शनिवार, 15 सितंबर 2012

कविता संग्रह "मानस-मंथन से"

बस  यूँ ही मैंने पूछा था

बस यूँ ही मैंने पूछा था ---

जीवन पथ पर चलते चलते
धूप छाँव से केलि करते
टूटेंगे जब सम्बल सारे
बन पाओगे सबल सहारे ?

बस यूँ ही मैंने पूछा था---

वीणा की तारों को छेड़ूँ
छेड़ न पाऊँ राग कभी जब
छू कर मेरे होठों को तब
गा पाओगे गान वही तुम ?

बस यूँ ही मैंने पूछा था--

सागर के मंझधार हो नैया
खो जाये पतवार कभी तो
बाँध के बाहों के घेरे में
ले जाओगे पार कभी तुम?

बस यूँ ही मैंने पूछ लिया था --
 
बिखरे सपनों की घड़ियों में
टूटे मन की आस कभी तो
अवसादों के लाँघ के पहरे
दे दोगे विश्वास कभी तुम?

और मेरे काँधे को छू कर
तुम जो थोड़ा मुस्काए थे
तेरी उस मुसकान में मैंने
सारे उत्तर पढ़ डाले थे।

जाने क्यों मैंने पूछ लिया था !!!


     शशि पाधा



बस इतना अधिकार मुझे दो ।

बाँध न पाऊँगी मैं तुमको
इन बाँहों के घेरे में
जोगन सी ढूँढ़ूँगी तुझको
ऋतुओं के हर फेरे में
 और तुम्हारे मन अँगना में
 कलिका बन मुसकाऊँ मैं
  बस इतना अधिकार मुझे दो ।

न तू जाने रीत प्रीत की
 न रस्में, न बन्धन
न पढ़ पाए मन की भाषा
न हृदय का क्रन्दन

छेड़ूँ ऐसी राग रागिनी
प्रेम का गीत सुनाऊँ मैं
बस इतना अधिकार मुझे दो ।

मैं नदिया तू सागर प्रियतम
मीलों बहती आऊँ
तू सूरज मैं किरण भोर की
संग संग चलती जाऊँ

तू दीपक मैं बाती प्रियतम
निशिदिन ज्योत जलाऊँ मैं
बस इतना अधिकार मुझे दो ।

शशि पाधा



       चलूँ अनन्त की ओर  
   
     चलूँ अनन्त की ओर ।
     विह्वल,व्याकुल तन मन मोरा
      ढूँढे कोई ठौर ।

    बाँच लिये सुख- दुख के अक्षर
    नियति की स्याही का लेखा
    जानूँ मैं उस  पार तो  होगी
   
राग-विराग की सन्धि रेखा
   
   कोई अनादि, कोई दिगन्त,  शून्य का कोई छोर 
      ढूँढ रही वो ठौर ।

     पंछी सा मन चहुँदिश उड़ता
       दिशा बोध कराए कौन ?
    मोह बन्धन के खोल कपाट
      पार क्षितिज ले जाए कौन ?
     चिर-चिरन्तन की अँगुली से
       बाँधूं जीवन डोर, ले जाए उस ओर ।
      ऐसा कोई ठौर ।


     तोड़ूँ अब प्राचीर देह की
    कर लूंगी चिरवास वहां 
    सत -असत का भ्रम न कोई
    प्राँजल पूर्ण प्रकाश जहां 
   आनन्दमयी हर सन्ध्या होगी ,ज्योतिर्मय हर भोर  
     ढूँढूं वो ही ठौर ।


       शशि पाधा







   

दो अक्षर 
  

मानस के कागद पर प्रियतम
    दो अक्षर का गीत लिखा
पहला अक्षर नाम तुम्हारा
  दूजा अक्षर प्रीत लिखा 
  भूल गई मैं बाकी  सब कुछ
जब से तुम संग प्रीत लगी
छोड़  आई सब स्याही कागद
अब मिलने की आस जगी

 नयन झरोखे खोल के देखूँ
   तू आया कि चाँद दिखा ?

अब न कोई आधि-व्याधि
अब न कोई साध रही
अब न मोह की बन्धन बाधा
नदिया यूँ निर्बाध बही

नाम तेरे की माला पहनी
जपने की तू रीत सिखा 


दो अक्षर में सब सुख बसता
जग को क्या समझाऊँ मैं
न जानूँ कोई जन्तर मन्तर
सुलझी , क्यों उलझाऊँ मैं

न मैं जोगन, न वैरागन
प्रेम की अविरल दीपशिखा । 

           शशि पाधा






3 टिप्‍पणियां:

  1. आप के ब्लाग पर बहुत सुन्दर रचनाएं पढीं | भविष्य के लिए शुभ कामनाएं |

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  2. शशि जी बहुत खूब | बधाई ! आप के ब्लॉग पर अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं |

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  3. namaskaar shashi ji , bahut sundar geet aapki rachnao ko padhne ka aanand yahan liya :) badhai aapko

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