मन
की व्यथा आज किसको सुनाएँ
*
अनमन
सी उड़ने लगीं हैं हवाएँ
मन
की व्यथा आज किसको सुनाएँ|
भटक
गई किरनें
अंधेरों
के पथ में
ना
बैठा कोई
सारथी सूर्य
रथ में
बिछी
है कुहासों की परतें गगन में
चली
ढूँढने धूप भी अब दिशाएँ |
जहाँ
देखो
कोहरे
के पर्वत खड़े हैं
ये मौसम
ये मौसम
ना आने की ज़िद्द में अड़े हैं
कराहती
रही हर नदी आँख मीचे
बहती
रहीं रात भर वेदनाएँ |
न
डाली, न कोयल
न
पँछी बसेरा
न
उत्सव वासंती
न
पुरवा का फेरा
चखने
लगी हर साँस शीत ठिठुरन
सिमटने
लगीं हैं धरा की शिराएँ |
मन
की व्यथा आज किसको सुनाएँ|
शशि
पाधा