ठंडी छाँव
दुर्गम पथ और भरी दोपहरी
दूर है मेरा गाँव
थका बटोही मनवा चाहे
रिश्तों की ठंडी सी छाँव ।
पगडंडी पर चलते-चलते
कोई तो दे अब साथ
श्वासों में जब कम्पन हो
तो कोई थाम ले हाथ
निर्जन पथ चंदा छिप जाए
जुगनु सा जल जाए कोई
भूलूँ जब भी राह -डगर मैं
तारा बन मुस्काए कोई
गोदी में सर रख ले जब
कोई काँटा चुभ जाए पाँव ।
दूर बसेरा, शिथिल हो गात
नीरव मूक खड़ी हो रात
बीहड़ जंगल, घना हो कोहरा
अँधियारे से धुँधला प्रात
कारी बदली आकर ढक दे
नभ की तारावलियाँ जब
भूलूँ पथ, भूलूँ मैं मंज़िल
भूलूँ अपनी गलियाँ जब
कोई मुझे आह्वान दे जब
भूलूँ अपना नाम
थका बटोही मनवा चाहे
रिश्तों की ठंडी सी छाँव ।
शशि पाधा
तुम तो सदा रहे अनजान
तुम तो रहे तटस्थ सदा
मैं लहरों सी चंचल गतिमान
संग बहे, न संग चले
क्या इसका तुझे हुआ था भान ?
अनबूझी कोई आस पुरातन
सपनों सी संग बनी रही
माँझी के गीतों की गुंजन
इन अधरों पे सजी रही
मन्द पवन छुए जो आँचल
मन्द -मन्द मैं गाऊँ गान
मेरे गीतों की सरगम से
तुम तो सदा रहे अनजान।
अस्ताचल पर बैठा सूरज
बार -बार कयूँ मुझे बुलाए
स्वर्णिम किरणों की डोरी से
बाँध कभी जो संग ले जाए
और कभी जो लौट न आऊँ
दूर कहीं जा भरूँ उड़ान
टूटे बन्धन की पीड़ा का
तुझे हुआ थोड़ा अनुमान?
पल -पल जीवन बीत गया
साधों का घट रीत गया
लहरों ने न तुझे हिलाया
और किनारा जीत गया
तुम तो, तुम ही बने रहे
पर्वत सा टूटा न मान
पागल मन क्यों फिर भी कहता
तुझ में ही बसते मन प्राण ?
शशि पाधा
कम्पित लौ
मैं दीपशिखा की कम्पित लौ
तुम ज्योतिपुँज तेजस दिनमान
तुझ निस्सीम से कैसे होगी
मेरी लघुता की पहचान
किरणें चित्र उकेरें अँगना
ढूँढ़ूं क्या संकेत तेरा
पुष्प पाँखुरी खुलती धीमे
पढ़ लूँ क्या संदेश तेरा
नयनताल में झिलमिल करती
अनदेखी मूरत अनजान
कह दो कैसे होगी तुमसे
मेरी अँखियों की पहचान ?
पार क्षितिज है तेरा डेरा
किस पथ चलती आऊँ मैं
अमा की चादर घनी घनेरी
कैसा दीप जलाऊँ मैं
मैं उलका की क्षीण रेख सी
पूर्ण चन्द्र की तुम मुस्कान
नभ के किस किनारे होगी
मेरी तुमसे चिर पहचान ?
बन्द करूँ नयनों की सीपी
पलकन तुझे छिपाऊँ आज
खोलूँ न फिर द्वार झरोखे
इक बार तुझे जो पाऊँ आज
बिसरा दूँ सब सुध-बुध मन की
नाम तेरे का गाऊँ गान
तुझ निस्पृह से क्या तब होगी
मेरी साधों की पहचान ?
पाती
हवाओं के कागद पे लिख भेजी पाती
क्या तुम ने पढ़ी ?
न था कोई अक्षर,
न स्याही के रंग
थी यादों की खुशबू
पुरवा के संग
घटाओं की चुनरी में बाँधी जो कलियाँ
क्या तुमने चुनीं ?
न वीणा के सुर थे,
न अधरों पे गीत
न पायल की रुनझुन
न कोकिल संगीत
सागर की लहरों ने छेड़ी जो सरगम
क्या तुमने सुनी ?
बीती दोपहरी की
ठंडी सी छाँव
गुलनारी थोड़ी सी ,
थोड़ी सी श्याम
किरणों ने नभ पर उकेरे संदेसे
क्या तुमने लिखे ?
शशि पाधा
भोर
नव किसलय ने खोलीं आँखें
डाल-डाल नूतन परिधान
हरी दूब जागी अलसाई
किसने छेड़ी मधुमय तान।
ओस कणों में हाथ डुबोए
स्वर्णिम किरणें घोलें रंग
खेल -खेल में चित्रित करतीं
कलिकाओं के कोमल अंग
कैसे नटखट लोभी भंवरे
पल भर में कर ली पहचान ।
चंचल सा इक पवन झकोरा
लेकर आया मलय सुगन्ध
आतुर सा कोई श्यामल बदरा
छू कर बरस गया निर्बन्ध
मौन हो गए पंछी कुछ पल
सुनने को लहरों का गान ।
अरूण छ्टा बिखरी अम्बर में
कैसा मोहक रूप शृंगार
पीत चुनरिया, कुंकुम केसर
पैंजनियों में राग बहार
सजधज निकली भोर क्षितिज से
खोले धरती द्वार-वितान।
शशि पाधा
शायद कोई गीत बने
मोरपंखी कल्पनाएँ
ओस भीगी भावनाएँ
अक्षर अक्षर बरस रहे हैं
शायद कोई गीत बने ।
लहरें छेड़ें सुर संगीत
माँझी ढूँढे मन का मीत
नील मणि सी रात निहारे
चंदा की अँखियों में प्रीत
तारक मोती झलक रहे हैं
शायद कोई गीत बने ।
वायु के पंखों में सिहरन
डार -डार पायल की रुनझुन ,
भंवरे छेड़ें सुर संगीत
कलिकाएँ खोलें अवगुंठन ,
मधुपूरित घट छलक रहे हैं
शायद कोई गीत बने ।
दो नयनों से पी ली मैंने
तेरे अधरों की मुसकान
धीमे -धीमे श्वासों ने की
तेरी खुशबू से पहचान ,
पलकों में सुख स्वपन सजे हैं
शायद कोई गीत बनें ।
शशि पाधा
बस इतना अधिकार मुझे दो
बाँध न पाऊँगी मैं तुमको
इन बाँहों के घेरे में
जोगन सी ढूँढ़ूँगी तुझको
ऋतुओं के हर फेरे में
और तुम्हारे मन अँगना में
कलिका बन मुसकाऊँ मैं
बस इतना अधिकार मुझे दो ।
न तू जाने रीत प्रीत की
न रस्में, न बन्धन
न पढ़ पाए मन की भाषा
न हृदय का क्रन्दन
छेड़ूँ ऐसी राग रागिनी
प्रेम का गीत सुनाऊँ मैं
बस इतना अधिकार मुझे दो ।
मैं नदिया तू सागर प्रियतम
मीलों बहती आऊँ
तू सूरज मैं किरण भोर की
संग संग चलती जाऊँ
तू दीपक मैं बाती प्रियतम
निशिदिन ज्योत जलाऊँ मैं
बस इतना अधिकार मुझे दो ।
शशि पाधा
जीवन रीत
अब न गाऊँगी मैं फिर से
अश्रु भीगा वेदन गीत ।
सागर तीरे चलते -चलते
जोड़ूँगी मोती और सीप
लहरों की नैया पर बैठी
छू लूँगी उस पार का द्वीप
अब न पूछूँगी मैं मन से
किसकी हार-किसकी जीत ।
ओस कणों में घोल के किरणें
रंग लूँगी अंगना और द्वार
इन्द्रधनु ले आऊँ नभ से
बिखरा दूँ सतरंगी हार
छेड़ूँगी वीणा पर फिर से
राग-रंजित सुर संगीत ।
डाली पर एकाकी कोयल
करूण स्वरों में गाये गान
जाऊँ गले लगाऊँ, पूछूँ
कैसे हो यह पीर निदान
बाँध के सावन ला दूँ उसको
जानूँ वो ही मन का मीत ।
जिन रिश्तों ने तोड़ी डोरी
भूलूँ वो सूरत अनजान
अँधियारों में संग चलें जो
कर लूँगी उनसे पहचान
नयी दिशाएँ पंथ सँवारे
नूतन होगी जीवन रीत
फिर से न गाऊँगी मैं अब
अश्रु भीगा वेदन गीत ।
शशि पाधा
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