तस्वीरें बोलती हैं --3
जिजीविषा
अमरीका में पतझड़ द्वारे आन खड़ी है| यहाँ
पर भारत की तरह छ: ऋतुएँ तो नहीं होती किन्तु गर्मी के बाद पतझड़ आ ही जाती
है | प्रकृति का नियम
है , आएगी ही | पतझड़ का स्वागत यहाँ बहुत जोर शोर से होता
है | जब पत्ते रंग
बदलते हैं तो इतने रंगों में रंग
जाते हैं कि इन्हें नाम देना भी
कठिन हो जाता है | खैर, पतझड़ के रंगों पर तो मैं फिर कभी
लिखूँगी | आज मैं एक नन्हे
से फूल की जिजीविषा का कथा सूना रही हूँ |
हमारे घर में तरणताल के आसपास सुर्ख गुलाबों की
एक झाड़ी है | गर्मियों में
इतने गुलाब खिलते हैं कि पत्ते भी छिप जाते हैं | फिर धीरे- धीरे
मौसम बदलने लगता है और गुलाब कम होने लगते हैं | पत्ते पीले पड़ने लगते हैं और झड़ने लगते
हैं | मैं रोज़ उनके
पास जाकर मौन में विदा बोलती हूँ और कहती हूँ," अगली बार जल्दी आना दोस्त |"
पता नहीं वो मेरी बात सुन पाते हैं कि नहीं | किन्तु मैं ठहरी परदेसिन | मुझे
यह गुलाब अपने बचपन के घर की याद दिलाते हैं | मुझे उनके साथ अजीब सा मोह हो जाता है | जब वो धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं
तो मैं उदास हो जाती हूँ |
कल जब खिड़की से मैंने उस झाड़ी पर एक इकलौता
गुलाब देखा तो मैं उसके पास चली गई| आस-पास के पत्ते कुछ हरे पर अधिकतर
पीले थे | सूखी टहनियों पर काँटे अभी तक सही सलामत थे | मैंने पास जाकर उस नन्हे फूल को निहारा
|
देखा तो एक दो काँटे उसे चुभ रहे थे | उस
कोमल फूल की टहनी को मैंने काँटों से अलग
किया | लगा, वो फिर से मुस्करा रहा था| आस
पास की सूखी झाड़ और पतझड़ की हवाओं से
निश्चिन्त वो 'जी 'रहा
था --अपने आज को पूरी तरह जी से रहा था |
मैंने झट से उसकी तस्वीर ली | उस तस्वीर को देख कर मेरेमन में एक विचार आया | उसे मैंने एक हाइकु के
रूप में लिख दिया | जैसे
वो कह रहा हो ---
मैं तो
खिलूँगा
अरे ओ पतझड़
धत तेरे की |
उसकी
इस जिजीविषा के संकल्प को नमन |
शशि पाधा
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