बुधवार, 10 दिसंबर 2014

शीत ऋतु आगमन और शब्दों की कम्पन -----

मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ
             *
अनमन सी उड़ने लगीं हैं हवाएँ
मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ|

भटक गई किरनें
अंधेरों के पथ में
ना बैठा कोई 
सारथी सूर्य रथ में
बिछी है कुहासों की परतें गगन में
चली ढूँढने धूप भी अब दिशाएँ |

जहाँ देखो
कोहरे के पर्वत खड़े हैं
ये मौसम
ना आने की ज़िद्द में अड़े हैं
कराहती रही हर नदी आँख मीचे
बहती रहीं रात भर वेदनाएँ |

न डाली, न कोयल
न पँछी बसेरा
न उत्सव वासंती
न पुरवा का फेरा
चखने लगी हर साँस शीत ठिठुरन
सिमटने लगीं हैं धरा की शिराएँ |

मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ|

शशि पाधा




सोमवार, 1 दिसंबर 2014

एक मुलाकात जिसने दिशा बदल दी ----

   सात समंदर पार --- एक संस्मरण
                 शशि पाधा


“खुला झरोखा आई धूप
बदल गया जीवन स्वरूप,
मरुथल में भी छाँव मिली
प्यासे को जल पूरित कूप”

बचपन में सुना था कि जो व्यक्ति सात समन्दर पार जाता है , उसे ऐसी विदाई दी जाती है मानों उसके लौट आने की कोई आशा ही ना हो | जाने वाला भी भारी मन से केवल कुछ नया पाने के उद्देश्य से ही अदृश्य की ओर प्रस्थान करता था |
किन्तु मेरी परिस्थितियान भिन्न थीं | मुझे विदेश में कुछ ढूँढने / पाने के लिए नहीं जाना था | केवल संतान का मोह मुझे अपने देश से हजारों मील दूर सात समन्दर पार बुला रहा था|
बात वर्ष 2002 की है | पति ने सेवा निवृत्ति  पाते ही  निर्णय ले लिया “ चलो बच्चों के पास अमेरिका में | यहाँ अकेले क्यों रहें,वहां जाकर कुछ उनके काम में हाथ बटायेंगे”|  अब चूंकि मैं पहले भी अमेरिका में वर्ष भर रह चुकी थी और यहाँ के वैभव के साथ-साथ प्रियजनों से दूर होने का दुःख भोग चुकी थी अत:  मैंने अनेकों बार यहाँ आने के लिए “ना” ही की | मुझे संतान का मोह तो था किन्तु विदेश की धरती के प्रति आकर्षण कतई नहीं था | मैं साहित्य जगत से जुड़ी थी, और जानती थी कि अमेरिका में मुझे हिन्दी की पुस्तकों, पत्रिकाओं तथा साहित्यिक गोष्ठियों की कमी खलेगी | इसी उधेड़बुन में निर्णय लेने से पहले  हमने दक्षिण भारत की यात्रा का सोचा ताकि इस विषय पर कुछ और विचार कर सकें |
कन्या कुमारी, त्रिवेंद्रम, रामेश्वरम, महाबलीपुरम होते हुए हम कांचीपुरम में शंकराचार्य मठ के दर्शन करने गए | सुबह की पूजा-अर्चना के बाद हमने मठ के अध्यक्ष शंकराचार्य से मिलने की इच्छा बताई और सौभग्य वश वहां के अधिकारियों ने हमें उनके अतिथिकक्ष में आने का निमंत्रण दिया | बातचीत करते हुए उन्हें मैंने अपने मन की दुविधा बताई और परामर्श लेना चाहा | मैंने उनसे कहा, आदरणीय, मेरे पति विदेश में हमारे पुत्रों के परिवारों के साथ अपना बाकी जीवन जीना चाहते हैं, मेरे मन में कई संशय हैं | क्या वहां के वातावरण में हम अपने आप को ढाल पाएंगे ? क्या संयुक्त परिवार में रहना संभव हो सकेगा ? मेरे लेखन को क्या वहां खाद –पानी मिलेगा ? मेरे मन में इतने संशय हैं कि मन सदैव अशांत रहता है | कृपया कोई समाधान बताइये |
शंकराचार्य जी बड़े धैर्य से मेरी बात सुनते रहे | कुछ देर बाद बड़े शांत स्वर में जो उन्होंने मुझसे कहा उससे मेरे जीवन को सही दिशा मिली | उन्होंने कहा, माँ,
तुम कहाँ जा रही हो, तुम्हारा कर्म और धर्म तुम्हें वहाँ ले जा रहा है| तुम अपनी भाषा, संस्कृति और जीवन मूल्यों को अपने गठरी में बाँध कर ले जाओ और भावी  पीढी को उनसे अवगत / परिचित कराओ | तुम मात्री शक्ति हो, तुम पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी है | तुम भारतीय संस्कृति की दूत बन कर उसके प्रचार –प्रसार के लिए जा रही हो | यही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है और यही कर्त्तव्य | निश्चिन्त हो कर जाओ, ईश्वर सदा तुम्हारे साथ रहेगा |”
बहुत सरल भाषा में कहे गए उनके शब्दों को सुनते ही संशय के बादल मानों छंट गये | अब अमेरिका जाने के लिए मन और लालायित हो गया 
यहाँ आते ही सौभाग्य से हम नार्थकेरोलाइना के राली –डरहम शहर में आ गए| इस क्षेत्र में रहने वाले भारतीय लोग भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य के विकास और प्रचार में दिन रात कुछ न कुछ आयोजन करते रहते हैं |मुझे स्वयं नार्थ केरोलाइना के चैपल हिल विश्वविध्यालय में हिन्दी भाषा के अध्यापन का सुअवसर प्राप्त हुआ | विभिन्न कवि गोष्ठियों में भाग लेने से यहाँ के साहित्यकारों से मित्रता हुई और लेखन को एक नई दिशा मिली | इन सब से बढ़ कर जो मेरे लिए बहुत आनन्द, गर्व और संतोष  की बात हुई वो यह कि हमारे यहाँ परिवार में संग रहने से मेरे पोते और पोतियाँ हिन्दी भाषा में बात करते हैं, घर में पूरी भारतीय विधि से पूजा- अर्चना के साथ त्योहार मनाए जाते हैं, भारतीय  भोजन बनता है|  मुझे समय समय पर  बहुत आयोजनों में भारतीय संस्कृति के विभिन्न विषयों पर अपने विचार बांटने का अवसर मिलता है | अत: भारत से सैंकड़ों मील दूर सात समंदर पार भी हम अपने घर में तथा सभी भारतीय मित्रों के साथ मिल कर अमेरिका में पैदा हुई नई पीढ़ी के जीवन में भारतीय संस्कृति,भाषा  और जीवन मूल्यों को वही विशेष स्थान देने में सफल हुए हैं जो आज भारत में रहते हुए परिवार कर रहे हैं | अंतर केवल इतना है कि यहाँ के पश्चिमी वातावरण में इन सब के लिए परिश्रम अधिक करना पड़ता है |

अब रही लेखन की बात तो आज अंतरजाल ने विश्व को एक सूत्र में बाँध दिया है | अंतरजाल पर ही हम इतना साहित्य पढ़ लेते हैं कि लगता नहीं कि हम साहित्य जगत से दूर हैं | स्वयं मैं अपनी रचनाओं को अंतर्जाल की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजती हूँ जिससे मेरे लेखन को विकास और विस्तार मिलता है | अब सोचती हूँ शंकराचार्य जी ने ठीक ही तो कहा था ,’’ तुम कहां जा रही हो, भाग्य और कर्त्तव्य तुम्हें ले जा रहा है “|

shashipadha@gmail.com


सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

प्रस्तुत है एक लघु कथा ---

                       फ्युनरल होम   

“फ्युनरल होम” में रीमा का शव पहियों वाले हरे रंग के ताबूत में रखा हुआ था| ताबूत को सफेद-गुलाबी रंग के फूलों से सजाया हुआ था| आस-पास अनगिन खुशबूदार अगरबत्तियाँ और मोमबत्तियाँ जल रहीं थी |
मेन दरवाज़े की ओर से लम्बे-लम्बे काले कोट पहने, मुख पर अफसोस का मुखौटा लगाए लोग धीरे-धीरे हाल में प्रवेश कर रहे थे | यह सब रीमा के पति साहिल के ऑफिस के लोग थे जो शायद उससे कभी मिले ही नहीं थे | ना तो  रीमा के परिवार से भारत से कोई आ पाया था और ना ही साहिल के परिवार से | रीमा का देहांत शुक्रवार को हुआ था| विदेश में किसी की मृत्यु के बाद उसका अंतिम संस्कार अधिकतर शनिवार या रविवार को हो तो सब को सुविधा रहती है| काम काज से छुट्टी नहीं लेनी पड़ती| अत: सब की सम्मति से अंत्येष्टि के लिए रविवार ही निर्णित किया गया | साहिल उसके बेटे का दोस्त था, इसीलिए वो भी इस अंत्येष्टि में सम्मिलित हुई थी | हालांकि वो रीमा से परिचित नहीं थी |
हॉल के अन्दर एक माइक पर पंडित जी ने गीता का १५वाँ अध्याय पढ़ना आरम्भ किया | सब लोग चुपचाप सुन रहे थे | आधे लोग अमेरिकन थे,उन्हें तो शायद  कुछ भी समझ नहीं आ रहा था| अब पंडित जी ने यमराज की कहानी सुनाते हुए कहा,” संसार में केवल मृत्यु ही ऐसी होनी है जो अटल है| इसका समय, स्थान और कारण पहले से ही निश्चित होता है और इसे कोई  टाल नहीं सकता” | वगैरह –वगैरह |
बाहर बहुत ज़ोरों से बर्फ गिर रही थी | कुछ लोग अपने मोबाइल पर मौसम की जानकारी लेने में व्यस्त थे | शायद उन्हें चिंता थी कि अगर और देरी हुई तो सड़कों में यातायात के बंद हो जाने का डर था | मौसम विभाग ने ऐसी चेतावनी सुबह से ही दी थी किन्तु अंतिम संस्कार भी आज ही होना तय था| लोग शोक में डूबे कम और वापिस जाने को ज़्यादा अधीर लग रहे थे| अगरबत्ती,धूप, मोमबत्तियों का टिमटिमाना, पंडित जी का मंत्रोच्चारण, सब यंत्रवत चल रहा था |
और, दृश्य बदल रहा था| वो देख रही थी ट्राली में रखे ताबूत में रीमा के स्थान पर अपने निर्जीव शरीर को | आस –पास कोई भी अपना नहीं | अफ़सोस का मुखौटा लगाए अजनबी चेहरे| 
एक बार फिर से विदेश में बसने की पीड़ा का सर्प उसे दंश मार गया और वो फफक फफक कर रोने लगी |


शशि पाधा      

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

मानस मंथन : प्रस्तुत है एक कहानी ------

मानस मंथन : प्रस्तुत है एक कहानी ------:                 वो कौन थी एक पार्क की बेंच पर बैठे मैंने उसे कई बार देखा था | भारत से अमेरिका आए मुझे कुछ ही दिन हुए थे | समय काटने ...

प्रस्तुत है एक कहानी ------

                वो कौन थी


एक पार्क की बेंच पर बैठे मैंने उसे कई बार देखा था | भारत से अमेरिका आए मुझे कुछ ही दिन हुए थे | समय काटने के लिए हर शाम मैं  घर के पास के पार्क में टहलने के लिए जाती थी | परदेस में किसी स्वदेसी को देख लेना असीम  आनन्द का कारण बन जाता है | मैं बड़ी उत्सुकता से एक –दो बार उसके पास से गुज़री कि शायद बात हो जाए,लेकिन उसने मेरी ओर देखा तक नहीं |
वो चुपचाप बैठी शून्य में अपलक ताका करती, जैसे उसमे कुछ ढूँढ रही हो | कभी  धरती पर दृष्टि गढ़ाए अपने पाँव से किन्हीं प्रश्नों के उत्तर कुरेदती रहती | कभी मौन, निश्चेष्ट बैठी रहती  |
बहुत बार इच्छा हुई कि उसके पास जाऊँ, उससे परिचय बढाऊँ या उसकी निराशा का कारण पूछूँ| किन्तु मैं उसके मौन की परिधि को लाँघने का साहस नहीं जुटा पाई |
एक बार, केवल एक बार उसने थोड़ी आत्मीयता से मेरी ओर देखा था| मुझे लगा कि वो अपने एकान्त लोक से इहलोक में आ गई हो |उसे अपनी ओर देखते हुए मैंने सोचा कि शायद उसे मेरी आवश्यकता हो, शायद मैं उसकी कोई सहायता कर सकूँ| साहस करके मैं उसके पास चली गई |मुझे सामने खड़ा देख वो एक बार चौंक सी गई |
मैंने पूछा,” क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ ?”
बिना उत्तर दिए वो थोड़ा सा खिसक गई | मुझे लगा, मना भी तो नहीं किया |
उसके पास बैंच पर बैठते हुए मैंने कहा,” मेरा नाम गरिमा है | मैं भारत से हूँ | यहाँ कुछ दिन पहले ही आई हूँ |
बिना दृष्टि उठाए उसने केवल “हूँ’ कहा| क्योंकि मैं उम्र में उससे बड़ी थी अत: उसकी निराशा देख कर मेरे मन में ममता जागृत हुई | बात बढ़ाने के लिए मैंने उससे पूछा,” बेटी,क्या नाम है तुम्हारा ?”
पहली बार उसने दृष्टी उठाई | मेरी तरफ़ नहीं, सामने फैलते अन्धकार की ओर देखते हुए उसने कहा,”मेरा नाम मंदोदरी है”|
नाम सुन कर मैं चौंक गई| मैंने रामायण में पढने के अलावा आज तक किसी का यह नाम नहीं सुना था | जिस नाम के साथ एक वेदनामय कथांश जुड़ा हो , ऐसा नाम इसके माता पिता ने इसे क्यों दिया ?
प्रश्नसूचक दृष्टि से उसकी और देखते हुए मैंने कहा, “मंदोदरी, किन्तु”?
मेरा सवाल नहीं सुना उसने | तीव्र वेग से उठती हुई वो बोली,” यह मेरा असली नाम नहीं है | मैंने अपना नाम बदल दिया है “| और तेज़ क़दमों से चलती हुई वो घिरती साँझ के अंधेरों में खो गई|
वो तो चली गई लेकिन एक प्रश्न चिन्ह मेरे लिए छोड़ गई | मैं अब शून्य से पूछ रही थी –क्या रावण अभी तक जीवित है ??????

शशि पाधा



गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

मानस मंथन :       तोल मोल के बोल -- दोहे जग ने मुझ को सीखदी, ...

मानस मंथन :       तोल मोल के बोल -- दोहे
जग ने मुझ को सीखदी, ...
:        तोल मोल के बोल -- दोहे जग ने मुझ को सीख दी, तोल मोल के बोल | अब मैं बोलूँ तोल के, लोग कहें अनमोल || मितभाषी जो मनुज हो, ...
      तोल मोल के बोल -- दोहे

जग ने मुझ को सीख दी, तोल मोल के बोल |
अब मैं बोलूँ तोल के, लोग कहें अनमोल ||

मितभाषी जो मनुज हो, चैन मिले दिन रात |
न बहुतेरे मीत बनें, दुश्मन करे न घात ||

हार गई मैं बोल के, कोई सुने न बात |
अब चुप हूँ तो जग कहे, गूँगे का क्या साथ |
|
तरकश में लौटे नहीं, छूटा तीर कमान |
 निकला जो दीवार से, छोड़े कील निशान ||

मीठी वाणी वैद की, आधा रोग निदान |
मिश्री घुल गई नीम में, बच गए जान –प्राण ||

जग जितना भी कुटिल हो, छोड़ो न निज धर्म |
पीड़ा सब की बाँट लो, भर दो सब का मर्म ||

मधुर वचन के मंत्र से, जीतो जग संसार |
कोयल से ही सीख लो, मधुरस का व्यवहार ||

गुड़ से मैंने सीख ली, एक पते की बात |
अधरों पे जो घोल लो, करे कभी न घात ||

खारा जल सागर भरा, बुझे कभी ना प्यास |
छोटा सा झरना झरा, पंथी के मन आस ||

कटु वचन यूँ घाव करें, काँटा चुभता पाँव |
भरी दुपहरी बाँट दो, ठंडी ठंडी छाँव ||

शशि पाधा


सोमवार, 29 सितंबर 2014

मेरी माँ ------

माँ को समर्पित एक गीत

  आँचल संदली

जब भी देखा आँचल संदली
मंदिर देहरी ज्योत जली
मन की आँखों से माँ तेरी
अश्रु बन इक याद ढली |

माँ रंगती थी चुनरी अपनी
जैसा मन का मौसम था
कभी गुलाबी, कभी काश्नी
पीत वासन्ती तन मन था
 
रंग घुलते थे पूछ के उसको
हर रंग में वो लगी भली |

ठाकुर द्वारे कृष्ण कन्हैया
फूलों से थे सदा सजे
संध्या-वन्दन, दीप-आरती
माँ मीरा के गीत भजे
चित्रित करती माँ रंगोली
सज जाते थे द्वार गली |

सतरंगी धागों की डोरी
माँ रिश्तों की माल पिरोए
फीका हो न रंग प्रेम का
डोरी बारम्बार भिगोए
 ममता करुणा की रोली से
  माँ हम सब को बाँध चली|

त्याग दया की पावन गंगा 
माँ के अँगना बहती थी
माँ तो अपने सारे सुख दुःख
रंगों में ही कहती थी

  तेरे मन की मैं ही जानूँ
  मैं जो तेरी गोद पली |

शशि पाधा






सोमवार, 25 अगस्त 2014

श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर "अनुभूति" इ पत्रिका में प्रकाशित दोहे -----

       मुरली की तान

बंसी ने जब जान ली, राधा कान्हा प्रीत
सुर दूजा साधे नहीं और न गाए गीत|

ब्रज की भोली गोपियाँ, सुन मुरली की तान
घुँघरू बाँधें पाँव में, अधर धरें मुस्कान

कनक रंग राधा हुई, कारे- कारे श्याम
दोपहरी की धूप संग, खेल रही यूँ शाम |

राधा रानी गूथती वैजन्ती की माल
कान्हा पहने रीझते राधा लाल गुलाल

ऊधो से जा पूछतीं अपने मन की बात
कृष्णा ने परदेस से, भेजी क्या सौगात

यमुना तीरे श्याम ने, खेली लीला रास
लहर-लहर नर्तन हुआ, कण-कण बिखरा हास

गुमसुम राधा घूमती, दिल से है मजबूर
हर पंथी से पूछती, मथुरा कितनी दूर

कोकिल कूजे डार पे, गाये मीठे गीत
ढूँढे सुर में राधिका, बंसी का संगीत

सोचूँ जग में हो कभी, मीरा-राधा मेल
दोनों सखियाँ खेलतीं, प्रीत-रीत का खेल

पल छिन चुभते शूल से, क्षीण हुई हर आस     
कैसे काटे रात दिन, नैनन आस निरास                         

-
शशि पाधा 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

http://trivenni.blogspot.in/2014/08/blog-post.html  -- इस लिंक पर प्रस्तुत हैं मेरे रचे "माहिया "

माहिया ----शशि पाधा 

यह प्यार अनोखा है 
मन जब हीर हुआ 
कब,किसने रोका है|

राँझा क्या गाता है
गीतों के सुर में
मन पीर सुनाता है |

सागर जल खारा है
किरणों से पूछो
उनको तो प्यारा है |

लो बदरा बरस गए
धरती प्यासी थी
चुप आके सरस गए |

यह भाषा कौन पढ़े
नैना कह देते
अधरों पे मौन धरे |

यह चुप ना रहती है
साँसें बोलें ना
धड़कन सब कहती है |

कैसी मनुहार हुई
कल तक रूठे थे
अब मन की हार हुई |

मन पंछी उड़ता है
सपने पंख बने
रोके न रुकता है |

दोनों ने ठानी है
राधा कह दे जो
मीरा ने मानी है |

बिन पूछे जग जाने
प्रेम किया जिसने
वो रब को पहचाने 



  शशि पाधा 

दो रचनाएँ--दो भाव

     मौन का सागर 
   
मौन का सागर अपार
मैं इस पार - तू उस पार।

कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
संवादो की गठरी  बाँधे
  खड़े रहे मंझधार
न इस पार , न उस पार |

मान की डाली झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठायों के गहन भंवर में
छूट गई पतवार
कैसे होगा पार ?

उलझ गई रिश्तों की डोर
ढूँढ़ न पाए बिखरे छोर
टूटा मन का ताना बाना
शब्द गए सब हार
मैं इस पार , तू उस पार |

शशि पाधा 

   

     अनुनय 


कुछ कहो, कुछ तो सुनाओ
    गीत कोई गुनगुनाओ ।

बिन कहे और बिन सुने ही
  रात आधी हो गई
मौन के आकाश में हर-
 आस मेरी खो गई

छेड़ दो न सुर सुरीले
      तार मन के बजाओ |

भोर होने को अभी दो -
 चार पल बाकी पड़े हैं
यह घड़ी संवारने को
 दीप ले जुगनूँ खड़े हैं

रोक लो न यह प्रहर
  चाँद को तुम ही मनाओ 

साधना में लीन सी
मौन ये चारों दिशाएँ
रात की कालिमा में
मौन जलती तारिकायें

थाम लो न हाथ मेरा
      रात को कुछ तो सजाओ ।

गीत कोई गुनगुनाओ !!!

शशि पाधा





मंगलवार, 24 जून 2014

मेरे ब्लॉग "मानस मंथन " पर अपनी कुछ नई रचनाएँ साझा कर रही हूँ ------

    दीवानों की बस्ती में


हँसी ठिठोली, चुहल चुटकुले
दीवानों की बस्ती में
दिन तो बीते उत्सव मेले
रातें मौज परस्ती में |

उलझन की ना खड़ी दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों में
मोल भाव ना मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों में
  खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
  भर लो झोली सस्ती में |

चैन की बंसी, गीत गुनगुने
माथे पर ना शिकन कहीं
अभिमानों के महल कहीं न
साहु- सेठ का विघ्न नहीं
  सुख़-दुःख दोनों खेला करते
 धूप –छाँव की मस्ती में |

मन तो रहता खुली तिजोरी
ताला चाबी रोग नहीं
 रूखी सूखी बने रसोई
हाँडी छप्पन भोग नहीं
    चार धाम खुद आन बसे हैं
    सब की घर गृहस्ती में |

ताम झाम सब धरे ताक पे
किया वही जो लगा सही
झूठ कपट का कवच न पहना
खरी –खरी ही सदा कही
  न नेता न चपल चाकरी
   समदर्शी हर हस्ती में |

  शशि पाधा 
  

    
मौसम का डाकिया

इक ख़त बंद दे गया
मौसम का डाकिया,
भीनी सुगंध दे गया
मौसम का डाकिया |

नाम ना, पता नहीं
ना कोई मोहर लगी,
द्वार पर खड़ी –खड़ी
रह गई ठगी –ठगी

कांपते हाथ में
इक उमंग दे गया
मौसम का डाकिया |

किस दिशा, किस छोर में
जा छिपूं , ले  ऊडूँ
आँचल की ओट में
बार –बार मैं पढूँ |
  मौसमी गीत का
   राग- छंद दे गया
    मौसम का डाकिया |

मीत कोई देस से
क्या मुझे बुला रहा
बिन लिखे अक्षरों, से
मुझे रुला रहा

    अधर पे मुस्कान की
    इक सौगंध दे गया
    मौसम का डाकिया |

 अधखुली परत में
छिपी थी फूल पंखुड़ी
देश काल लाँघ कर
याद कोई आ जुड़ी
   मौन पतझार में
   रुत वसंत दे गया
       मौसम का डाकिया !!!!!


शशि पाधा 



     मैंने भी बनवाया घर

धरती अम्बर मोल ना माँगें
सागर ने पूछा ना दाम
नदिया पर्वत लिखें ना कागज
हवा ना पूछे क्या है नाम
  अपने मन की इस नगरी में
   मैंने भी बनवाया घर |

इस गाँव में न पटवारी
ना साहु, ना सेठ कोई
ना कोई माँगे हिस्सेदारी
धन का दाँव पलेच नहीं
  तिनके माटी घोल यहाँ की 
  मैंने भी बनवाया घर |

चहुँ दिशा दीवारें होंगी
नील गगन की छत खुली
सागर का तट नीँव सरीखा
धूप झरेगी धुली-धुली
    शंख सीपियाँ जोड़ के मैंने
     लहरों पे बनवाया घर |

   कोई ना पूछे अता –पता क्या
   किरणें सीधी राह चालें
   चंदा सूरज लालटेन से
   चौक–चौराहे आन जलें
    तारे-जुगनू टांग डगर पे
    मैंने भी बनवाया घर  |


   शशि पाधा




  
 और कितनी दूर जाना



उपलब्धियों की दौड़ में कब
खो गया सुख का ठिकाना
और कितनी दूर जाना ?

क्या किसी पड़ाव पर
बैठ सेंकी  धूप तूने
हाथ के दोने में रक्खी  
बारिशों की बूँद तूने

 भूल गया शोर में तू
पंछियों का चहचहाना
और कितनी दूर जाना ?


फुनगियों  पे नींव रखी
आसमां पे घर बसाया
एक दिन होगा अकेला
क्या कभी यह होश आया

     भोगने का वक्त कम है
      व्यर्थ ही भरता खजाना
और कितनी दूर जाना ?

 अंतहीन दौड़ में
 मन कभी थक जाएगा
किस लिए था दौड़ता
यह भी भूल जाएगा
          पंख कट जायेंगे, जब
            वक्त साधेगा निशाना |
और कितनी दूर जाना ?

उड़ रहा जो ठीक पीछे
धूल का गुब्बार देख
बाट जोहती, थक गई जो
आँख की बौछार देख

 लौट आ , आबाद कर
हाथ जोड़े घर वीराना
और कितनी दूर जाना  ?

 और कितनी दूर जाना ?????


शशि पाधा