बुधवार, 12 सितंबर 2012

रचना संग्रह "मानस मंथन" से -----

    आश्वासन 

विदा की वेला में सूरज ने
धरती की फिर माँग सजाई,
तारक वेणी बाँध अलक में
नीली चुनरी अंग ओढ़ाई,
नयनों में भर सांझ का अंजन
हर शृंगार की सेज बिछाई,
    
    और कहा सो जाओ प्रिय
     मैं कल फिर लौट के आऊँगा।

भोर किरण कल प्रात तुझे
चूम कपोल जगाएगी
लाल ग़ुलाबी पुष्पित माला
ले द्वारे पर आएगी
पुनर्मिलन के सुख सपनों की
आस में तू शरमाएगी
उदयाचल पर खड़ा मैं देखूँ
तू कितनी सज जाएगी
   
      पलक उठा तू मुझे देखना
       किरणों में मुसकाऊँगा
              मैं कल फिर लौट के आऊँगा

दोपहरी की धूप छाँव में
खेलेंगे हम आँख मिचौली
डाल डाल से पात पात से
छिप कर देखूँ सूरत भोली
प्रणय पुष्प की पाँखों से तब
भर दूँगा मैं तेरी झोली

       दूर क्षितिज तक चलना संग संग
         नयनों में भर ले जाऊँगा
               कल फिर लौट के आऊँगा

                                    शशि पाधा




विरल क्रम 

भोगा था चिर सुख मैंने
और झेला चिर दुख मैंने,
संग रहा जीवन में  मेरे
सुख और दुख का अविरल क्रम
 कभी विषम था कभी था सम

किसी मोड़ पर चलते चलते
पीड़ा मुझको आन मिली
आँचल में भर अश्रु मेरे
संग-संग मेरे रात जगी

हुआ था मुझको मरूथल में क्यूँ
सागर की लहरों का भ्रम
शायद वो था दुख का क्रम

कभी दिवस का सोना घोला
पहना और इतराई मैं
और कभी चाँदी की झाँझर
चाँद से ले कर आई मैं

पवन हिंडोले बैठ के मनवा
गाता था मीठी सरगम
जीवन का वो स्वर्णिम क्रम

पूनो और अमावस का
हर पल था आभास मुझे
छाया के संग धूप भी होगी
कुछ तो है अहसास मुझे

जिन अँखियों से हास छलकता
कोरों में वो रहती नम
समरस है जीवन का क्रम

  शशि पाधा



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