मंगलवार, 18 सितंबर 2012

कविता संग्रह " अनंत की ओर" से ----

    जिज्ञासा
                                                                                   
क्षितिज के उस पार क्या है
जानने की चाह है
  अम्बर का विस्तार क्या है
   जानने की चाह है ।

रोज सुबह प्राची का सूरज
किरण -जाल बिछाए,
शाम ढले चुपचाप अकेला
सागर में छिप जाए

   सागर से अपार क्या है?
    जानने की चाह है ।

पंख पसारे उड़ते पंछीं
दिशा-दिशा मंडराएँ
किस अनन्त को ढूँढ़े फिरते
धरती पर न आएँ

   अनन्त का विस्तार क्या है?
    जानने कि चाह है?

हंसती- गाती आती मधु ऋतु
शाख-शाख हरियाए
क्यों आता पतझड़ निर्मोही
पात-पात मुरझाए

   मधुबन का शृंगार क्या है?
    जानने की चाह है ।

वीणा की तारों में झंकृत
सात सुरों के गान मिले
बगिया के फूलों के रंग में
सुख सपनों के प्राण छिपे

   सपनों का संसार क्या है ?
   जानने की चाह है ।

कोई न आया इस जगति में
अजर -अमर वरदान लिए
कर्मों की गठरी धर सर पर
जीवन के दिन चार जिए

   मुक्ति का आधार क्या है ?
    जानने की चाह है ।

शशि पाधा



      चलूँ अनन्त की ओर   
   
     चलूँ अनन्त की ओर ।
     विह्वल,व्याकुल तन मन मोरा
      ढूँढे कोई ठौर ।

    बाँच लिये सुख- दुख के अक्षर
    नियति की स्याही का लेखा
    जानूँ मैं उस  पार तो  होगी
   
राग-विराग की सन्धि रेखा
   
   कोई अनादि, कोई दिगन्त,  शून्य का कोई छोर 
      ढूँढ रही वो ठौर ।

     पंछी सा मन चहुँदिश उड़ता
       दिशा बोध कराए कौन ?
    मोह बन्धन के खोल कपाट
      पार क्षितिज ले जाए कौन ?
     चिर-चिरन्तन की अँगुली से
       बाँधूं जीवन डोर, ले जाए उस ओर ।
      ऐसा कोई ठौर ।


     तोड़ूँ अब प्राचीर देह की
    कर लूंगी चिरवास वहां 
    सत -असत का भ्रम न कोई
    प्राँजल पूर्ण प्रकाश जहां 
   आनन्दमयी हर सन्ध्या होगी ,ज्योतिर्मय हर भोर  
     ढूँढूं वो ही ठौर ।


       शशि पाधा



 




1 टिप्पणी:

  1. रोज सुबह प्राची का सूरज
    किरण -जाल बिछाए,
    शाम ढले चुपचाप अकेला
    सागर में छिप जाए

    हार्दिक शुभकामनायें

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