मन कभी थक जाएगा
किस लिए था दौड़ता
यह भी भूल जाएगा
          पंख कट जायेंगे, जब
            वक्त साधेगा निशाना |
और कितनी दूर जाना ?

उड़ रहा जो ठीक पीछे
धूल का गुब्बार देख
बाट जोहती, थक गई जो
आँख की बौछार देख

 लौट आ , आबाद कर
हाथ जोड़े घर वीराना
और कितनी दूर जाना  ?

 और कितनी दूर जाना ?????


शशि पाधा 



शनिवार, 21 जून 2014

एक मनुहार मन से ------

खोल दे वितान मन |

छट गई है स्याह धुंध
नभ धरा के दरमियाँ
छत की मुंडेर को
छू रही हैं रश्मियाँ
हो रहा विहान मन
 खोल दे वितान मन |

कल की बात कल रही
आज भोर हँस रही
हवाओं के हिंडोल पे
पुष्प गंध बस रही
उड़ रही हैं दूर तक
धूप की तितलियाँ
 तू भी भर उड़ान मन
खोल दे वितान मन |

झूमने लगी लहर
सूर्य का पा परस
बूँद-बूँद झर रहा
ज्योति से भरा कलश
नटी सी थिरकने लगीं
मांझियों की कश्तियाँ
छेड़ कोई गान मन
खोल दे वितान मन |

दूर उस पहाड़ पर
 दीप एक जल रहा
ओट विश्वास के
 आँधियों से लड़ रहा
 संग संग चल मेरे
  कह रहीं पगडंडियाँ
 मन की बात मान मन
 खोल दे वितान मन |

          शशि पाधा 7 जनवरी, २०१४